मृदुला गर्ग के विवादित उपन्यासों में ये कैसी स्रियां!
स्त्री-पुरुष संबंधों के खुलेपन पर दो टूक शब्द-बयानी के कारण लोकप्रिय लेखिका मृदुला गर्ग के दो प्रमुख उपन्यास 'चितकोबरा' और 'कठगुलाब' विवादास्पद भी माने जाते रहे हैं। आज (25 अक्तूबर) मृदुला जी का जन्मदिन है।
दांपत्य से बाहर के सम्बन्ध आज भी भारतीय समाज में गलत नज़रिए से देखे जाते हैं। ऐसे रिश्तों पर जैसे पूरी सोसायटी ही न्यायाधीश बन जाती है। प्रश्न ये भी है कि आखिर ऐसे संबंध बनते क्यों हैं?
देश की लोकप्रिय हिंदी लेखिका मृदुला गर्ग बेहद संकोची और अन्तर्मुखी व्यक्तित्व की उपन्यासकार मानी जाती हैं। कहा जाता है कि उनके सृजन से हिंदी साहित्य में एक नया मोड़ आया। 'चितकोबरा', 'कठगुलाब', ‘मिलजुल’, 'अनित्य', 'एक और अजनबी', 'चूकते नहीं सवाल', 'जादू का कालीन', आदि उनकी प्रमुख कृतियां हैं। उनका सृजन मुख्यतः भारत के बंद समाज में घिरी स्त्रियों की समस्याओं पर केंद्रित रहा है। जाहिर है कि हमारे समाज में स्त्रियों की सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियां भिन्न हैं। उनका जीवन तरह-तरह की पीड़ा एवं संघर्षों से जूझ रहा है। मृदुला जी की कृतियां इन स्त्रियों के सामाजिक और आर्थिक परिवेश की नई-नई कहानियां सुनाती हैं। उनके उपन्यासों का पाँचवाँ पात्र होता है पुरुष। उनका एक ऐसा ही उपन्यास है 'कठगुलाब', जो पुरुष-प्रधान समाज में जी रही स्त्री के शोषण तथा मुक्ति की व्यथा-कथा है। स्मिता, मारियान, नर्मदा, असीमा, नीरजा आदि इस उपन्यास की मुख्य स्त्री-पात्र हैं। इन सभी को पुरुषों से नहीं ,बल्कि निर्लज्ज व्यवस्था से मुक्ति की तलाश रहती है।
'कठगुलाब' एक तरह से भारतीय स्त्रियों की पीड़ा एवं संघर्ष का एक जीवंत दस्तावेज़ है। इस सशक्त औपन्यासिक कृति में नारी पर घटित अन्याय, अत्याचार एवं उसकी वेदना के साथ नर-नारी सम्बन्धों की जटिल बुनावट और उसके रेशे-रेशे को व्याख्यायित करने की छटपटाहट का प्रत्यक्ष प्रमाण मिलता है। ‘कठगुलाब’ का प्रतीकात्मक अर्थ है ‘नारी की जिजीविषा।’ इस कृति में मृदुला गर्ग ने रेखांकित किया है कि स्त्रियाँ गुलाब नहीं हैं, जो उग जाने पर अपने आप खिल भी जाता है। वे कठगुलाब हैं, जिन्हें थोड़ी-सी देखभाल के साथ खिलाना भी पड़ता है। बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न मृदुला गर्ग ने कहानियों एवं उपन्यासों के अलावा नाटक, निबंध, संस्मरण आदि विधाओं में भी लिखा है। स्त्री-पुरुष संबंधों में सेक्स के खुलेपन पर दो टूक विचार व्यक्त होने के कारण उनकी दोनों प्रमुख कृतियां 'चितकोबरा' और 'कठगुलाब' विवादास्पद भी मानी जाती रही हैं।
कथाकार मृदुला गर्ग का जन्म 25 अक्तूबर 1938 में कोलकता में हुआ था लेकिन उनकी शिक्षा–दीक्षा दिल्ली में हुई। उन्होंने अर्थशास्त्र में दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकोनोमिक्स से एमए किया। वर्ष 1975 में उनका पहला उपन्यास ‘उसके हिस्से की धूप’ प्रकाशित हुआ। अब तक उनके छह उपन्यास, अस्सी कहानियां (संगति–विसंगति नाम के दो खंडों में संग्रहीत), तीन नाटक, दो निबंध संग्रह छप चुके हैं। उनके निबंध देश–विदेश की श्रेष्ठ पत्रिकाओं में छपते रहे हैं। ‘चित्तकोबरा’ का जर्मन अनुवाद 1987 में जर्मनी में प्रकाशित हुआ। 1990 में इसका अंग्रेज़ी में अनुवाद आ गया। 'कठगुलाब' का अंग्रेज़ी अनुवाद ‘कंट्री ऑफ़ गुडबाइज़’ वर्ष 2003 में प्रकाशित हुआ।
उनकी अनेक कहानियां अन्य हिंदीतर भाषाओं, अंग्रेज़ी, जर्मन, जापानी एवं चेक में अनूदित हो चुकी हैं। वर्ष 1988–89 में उन्हें दिल्ली हिंदी अकादमी ने, 1999 में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने, 2001 में न्यूयॉर्क ह्यूमन राइट्स वॉच ने, 2003 में सूरीनाम विश्व हिंदी सम्मेलन ने, वर्ष 2013 में साहित्य अकादमी ने सम्मानित किया। 'कठगुलाब' को सन् 2004 का व्यास सम्मान मिल चुका है। वह इंडिया टुडे में ‘कटाक्ष’ नाम का पाक्षिक स्तंभ लिखती रही हैं।
मृदुला जी के उपन्यास 'चित्त कोबरा' को रिश्ते के खुलेपन के नाते विवादास्पद माना जाता है। एक तरह से यही उनकी सबसे लोकप्रिय कृति है। इसमें महेश और मनु पति-पत्नी हैं, जो अपने दाम्पत्य संबंधों से असंतुष्ठ हैं। महेश को मनु वह सब कुछ देती है, जो एक आदर्श पत्नी संभव होता है लेकिन दोनों के रिश्ते सहज नहीं रह पाते हैं। इस उपन्यास का पहला वाक्य है- 'मेरे हमसफर किसी ने पूछा था - यह सड़क कहाँ जाती है?' इसका तीसरा महत्वपूर्ण पात्र है रिचर्ड। रिचर्ड और मनु की मुलाकात एक नाटक के रिहर्सल के दौरान हुई। फिर दोनों में आकर्षण हुआ और फिर प्यार। रिचर्ड एक पादरी है, जो अक्सर भारत आया करता है। वह दुनिया भर में घूमा करता है। मुलाकात के दौरान जब रिचर्ड से मनु की मुलाकात होती है, वह महेश के साथ ब्याही जा चुकी है।
दांपत्य से बाहर के सम्बन्ध आज भी भारतीय समाज में गलत नज़रिए से देखे जाते हैं। ऐसे रिश्तों पर जैसे पूरी सोसायटी ही न्यायाधीश बन जाती है। प्रश्न ये भी है कि आखिर ऐसे संबंध बनते क्यों हैं? अगर लोग अपने पार्टनर से खुश नहीं है तो वे उन्हें छोड़ क्यों नहीं देते और अगर हैं तो फिर इन संबंधों का क्या कारण है? ऐसे में शादी इंसान के लिए एक अप्राकृतिक रिश्ता क्यों बन जाती है? यह पूरा उपन्यास मुख्यतः मनु की भौतिक स्थितियों पर केंद्रित है। ऐसा नहीं कि महेश कोई खराब इंसान है, वह भी मनु का ख्याल रखता है, फिर भी मनु रिचर्ड के प्रति आकर्षित हो जाती है।
सच तो ये है कि दोनो आम इंसान की तरह अपने समाज से लड़ना भी नहीं चाहते हैं, न अलग होना चाहते हैं। इस उपन्यास के पाठकों को एक नया दृष्टिकोण मिलता है। उनपन्यास में रिचर्ड ने अपनी पत्नी की जो तस्वीर मनु के सामने प्रस्तुत की है, वह भी कितना सही है, पाठक सोचता रहता है। हमारे समाज में पुरुष की फितरत असल ज़िन्दगी में अनेक लड़कियों के साथ होने की रहती है। कई लोग इस भावना पर काबू पा लेते हैं लेकिन कई लोग इस फंतासी को पूरा कर देते हैं। इस उपन्यास में मनु के पति और रिचर्ड की पत्नी की प्रतिक्रियाएं परस्पर एक दूसरे से एक दम उलट होती हैं। इस तरह इसका पूरा कथानक पाठकों को एक अत्यंत जटिल परिवेश तक ले जाने में कामयाब होता है। पात्र जितने जीवंत हैं, उतने ही यथार्थ के नज़दीक।
लाल्टू लिखते हैं- 'चितकोबरा' नारी-पुरुष के संबंधों में शरीर को मन के समांतर खड़ा करने और इस पर एक नारीवाद या पुरुष-प्रधानता विरोधी दृष्टिकोण रखने के लिए काफी चर्चित और विवादास्पद रहा है तो 'कठगुलाब' को इसी वैचारिक पृष्ठभूमि में देखा जा सकता है। पाठक निरंतर पाठ से जुड़े रहते हैं। प्लाट, थीम, दृष्टिकोण- कथावाचन के हर तत्व में मृदुला सिद्धहस्त हैं। पर इन सबमें ऐसा नया कुछ नहीं है, जिस पर विशद चर्चा हो सके। 'कठगुलाब' को अगर किसी कसौटी पर परखा जाना चाहिए, वह है पुरुष-प्रधान समाज के बारे में इसके सवाल और नारीवादी विचारों की उलझनों का सामंजस्य। हिंदी में स्पष्ट रूप से नारीवाद पर आधारित ऐसी रचनाएँ बहुत कम हैं। स्त्री-पुरुष संबंधों के विभिन्न आयाम और उनकी जटिलताओं को जितनी खूबसूरती से कृष्णा सोबती सामने लाती हैं, वह मृदुला पूरी तरह दे पाने में सक्षम नहीं हैं।
शायद इसकी एक वजह मृदुला के अनुभव संसार की भौगोलिक व्यापकता है। 'कठगुलाब' वर्ग द्वंद्वों को बखानने की भी ज़बर्दस्त कोशिश है। मृदुला पर अपने चरित्रों के प्रति पूरी तरह न्याय करने का दबाव बहुत अधिक है। इसी दबाव के चलते कहीं यह अमरीका का 'फॉल' (पतझड़) या वहाँ की सांस्कृतिक जटिलताओं को बखानने में परेशान हैं, तो कहीं नर्मदा ('छोटे लोग') की मानसिकता को प्रतिष्ठित करने में लाचार हैं।' फिर भी ‘कठगुलाब’ मृदुला गर्ग की स्त्री-विमर्श के दृष्टिकोण से एक सफलतम कृति है। इस उपन्यास में केवल भारतीय ही नहीं अपितु यूरोपीय स्त्रियों की पीड़ा की कहानी भी है। इसमें स्त्री-विमर्श की अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर समीक्षा की गई है, जिसमें यह बात उभरकर सामने आती है कि स्त्री चाहे किसी भी देश की क्यों न हो, वह आज भी प्रताड़ित है। मृदुला गर्ग का 2005 में प्रकाशित उपन्यास ‘मिलजुल’ भी नारी के स्वतंत्र अस्तित्व की खोज को रेखांकित करता है।
इसमें रूढ़ि एवं परंपराओं में जकड़ी नारी की अंतर्ग्रंथि को सुलझाने की कोशिश की गई है। गुलमोहर और मोगरा दो बहनों के कथानक में बुने गए इस उपन्यास में दोनों पढ़ी–लिखी, स्वतंत्र विचारों की हैं किंतु पति के होते हुए भी वह परिवार का बोझ खुद अकेली ढोती हैं और पति महाशय हैं कि नहीं के बराबर होकर भी उनका अपने परिवार के लिए कोई फायदा नहीं। पत्नी उन दोनों के लिए एक जीवन का माध्यम मात्र है और कुछ नहीं।
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