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कविता में गद्य-पद्य और चोरी-सीनाजोरी की रार

कविता में गद्य-पद्य और चोरी-सीनाजोरी की रार

Sunday September 30, 2018 , 7 min Read

अब कवियों ने कविता में भी चालाकी करनी शुरू कर दी है। कविता उनके लिये जीवन-मरण का प्रश्न नहीं बल्कि उपयोग, उपभोग और आगे बढ़ने का साधन बन गई है। कविता में चोरी और सीनाजोरी की घटनाएं भी आम हो चली हैं। फेसबुक पर तो रोजाना दूसरे कविता अपने नाम से उड़ेल देने की बेशर्मी चल ही रही है, कई बड़े कवियों को मंचों पर भी अपने सामने अपनी ही कविता चुराकर किसी और को पढ़ने की घटनाएं भी हो चुकी हैं।

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हाल के वर्षों में वह लंदन के एक कविसम्मेलन-मुशायरे में मशहूर शायर मुजफ्फर हनफी के सामने ही उनका शेर चुराकर जनाब बेशर्मी से पढ़ने लगे। 

ज्यादातर कविताएं तो आम पाठकों, दर्शकों, श्रोताओं के सिर चढ़कर बोलती हैं लेकिन लोगों को पता नहीं कि कवि-शायर, कवयित्री-शायरा ऐसी भी रचनाएं करते रहते हैं, जो कविताई करने वालों के सच से पर्दा उठाती रहती हैं, वह सच विधा का हो, तुकबंदी का अथवा और कोई। वैसे भी कवियों और कविताओं के लिए यह समय बड़ा कठिन है। वह इसलिए कि अब कवियों ने कविता में भी चालाकी करनी शुरू कर दी है। कविता उनके लिये जीवन-मरण का प्रश्न नहीं बल्कि उपयोग, उपभोग और आगे बढ़ने का साधन बन गई है। गीत-कवि राम सेंगर कहते हैं -

कविता को लेकर,जितना जो भी कहा गया,

सत-असत नितर कर व्याख्याओं का आया।

कविकर्म और आलोचक की रुचि-अभिरुचि का

व्यवहार-गणित पर कोई समझ न पाया।

'कविता क्या है' पर कहा शुक्ल जी ने जो-जो,

उन कसौटियों पर खरा उतरने वाले।

सब देख लिए पहचान लिए जनमानस ने

खोजी परम्परा के अवतार निराले।

इस छंदमुक्ति में, गद्य बचा कविता खोयी,

सब खोज रहे हैं,अंधे हों या कोढ़ी।

काव्यानुभूति की बदली हुई बनावट की,

नवगीति पीठिका खेल-खेल में तोड़ी।

गति लय स्वर शब्दसाधना की देवी कविता,

कविता से कवितातत्व तुम्हीं ने खींचे।

कविता न कथ्य का गद्यात्मक प्रक्षेपण है

कविता, कविता है, परिभाषाएं पीछे।

कविता में चोरी और सीनाजोरी की घटनाएं भी आम हो चली हैं। फेसबुक पर तो रोजाना दूसरे कविता अपने नाम से उड़ेल देने की बेशर्मी चल ही रही है, कई बड़े कवियों को मंचों पर भी अपने सामने अपनी ही कविता चुराकर किसी और को पढ़ने की घटनाएं भी हो चुकी हैं। मध्य प्रदेश के एक बड़े नामचीन शायर हैं, युट्यूब से लेकर टीवी-दूरदर्शन तक पर आज कल छाए रहते हैं। हाल के वर्षों में वह लंदन के एक कविसम्मेलन-मुशायरे में मशहूर शायर मुजफ्फर हनफी के सामने ही उनका शेर चुराकर जनाब बेशर्मी से पढ़ने लगे। हनफी तो भलमनसाहत में चुप रहे, बगल में बैठे एक दूसरे बड़े शायर मुनव्वर राना को यह बेशर्मी बर्दाश्त नहीं हुई। उन्होने टोका तो चोर शायर कहने लगा, वह तो हनफी जी के सम्मान में यह रचना उनको ही सुना रहा था। ऐसे ही हालात पर कवि संजय चतुर्वेदी लिखते हैं -

कविता में तिकड़म घुसी जीवन कहां समाय।

सखियां बैठीं परमपद सतगुरु दिया भगाय।।

घन घमंड के झाग में लंपट भये हसीन।

खुसुर पुसुर करते रहे बिद्या बुद्धि प्रबीन।।

सतगुरु ढूंढ़े ना मिलै सखियां मिलें हज़ार।

किटी पार्टी हो गया कविता का संसार।।

कवियों के लेहड़े चले लिए हाथ में म्यान।

इत फेंकी तलवार उत मिलन लगे सम्मान।।

कविता आखर खात है ताकी टेढ़ी चाल।

जे नर कविता खाय गए तिनको कौन हवाल।।

कवियों ने धोखे किये कविता में क्या खोट ।

कवि असत्य के साथ है ले विचार की ओट ।

आज तमाम कवि अपनी निष्ठा से किनारा कर पुरस्कृत हो रहे हैं, बड़े घरानों से प्रकाशित हो रहे हैं और तमाम तरह की सुविधाओं के आकांक्षी बनकर मुलायम बने हुए हैं- जीवन में भी और कविता में भी। खरी-खरी कहने की कवियों जैसी आदत से बड़े अभ्यास के बाद मुक्ति पा ली है और अब निश्चिंत होकर शब्दों से खेल रहे हैं। 'ऐसे कठिन दौर में जो कवि ईमानदारी से कविता कर रहे हैं या आलोचक और संपादक की घालमेल वाली ठकुरसुहाती से दूर कविता रच रहे हैं– उन्हें खारिज किया जा रहा है। क्या सुविधा और साधनों की ललक कवियों को बड़ा बना सकती है? क्या कोई संपादक या आलोचक कवि को महान या छोटा बना सकता है? कहने को हमारे सामने कई उदाहरण हैं, जो अपने समय में महान बने रहे, पर बाद में किसी ने नहीं पूछा और अपने समय में उपेक्षित कर दिये कवि बाद में महान साबित हुए तथा कविता की धारा के विभिन्न स्त्रोतों की गंगोत्री वे ही साबित हुए। प्रतिष्ठित हिंदी अष्टभुजा शुक्ल ने इस तरह की कविताई पर एक भजन लिखा है -

कविजन खोज रहे अमराई।

जनता मरे, मिटे या डूबे इनने ख्याति कमाई॥

शब्दों का माठा मथ-मथकर कविता को खट्टाते।

और प्रशंसा के मक्खन कवि चाट-चाट रह जाते ॥

सोख रहीं गहरी मुषकैलें, डांड़ हो रहा पानी।

गेहूं के पौधे मुरझाते, हैं अधबीच जवानी ॥

बचा-खुचा भी चर लेते हैं, नीलगाय के झुंड।

ऊपर से हगनी-मुतनी में, खेत बन रहे कुंड॥

कुहरे में रोता है सूरज केवल आंसू-आंसू।

कविजन उसे रक्त कह-कहकर लिखते कविता धांसू॥

बाली सरक रही सपने में, है बंहोर के नीचे।

लगे गुदगुदी मानो हमने रति की चोली फींचे॥

जागो तो सिर धुन पछताओ, हाय-हाय कर चीखो।

'अष्टभुजा' पद क्यों करते हो कविता करना सीखो॥

घाना के कवि क्वामे दावेस लिखते हैं - 'बेशर्म हवाओं से निकली आवाज़ की तरह, कविता के बाहर आने के पहले, सोना होता है कवि को एक करवट साल भर, खानी होती है सूखी रोटी, पीना पड़ता है हिसाब से दिया गया पानी। कवि को डालनी होती है घास के ऊपर रेत, बनानी होती है अपने शहर की दीवारें, घेरना होता है दीवारों को बंदूक की गोली से, बंद करनी होती है शहर में संगीत की धुन। कवि की जीभ हो जाती है भारी, रस्सियां बंध जाती हैं बदन में, अंग प्रत्यंग हो जाते हैं शिथिल। उलझता है वह खुदा से– पूछता है–क्या है कविता का अर्थ। पड़ा रहता है एक सौ नब्बे दिनों तक, बदलकर करवट दूसरी तरफ, परिजनों को दिए घावों से हो जाती है छलनी देह, मांगता है वह दया की भीख। कविता लिखने से पहले, कवि को करना पड़ता है यह सब, ताकि सर्दियों के मौसम के बीच, निकले जब वह सैर पर, न हो चेहरे पर सलवटें, आँखों में हो एक लाचार बेबसी– जिसे लोग कहते हैं शांति, अपनी गठरी में लिए बौराए हुए थोड़े से शब्द, हरे रंग और उन आवाजों के बारे में, जो बुदबुदाती हैं सपने में वारांगनाएं।'

पाब्लो नेरूदा के शब्दों में 'कविता में अवतरित मनुष्य बोलता है कि वह अब भी बचा हुआ एक अन्तिम रहस्य है।' कविता के केन्द्र में सदैव मनुष्य और मनुष्य और मनुष्यता ही रहती है, इसलिए वह मनुष्य से जुड़े सभी सवालों को सम्बोधित करती है। धूमिल के शब्दों में 'कविता भाषा में आदमी होने की तमीज़ है।' कविता शून्य के प्रति एक प्रार्थना और अनुपस्थिति के साथ एक संवाद है लेकिन कवि समुदाय की ओर से अपने सृजन में शब्दशः इनका निर्वाह कहां हो पाता है। अगर निर्वाह होता तो युवा कवि अमित खरे को ऐसा नहीं लिखना पड़ता-

वो दिनकर के वंशज देखो भीख मांगते ताली की।

ओज पूर्ण कविता के बदले भाषा लिखते गाली की।

कोई चिल्ला चोंट के दम पर ऊँची कीमत लेता है,

कोई कविता के मंदिर को ठेके पर दे देता है।

आज कमीशन खेल हुआ है मंचों के बाजारों का,

सूरज पर अधिकार हुआ है जुगनू का अंधियारों का।

कोई देखो जोड़ तोड़ से लाल किला पा जाता है,

एकलव्य का कटा अंगूठा याद हमें आ जाता है।

मंचों पर व्यापार घुसा है जाने कितने जाली है,

चार पाँच कविता के आगे ये तो पूरे खली हैं।

कविता के आँगन तक जो कचड़ा आ पंहुचा है,

माँ वाणी के धवल वसन को इसने ही तो नोचा है।

मै कहता हूँ जबतक अपना आँगन साफ नहीं होगा,

निरपराध होकर भी अब तो कोई माफ़ नहीं होगा।

शब्दकोश जिनके बौने हैं उनने सीना ताना है,

एक लक्ष्य लेकर चलते हैं मंचों को हथियाना है।

मंचों का बाजार खड़ा है चुटकुल्लो की देहरी पर,

ओज टिका दिखता है मुझको पिंडी की रणभेरी पर।

राजनीति के तलबे चाटे तब जाकर उद्धार हुआ,

नीलामी पर सबकुछ रखकर उनका बेड़ा पर हुआ।

ये तो केवल तुकबन्दी है नहीं है भाषा कविता की,

नादानी में मान रहे हैं इसे ही भाषा कविता की।

मुझे जरूरत नही पड़ेगी ऐसे सौदेबाजो की,

मै भी कीमत जान गया हूँ पंखों की परवाजों की।

शुद्ध कवि की आजतलक भी मंचों से क्यों दूरी है,

बाजारू ही मंच चढ़ेगा ऐसी क्या मजबूरी है।

माँ वाणी की पीड़ा को मै मरते दम तक गाऊंगा,

इस मशाल को लेकर के मै अंतिम तम तक जाऊंगा।

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