फुट पेंटर शीला के हौसलों ने लिखी कामयाबी की इबारत
"मंजिल उन्हीं को मिलती है जिनके सपनों में जान होती है,
पंख से कुछ नहीं होता, हौसलों से उड़ान होती है!"
शायर की ये पंक्तियां यूं ही नहीं लिखी गईं, बल्कि इनके पीछे बड़ा गहरा अर्थ छिपा है और इन पंक्तियों का अर्थ समझाते हैं शीला के हौसले। शीला चाहती, तो ज़िंदगी में आये बड़े तूफान के बाद गुमनामी के अंधेरों में छिप जाती या फिर कहीं किसी रोज़ अपनी कमियों का रोना रोती हुई मिलती, लेकिन वो जानती है कि जिन्हें हमारा समाज कमियां कहता है वो असल में मन का वहम है। वो जानती है कि ज़िंदगी और कागज़ी तस्वीरों में रंग रंगों से नहीं भरा जाता, बल्कि थोड़ा रंग आसमान से और थोड़ा रंग ज़मीन से चुराना पड़ता है। शीला के आसमानी और ज़मीनी रंग ने एक साथ मिल कर उसके साथ-साथ उन सभी की ज़िंदगियों में रंग भरने की कोशिश की है, जो परिस्थितियों से डर कर जीने का हौसला छोड़ देते हैं। आईये जानें उस शीला के बारे में जिन्होंने अपनी कामयाबी की इबारत रंगीन कुचियों से लिख दी है।
"शीला ने कम उम्र में एक रेल हादसे के दौरान अपने दोनों हाथ और पैर की तीन अंगुलियां खो दीं। इस हादसे ने शीला से उसकी मां को भी छीन लिया। एक छोटी-सी बच्ची के लिए बहुत मुश्किल था बगैर मां और अपने दोनों हाथों के बिना ज़िंदगी गुज़ारना। लेकिन शीला ने हार नहीं मानी।"
शीला शर्मा वैसे तो गोरखपुर के एक मध्यवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखती हैं, लेकिन उनका नाम लखनऊ जैसे महानगर में भी नया नहीं है। लखनऊ के अधिकतर लोग शीला की कला और उनके हौसलों के दिवाने हैं। शीला पेशे से एक पेंटर हैं और सबसे अश्चर्यजनक बात ये है कि शीला अपने पैरों से पेंटिंग बनाती हैं। पेंटिग ऐसी कि लोग हाथों से भी वैसी पेंटिंग नहीं बना सकते।
शीला जब छोटी थीं, तो उन्होंने एक रेल हादसे में अपनी मां और अपने दोनों हाथ खो दिये थे। ये ऐसा रेल हादसा था जिसमें उनके दोनों हाथों के साथ-साथ पैर की तीन अंगुलिया भी कट गयीं। उसके बाद जैसे-जैसे शीला की उम्र बढ़ती गयी उनका हौसला भी बढ़ता गया और अपने उन्हीं हौसलों को आकार देने के लिए उन्होंने रंगों और कूचियों से खेलना शुरू कर दिया। आगे चलकर शीला ने लखनऊ यूनिवर्सिटी से आर्ट्स में स्तातक किया और पैरों से पेंटिंग बनानी शुरू कर दी। शीला पेंटिंग करते समय अपने पैरों और मुंह दोनों का इस्तेमाल करती हैं। शीला कुछ दिन दिल्ली में भी रहीं और वहां के रहन-सहन और कलाकारों की प्रतिभा देखकर प्रभावित हुईं। बदलते परिवेश और शहरों ने उनके हौसलों को आकार दिया।
लेकिन फिर भी दिल्ली में मन नहीं लगा और वो अपने शहर लखनऊ वापिस लौट गईं। यहां आकर उनकी मुलाकात सुधीर से हुई और सुधीर-शीला की शादी हो गई। शीला शादी के बाद भी अपने रंगों से दूर नहीं हुईं साथ ही सुधीर के उत्साहवर्धन और साथ ने उनकी कलाकारी को निखारने का काम किया। वो रंगों और कूचियों को अपनी अंगुलयों में दबाये आगे बढ़ती रहीं। साथ ही शीला ने परिवार की जिम्मेदारियों को भी पूरी ईमानदारी से निभाया, फिर बात चाहे किचन में खाना बनाने की हो या फिर कोरे कागज़ों में रंग भरने की।
"शीला कई शहरों में अपनी कला प्रदर्शनियां लगा चुकी हैं, जिनमें लखनऊ, दिल्ली, मुंबई और बैंगलोर जैसे महानगर भी शामिल हैं।"
शीला एक बहादुर महिला हैं और परिस्थितियों से किस तरह लड़ना है ये उन्हें बहुत अच्छे से आता है। अपनी इसी ज़िद के चलते शीला ने कभी किसी भी सरकारी भत्ते का सहारा नहीं लिया। उनके लिए अपंगता न ही कोई अभिशाप है और न ही ऐसी कोई कमी कि उसकी आड़ लेकर अपनी ज़रूरतों को आसानी से पूरा किया जा सके। शीला दो बच्चों की मां हैं। बच्चों को भी उनकी तरह पेंटिंग का शौक है। शीला अपने परिवार और काम में सामंजस्य बनाकर चलती हैं। उनके लिए उनकी कला पूजा है और परिवार उनकी ज़िंदगी। दोनों के बिना रह पाना मुश्किल है और साथ लेकर चलना आसाना।
शीला कई शहरों में अपनी कला प्रदर्शनियां लगा चुकी हैं, जिनमें लखनऊ, दिल्ली, मुंबई और बैंगलोर जैसे महानगर भी शामिल हैं। शीला की नॉनस्टॉप मेहनत और लगन का ही नतीजा है, कि शीला अनेकों पुरस्कार भी जीत चुकी हैं। उनके जानने वाले उन्हें फुट पेंटर के नाम से पुकारते हैं। शीला को प्राकृति और औरतों की पेंटिंग बनाना अच्छा लगता है।
"शीला का सपना है, कि वो ऐसे बच्चों को पेंटिंग सिखायें, जो उनकी ही तरह किसी न किसी हादसे के चलते अपने हाथ या पैर गंवा चुके हैं। लेकिन ये काम वो पैसों और किसी एनजीओ के तहत नहीं करना चाहतीं।"
शीला का मानना है, कि कुछ भी असंभव नहीं है। हर काम किया जा सकता है। उसके लिए हाथ पैर और ताकत की जरूरत नहीं है बस दिमाग और सकारात्मक सोच का होना ज़रूरी है। शायद इसीलिए किसी ने सच ही कहा है, कि कला कभी शरीर के अंगों की मोहताज नहीं होती। उसे तो सिर्फ उस धुन की दरकार होती है, जो उसके जुनून में हौसला फूंकने का काम करें।