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स्कूल के लिए बच्चे ज्यादा पैदल ना चलें इसलिए अनोखा अभियान...साइकिल रीसाइकिल

सोसायटी के लोग बढ़ चढ़कर अपनी साइकिलें उन बच्चों को दे रहे हैं, बल्कि दूसरी सोसायटी के लोग भी इस नेक काम को करने के लिए आगे आ रहे हैं। लेले ने काम को विस्तार देने के लिए ‘साइकिल रीसाइकिल’ नाम से इस प्रोजेक्ट की फेसबुक के जरिये शुरूआत की है, जिसके बाद अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया, दुबई और दूसरे देशों से भी लोग मदद करने के लिए आगे आ रहे हैं।

स्कूल के लिए बच्चे ज्यादा पैदल ना चलें इसलिए अनोखा अभियान...साइकिल रीसाइकिल

Thursday May 19, 2016 , 6 min Read

साइकिल भले ही दो पहियों की सवारी हो, लेकिन इन पहियों में इतनी ताकत होती है कि वो आदिवासी और पिछड़े इलाके में तरक्की की रफ्तार भी बढ़ा सकती है। इस बात को बेहतर तरीके से समझा पुणे में रहने वाले वरिष्ठ खेल पत्रकार सुनंदन लेले ने। सुनंदन आज अपनी सोसायटी में रहने वाले लोगों की मदद से दूर दराज़ से आने वाले सैकड़ों स्कूली बच्चों के बीच साइकिलें बांट रहे हैं। उनकी कोशिशों का असर है कि आज ना सिर्फ उनकी सोसायटी के लोग बढ़ चढ़कर अपनी साइकिलें उन बच्चों को दे रहे हैं, बल्कि दूसरी सोसायटी के लोग भी इस नेक काम को करने के लिए आगे आ रहे हैं। लेले ने काम को विस्तार देने के लिए ‘साइकिल रीसाइकिल’ नाम से इस प्रोजेक्ट की फेसबुक के जरिये शुरूआत की है, जिसके बाद अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया, दुबई और दूसरे देशों से भी लोग मदद करने के लिए आगे आ रहे हैं।

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वरिष्ठ खेल पत्रकार सुनंदन लेले एक बार महाराष्ट्र के पुणे जिले के विंझर गांव के दौरे पर थे। उन्होने देखा कि स्कूल में पढ़ने के लिए आने वाले बच्चे ना सिर्फ कई किलोमीटर दूर से पैदल आते थे, बल्कि इन बच्चों के परिवार वालों के पास इतने पैसे भी नहीं होते थे कि वो बच्चों को चप्पल खरीद कर दे सकें। ऐसे में गर्मी हो या बरसात में बच्चे पैदल ही इधर-उधर जाते थे। 

लेले जब वापस अपने शहर पुणे के कोथरूड इलाके की स्प्रिंग फील्ड सोसायटी में वापस लौटे तो उन्होने अपनी सोसायटी में रहने वाले हेमंत काय और दूसरे कुछ लोगों से बात की और उनसे कहा कि हमारे यहाँ रहने वाले बच्चों को ना सिर्फ अच्छा खाना मिलता है, बल्कि और दूसरी सुविधाएं भी मिलती हैं। इसके अलावा शहर में रहने वाले बच्चे कुछ दिन अपनी साइकिल चलाने के बाद यूँ ही छोड़ देते हैं ऐसे में अगर गांव के उन बच्चों को वो साइकिल मिल जाएगी तो उनकी जिंदगी में भी रफ्तार आ सकती है। इसके बाद हेमंत और सोसायटी में रहने वाले कुछ लोग ये जानने के लिये जुट गये कि सोसायटी में कितनी ऐसी साइकिलें हैं जिनको कोई भी इस्तेमाल नहीं करता और वो यूं ही कबाड़ बनते जा रही हैं। इसके लिये ये 200 मकान वाली स्प्रिंग फील्ड सोसायटी में रहने वाले प्रत्येक परिवार से मिले, जिसके बाद इन लोगों को पता चला की उनकी सोसायटी में ऐसी करीब 40 साइकिलें हैं, जो बेकार हैं। तब इन लोगों ने सोचा कि क्यों ना इन साइकिलों को ठीक कर गांव के उन बच्चों को दिया जाए, जिनको इनकी काफी जरूरत है। इसके बाद सोसायटी के लोगों ने देखा कि उन साइकिलों को ठीक कराने में करीब 50 हजार रुपये का खर्चा आएगा। इसके बाद अपनी इस मुहिम को नाम दिया ‘साइकिल रीसाइकिल’। हेमंत के मुताबिक जो खराब साइकिलें उनको मिली थी उनको ठीक कराने में हर साइकिल पर 300 से बारह सौ रुपये का खर्चा आया। इस तरह सबसे पहले 11 मार्च को साइकिलें ठीक करने के बाद विंझर गांव के स्कूल को साइकिल दान में दी।

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इसके बाद इन लोगों के पास दूसरी सोसायटी में रहने वाले लोगों के फोन आने लगे और वो लोग भी इस तरह की भागीदारी चाहने लगे। ताकि जरूरतमंद बच्चों तक साइकिल पहुंच सके। हेमंत काय के मुताबिक जब दूसरे लोग भी मदद के आगे आने लगे तो उनका उत्साह भी बढ़ने लगा। इसके बाद इन लोगों ने एक बार फिर अलग-अलग सोसायटी से नब्बे साइकिलें जुटाई और उनको ठीक कराकर पुणे से करीब 70 से 90 किलोमीटर दूर और गांव के बच्चों के बीच साइकिल बांटने का काम किया।

 हेमंत के मुताबिक इतनी साइकिलें बांटने के बाद भी अब भी कई ऐसे लोग हैं जो चाहते हैं कि वो अपनी खराब हुई साइकिलें दान में दें। फिलहाल इनके पास 70 साइकिलें लोगों ने दान में दी हैं, जिनको ये लोग ठीक करा रहे हैं ताकि जून के मध्य तक ये साइकिलें तैयार हो जाएँ और उन बच्चों को दी जाएं जिनको इनकी ज्यादा जरूरत है। हेमंत का कहना है कि जब हमने इस काम शुरू किया था तो ये सोच कर किया था कि अपनी सोसायटी के लोग ही मिलकर इस काम को करेंगे, लेकिन जिस तरीके से लोगों का उत्साह देखने को मिल रहा है उसके बाद लगने लगा कि इस काम को बढ़ाया जाना चाहिए। जिसके बाद इन्होने फेसबुक में एक पेज बनाया ‘साइकिल रिसाइकिल’ जिसके जरिये लोगों से अपील की कि वो अपनी बेकार पड़ी साइकिल को उनको दान करें ताकि वो उन साइकिलों को ठीक करवा कर गांव के बच्चों को दे सकें।

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अब कई स्कूल इन लोगों से साइकिल की डिमांड करने लगे हैं, ताकि वो भी अपने बच्चों को इस तरह की सुविधाएं दे सकें, जो दूर दराज के इलाकों से पढ़ने के लिए आते हैं। हेमंत के मुताबिक वो जिन स्कूलों में साइकिलें बांटने का काम करते हैं, वहां पर उनकी कोशिश होती है कि ये साइकिलें उन्ही बच्चों को मिले जो दूर दराज से पढ़ने के लिए आते हैं। इसके अलावा जो बच्चे स्कूल की पढ़ाई पूरी कर कॉलेज में चले जाते हैं, उनके लिए ये जरूरी होता है कि वो अपनी साइकिल स्कूल को वापस करें ताकि दूसरे स्कूली बच्चे उस साइकिल का फायदा उठा सकें। इसके साथ-साथ जिन बच्चों को साइकिल मिलती है, उनको लंबी छुट्टियों के दौरान अपनी साइकिल स्कूल में जमा करनी होती है, लेकिन स्कूल के दोबारा खुलते ही उनको वो साइकिल वापस मिल जाती है। 

 जिन इलाकों में साइकिल बांटने का काम किया जा रहा है, वो दूर दराज के इलाके हैं इस कारण वहां पर साइकिल मैकेनिक भी नहीं मिलते। इसी बात को ध्यान में रखते हुए इन लोगों ने स्कूल को हवा भरने के लिए पंप और कुछ साइकिल के कलपुर्जे भी दिये हैं, ताकि जरूरत पड़ने पर उन साइकिलों को वहां के बच्चे खुद ही ठीक कर सकें। अब इन लोगों की कोशिश है कि स्थानीय स्तर पर कुछ लोगों को साइकिल रिपेयरिंग की ट्रेनिंग दी जाये, ताकि बच्चों को ज्यादा परेशानी ना हो।
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अब तक वरिष्ठ पत्रकार लेले और उनके सहयोगी चार स्कूलों में साइकिल बांट चुके हैं और 15 जून के बाद उनकी कोशिश है कि करीब 150 और साइकिलें छात्रों के बीच बांटी जाये। संजय का कहना है कि “कई बार लोग साइकिल तो देना चाहते हैं लेकिन आगे बढ़कर वो सामने नहीं आते इसलिए हमें हर दरवाजे पर जाकर लोगों से साइकिल मांगनी पड़ती है, वहीं अगर लोग खुद हमें साइकिल दान करें तो हमारा काम ना सिर्फ आसान हो जाएगा बल्कि साइकिलों की संख्या भी बढ़ सकती है।”