Brands
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
Youtstory

Brands

Resources

Stories

General

In-Depth

Announcement

Reports

News

Funding

Startup Sectors

Women in tech

Sportstech

Agritech

E-Commerce

Education

Lifestyle

Entertainment

Art & Culture

Travel & Leisure

Curtain Raiser

Wine and Food

YSTV

ADVERTISEMENT
Advertise with us

वो फरिश्ता जिनकी मौत पर रोया था आसमान

रफी जब सात साल के थे, तो वे अपने बड़े भाई की दुकान से होकर गुजरने वाले एक फकीर का पीछा किया करते थे, जो उधर से गाते हुए जाया करते थे। उसकी आवाज रफी को पसन्द आई और वह उस फकीर की नकल किया करते थे। फकीर के गाने की नकल करने की वजह से उनका नाम 'फीको' रख दिया गया था।

वो फरिश्ता जिनकी मौत पर रोया था आसमान

Tuesday June 06, 2017 , 8 min Read

मोहम्मद रफी, सात सुरों के बादशाह, एक ऐसे गायक जिन्होंने अपनी रूहानी आवाज से लोगों के दिलों में सुकून भर दिया। वे जब गाते थे, तो मानो ये भागती-दौड़ती दुनिया थम सी जाती थी और एक चिर आनंद में डूब जाती थी। रफी साहब का एक नाई से हिंदुस्तानी संगीत के इतिहास में अमर गायक बनने का सफर सबसे अलहदा है। जो लोग अपनी आवाज को ऑटोट्यून कर चार गाने गाकर सुपरस्टार हो जाते हैं, उन्हें रफी साहब की ज़िंदगी को करीब से जानने की ज़रूरत है।

image


मोहम्मद रफी जैसी सरलता हर व्यक्ति को अपने जीवन में उतारनी चाहिए। एक ओर जहां लोग अपनी ज़रा-सी सफलता पर आत्म-मुग्ध हो बैठते हैं, वहीं रफी साहब बुलंदियों पर पहुंचकर भी विनम्र बने रहे।

मोहम्मद रफी जब छोटे थे, तब उनके बड़े भाई की नाई दुकान थी। रफी साहब का काफी वक्त उसी दुकान पर गुजरता था। कहा जाता है कि रफी जब सात साल के थे, तो वे अपने बड़े भाई की दुकान से होकर गुजरने वाले एक फकीर का पीछा किया करते थे, जो उधर से गाते हुए जाया करते थे। उसकी आवाज रफी को पसन्द आती और वे उस फकीर की नकल किया करते। फकीर के गाने की नकल करने की वजह से उनका नाम फीको रख दिया गया था। उनकी नकल में अव्वलता को देखकर लोगों को उनकी आवाज भी पसन्द आने लगी। लोग नाई दुकान में उनके गाने की प्रशंसा करने लगे, लेकिन इससे रफी को स्थानीय ख्याति के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिला। बड़े भाई मोहम्मद हमीद ने संगीत के प्रति इनकी रुचि को देखा और उन्हें उस्ताद अब्दुल वाहिद खान के पास भेजा।

"एक बार आकाशवाणी लाहौर में उस समय के प्रख्यात गायक-अभिनेता कुन्दन लाल सहगल अपना प्रदर्शन करने आए थे। उनको सुनने हेतु मोहम्मद रफी और उनके बड़े भाई भी गए थे। बताया जाता है, कि ठीक उसी समय स्टूडियो में बिजली गुल हो जाने के कारण सहगल साहब ने गाने से मना कर दिया। तब रफी के बड़े भाई ने आयोजकों से निवेदन किया की भीड़ को शांत करने के लिए मोहम्मद रफी को गाने का मौका दें। उनको अनुमति मिल गई और इस तरह 13 वर्ष की उम्र में मोहम्मद रफी को पहली बार गाने का मौका मिला।"

असल में रफ़ी ने स्‍वयं ना अपना विस्‍थापन चुना, न करियर, न गायन और ना ही अपना भविष्‍य। अलबत्‍ता, नियति ने स्‍वयं उन्‍हें चुना और हालातों को उनके अनुकूल मोड़ा। मानो कि उन्‍हें दुनिया के सामने लाना खुद खुदा की मर्जी रही हो। एक देहाती फीको से हिंदी सिनेमा के सर्वकालिक महान पार्श्‍वगायक बनने का सफ़र उनके लिए ज़रूर हैरत में डालने वाला था। बचपन में उनके गांव कोटला सुल्‍तानाबाद में, एक दूरदर्शी फ़कीर ने उन्‍हें देखकर बहुत बड़ा आदमी बनने का आशीर्वाद भी दिया था। एक कलाकार के तौर पर तो वे बेमिसाल थे ही, एक इंसान के तौर पर भी उनकी मिसाल खोजना मुश्किल है।

मोहम्मद रफी जैसे लोग लाखों में एक होते हैं, इसीलिए बॉलीवुड के अधिकांश लोग उनका ज़िक्र आने पर उन्‍हें फरिश्‍ते की संज्ञा देते हैं। मोहम्‍मद रफ़ी संपूर्ण पार्श्‍वगायक इसलिए भी हैं, क्‍योंकि अपनी वर्सेटाइलनेस अपनी विविधता के चलते उन्‍होंने हर रंग, हर मूड के गीत गाए। शास्‍त्रीय गायन हो या रॉक एन रोल, रोमांस हो मायूसी, फकीर का गीत हो या भजन, उन्‍हें भी कुछ भी दे दें, वे अपनी आवाज़ से उसे परफेक्‍ट बना देते थे। ऐसा लगता है कि यह आवाज़ खु़दा की नेमत है जो किसी रफ़ी नामक इंसान की झोली में आ गिरी। वो न कभी गुस्सा करते, न अपशब्द बोलते। दुनियादारी से दूर रहते। अपना काम करके अलग हट जाते। गाने के लिए ही आए थे और गाने के सिवा कुछ करके भी नहीं गए। किसी दूसरी विधा में हाथ आजमाना तो दूर, विचार तक नहीं किया।

ये भी पढ़ें,

एक हादसा जिसने किशोर को सुरीला बना दिया

"लता मंगेशकर ने जब रफी से रॉयल्‍टी की बात कही तो रफी ने उनसे किनारा कर लिया। वे अपनी आवाज को ऊपर वाले का आशीर्वाद मानते थे और इस धारणा को निभाया भी। वे अपनी आवाज़ के व्‍यवसायीकरण करने के पक्ष में नहीं थे। ऐसे कई किस्से हैं जब उन्होंने किसी संगीतकार से पैसा नहीं लिया या कई गीत नि:शुल्क गा दिए।"

एक्टर दिलीप कुमार ने भी कहा था कि 'कभी किसी ने रफ़ी साहब को किसी पर नाराज होते नहीं देखा उन्हें कोई अहंकार नहीं था हर दिल अजीज और सादा मिजाज इंसान थे। रफी साहब बहुत दरियादिल थे। वो अपने पड़ोस में रहने वाली एक विधवा औरत को कई सालों तक हर महीने मनी आर्डर भेजते थे। जब इस विधवा औरत के पास मनीआर्डर आना बंद हो गया तो वह पोस्ट ऑफिस गई और तब जाकर उसे पता चला यह मनीआर्डर उन्हें रफी साहब भेजते थे जो अब इस दुनिया में नहीं रहे।' रफी साहब ने अपने पूरे कैरियर के दौरान 517 अलग-अलग मूड और मौकों को दर्शाने वाले करीबन 26000 गाने गाये और उन्होंने तकरीबन हर प्रांतीय भाषा में गाने गाये। रफी साहब ने हरेंद्र नाथ चट्टोपाध्याय से अंग्रेजी सीखी और अंग्रेजी में 2 गाने भी गाये। मन्ना डे कहते थे कि 'मैं, किशोर दा और अन्य सिंगर हमेशा नंबर दो की कुर्सी के लिए लड़ते थे क्योंकि नंबर एक की कुर्सी पर तो हमेशा से ही मोहम्मद रफी विराजमान थे।' बकौल आर डी बर्मन, 'जब मेरे गीत की रिकॉर्डिंग होती थी तो रफी साहब भिंडी बाजार से हलवा लाते और हम सब एक साथ बैठकर उसे खाते थे। 1975 में रफी साहब काबुल गए और वहां पर उन्होंने कुछ फ़ारसी सोलो और अफगान महिला सिंगर जिला के साथ कुछ डुएट सॉन्ग भी गाये।'

अमिताभ बच्‍चन एक साक्षात्‍कार में उनके साथ जुड़ा एक वाकया याद करते हैं कि 'एक बार किसी टूर पर लौटते समय मुश्किल खड़ी हो गई थी, जब तयशुदा गायक कलाकार गैर मौजूद था और आयोजकों समेत सभी कलाकारों की प्रतिष्‍ठा का सवाल था। ऐसे में अमिताभ ने रफ़ी साहब से, जो कि ऑलरेडी वापसी के लिए विमान में बैठ चुके थे, इल्तिज़ा की, कि वे कार्यक्रम में एक दिन और रुक जाएं और कुछ गीत गा दें।' बकौल अमिताभ, स्‍वयं उन्‍हें विश्‍वास नहीं हुआ कि रफ़ी साहब तत्‍काल राजी हो गए और प्‍लेन से झट उतर गए। रफी साहब जैसा सहज, अहंकारहीन कलाकार आज तक नहीं देखा क्‍योंकि कलाकारों का अहंकारी और तुनकमिजाज होना आम बात है। इसके विपरीत रफ़ी इकदम अलग थे। किसी भी प्रकार के सेलिब्रिटी टेंट्रम या नाज-नखरों से उनका कभी संबंध नहीं बन पाया।'

ये भी पढ़ें,

एक थप्पड़ ने बना दिया राज कपूर को सुपरस्टार

रफी साहब के अंदर एक कलाकारोचित भावुकता थी। 'बाबुल की दुआएं लेती जा' गीत को गाते वक्‍त रफी कई बार रोए। इसके पीछे वजह थी, कि इस गाने की रिकॉर्डिंग से एक दिन पहले उनकी बेटी की सगाई हुई थी। जिसके चलते रफी साहब काफी भावुक थे। इतनी भावुकता में गाए गए इस गीत के लिए उन्‍हें 'नेशनल अवॉर्ड' मिला। रफी साहब को 6 फिल्मफेयर और 1 नेशनल अवार्ड मिला। भारत सरकार ने उन्‍हें 'पद्म श्री' सम्मान से सम्मानित किया था। रफी ने कई भारतीय भाषाओं में गीत गाए, जैसे- कोंकणी , असामी, पंजाबी, मराठी, उड़िया, बंगाली और भोजपुरी। इसके अलावा रफी साहब ने पारसी, डच, स्पेनिश और इंग्लिश में भी गीत गाए।

रफी साब ने तमाम ऐसे भजन गाए जो कई दशकों से मंदिरों में बजते रहे हैं। मन तड़पत हरिदर्शन को आज, ओ दुनिया के रखवाले, मधुबन में राधिका नाची रे, मन रे तू काहे न धीर धरे, मेरे मन में हैं राम मेरे तन में हैं राम, सूना सूना लागे बृज का धाम, अंखियां हरि दर्शन की प्यासी, उठ जाग मुसाफिर भोर भई, जय रघुनंदन जय सियाराम, सुख के सब साथी दुख में न कोई, ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, ओ शेरोंवाली, तूने मुझे बुलाया शेरा वालिये, गंगा तेरा पानी निर्मल, राम जी की निकली सवारी, बड़ी देर भई नंदलाला आदि भजनों को उन्होंने अपने खूबसूरत सुरों में पिरोया। प्लेबैक सिंगिंग में रफी साहब के कद का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि तमाम गायकों ने उनकी नकल करके गाया और गायक के रूप में अपनी पहचान बना ली। शब्बीर कुमार, मोहम्मद अजीज, अनवर और सोनू निगम इसके उदाहरण हैं।

रफी साहब ने 31 जुलाई 1980 को अपने एक गाने की रिकॉर्डिंग पूरी करने के बाद संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल से कहा कि 'ओके नाऊ आई विल लीव।' रफी साहब के ये कहे वाक्य उनके जीवन के आखिरी वाक्य थे। उस दिन शाम 7 बजकर 30 मिनट पर मोहम्मद रफी को दिल का दौरा पड़ा और वे अपने करोड़ों प्रशंसकों को छोड़कर इस दुनिया से हमेशा-हमेशा के लिए चले गए।

रफी साहब की अंतिम यात्रा को याद करते हुए संगीतकार नौशाद ने कहा था,'रमजान में मोहम्माद रफी का इंतेकाल हुआ था और रमजान में भी अलविदा के दिन। बांद्रा की बड़ी मस्जिद में उनकी नमाजे जनाजा हुई थी। पूरा ट्रैफिक जाम था। क्‍या हिंदू, क्या सिख, क्या ईसाई, हर कौम सड़कों पर आ गई थी। नमाज के पीछे जो लोग नमाज में शरीक थे उनमें राज कपूर, राजेन्द्र कुमार, सुनील दत्त के अलावा इंडस्ट्री के तमाम लोग मौजूद थे। हर मजहब के लोगों ने उनको कंधा दिया।'

अंतिम यात्रा के दिन लोगों का हुजूम उमड़ा वो मोहम्मद रफी के लिए ही था। जमीन को छोड़िये रफी साहब के इंतकाल पर आसमान भी रो पड़ा था। उनकी अंतिम यात्रा के दौरान लगातार बारिश होती रही। शायद ऊपर वाला भी अपने महान गायक को अलविदा कह रहा था। मगर रफी की रूह हर दिल को कह रही थी- तुम मुझे यूं भुला ना पाओगे...

-प्रज्ञा श्रीवास्तव

ये भी पढ़ें,

आज की सेल्फ ऑबसेस्ड युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा है लता मंगेश्कर की विनम्रता