कविताओं पर जमा-जुबानी तालियां, मुट्ठी-मुट्ठी रेत
आशीष मिश्रा ने लिखा कि मैंने केशवदास और निराला का उदाहरण देते हुए 'विषतन्तु' लिखा है। मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि 'विषतन्तु' को जगह-जगह 'विसतंतु' क्यों लिखा है।
एक बड़ा कवि कविता में कोई चिन्ह तक गैर ज़रूरी नहीं लगाता। तो मैं सिर्फ यह समझना चाह रहा था कि नागार्जुन किस अनिवार्यता के चलते इस शब्द को चुन रहे हैं?
अब कोई कहे कि वहाँ शैवाल कहाँ से आ गया, तो मेरे ख़याल से इस तरह का छिद्रान्वेषण अतार्किक और बेमानी है। मेरे कहने का आशय यह है कि नागार्जुन-मुक्तिबोध जैसे हमारे बड़े कवियों पर जल्दबाजी में सरकस टाइप ओछे आरोप नहीं लगा देने चाहिए।
आभासी दुनिया में भी अथाह कविता-संसार चौबीसो घंटे हिलकोरे लेते रहता है। अनायास तीर-तुणीर भी तन जाते हैं, आड़-ओट लेकर तड़ित कंपन के साथ दोनो ओर से शब्दों के बड़े-बड़े ओले बरसने लगते हैं। कई तो बीच में ही मैदान छोड़ भाग खड़े होते हैं, कुछ आखिर तक डटे रह जाते हैं। किसी का गला मुट्ठियों में, कोई तालियां बजाते हुए जमा-जुबानी मैदान मार ले जाता है। पिछले दिनो दो ऐसी शब्दवेधी भिड़ंतें दो कविताओं के बहाने हुईं। उनमें एक बाबा नागार्जुन की कविता- 'बादल को घिरते देखा है' निशाने पर रही; और दूसरी, युवा कवि घनश्याम कुमार देवांश के, भारतीय ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार से सम्मानित संग्रह 'आकाश में देह' में संकलित कविता। संयोग ही रहा होगा कि दोनो कविताएं युवा आलोचक आशीष मिश्र के मार्फत तीखी बहस के केंद्र में आ गईं। आइए, पहले नागार्जुन की वे पंक्तियां पढ़ते हैं, जो उलाहने में रहीं -
अमल धवल गिरि के शिखरों पर बादल को घिरते देखा है,
छोटे-छोटे मोती जैसे उसके शीतल तुहिन कणों को, मानसरोवर के उन स्वर्णिम कमलों पर गिरते देखा है।
तुंग हिमालय के कंधों पर छोटी बड़ी कई झीलें हैं, उनके श्यामल नील सलिल में समतल देशों से आ-आकर
पावस की उमस से आकुल तिक्त-मधुर विषतंतु खोजते, हंसों को तिरते देखा है, बादल को घिरते देखा है।
आशीष मिश्रा ने लिखा कि मैंने केशवदास और निराला का उदाहरण देते हुए 'विषतन्तु' लिखा है। मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि 'विषतन्तु' को जगह-जगह 'विसतंतु' क्यों लिखा है। सही शब्द 'विषतन्तु' ही है। और यह शब्द नागार्जुन का बनाया हुआ है। आप्टे ने 'विषम्' का अर्थ ही कमलडंडी का रेशा लिखा है। कहने का अर्थ यह है कि इसकी विषाद या विष्कंभक शब्द से तुलना उतनी ठीक नहीं है। विषाद शब्द बहुत लोकप्रिय है। विषाद और विषतन्तु शब्द की व्युत्पत्ति बहुत अलग है। विष्कंभक शब्द किसी साहित्य-शास्त्र वाले व्यक्ति को हम नहीं समझा पाएँगे।
एक सामान्य कविता में इस तरह के शब्द लाने से कौन सी विशिष्ट व्यंजना पैदा हो रही है? जिस पद का हिन्दी कविता में इससे पूर्व कहीं प्रयोग ही नहीं किया गया, उसके प्रयोग से नागार्जुन कौन सी अभूतपूर्व व्यंजना पैदा कर रहे हैं? एक बड़ा कवि कविता में कोई चिन्ह तक गैर ज़रूरी नहीं लगाता। तो मैं सिर्फ यह समझना चाह रहा था कि नागार्जुन किस अनिवार्यता के चलते इस शब्द को चुन रहे हैं? मैंने बहुत हलके ढंग से, निराला के प्रयोग का हवाला देकर समझाने की कोशिश भी की है। वहाँ मुझे यह प्रयोग अनिवार्य लगा, लेकिन केशवदास और बाबा के यहाँ मैं इस अनिवार्यता को समझ नहीं पाया। मेरी अपनी सीमा हो ही सकती है, इसलिए वाक़ई समझना चाहता हूँ।
आशीष के कथन के प्रतिवाद में शामिल होते हुए सुशील सुमन ने लिखा कि मुझे इस शब्द का प्रयोग अस्वाभाविक नहीं लगा, बल्कि आशीष मिश्र की टिप्पणी ही सर्कसनुमा लगी, यदि साहित्य में कुछ सर्कसनुमा होता हो तो! आशीष मिश्रा ने अपने एक मित्र के हवाले से कहा कि इस 'बिसतंतु' (कमलनाल) को कोई सर्प/ज़हर समझ ले सकता है। अब इसके लिए क्या कहा जाय! कोई भावक शब्द-ज्ञान के अभाव में विषाद का अर्थ उदासी न लेकर ज़हरीला ही ले ले, विष्कम्भक का अर्थ सहायता प्रदान करने वाला न लेकर, ज़हर बोने वाला ले ले, तो इसमें कवि या किसी भी प्रयोक्ता का क्या दोष!
तो यह सर्कस कवि का नहीं, वरन भावक का है। यह तो हुई उनके मित्र की बात। अब उनकी बात कि वहाँ यानी उतने ठंडे और कीचड़ विहीन जल में कमल कहाँ से आ गया। तो पहली बात तो यह कि मानसरोवर में कमल नहीं ही होगा, यह बग़ैर ठीक से जाने हम शर्तिया कैसे कह सकते हैं! और यदि कमल की उपस्थिति वहाँ नहीं भी रही होगी तो मानसरोवर से जुड़ी बात को हमें एक काव्य-रूढ़ि के रूप में ग्रहण करना चाहिए।
अब कोई कहे कि वहाँ शैवाल कहाँ से आ गया, तो मेरे ख़याल से इस तरह का छिद्रान्वेषण अतार्किक और बेमानी है। मेरे कहने का आशय यह है कि नागार्जुन-मुक्तिबोध जैसे हमारे बड़े कवियों पर जल्दबाजी में सरकस टाइप ओछे आरोप नहीं लगा देने चाहिए। बहुत सारे शब्दों के प्रयोग हमें अनुपयुक्त लग सकते हैं- कभी अज्ञानतावश तो कभी व्यक्तिगत आग्रह के कारण। कभी हमारा प्रश्नांकित करना सही भी हो सकता है। हम कालिदास से लेकर केदार जी तक किसी पर भी प्रश्न उठायें, लेकिन थोड़ा ठहरकर और किंचित भाषा का ख़याल रखते हुए। मैं इस पक्ष में नहीं हूँ कि लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए हम कुछ चौंकाऊँ स्टंट करने को मजबूर हों। पढ़ने वाला पढ़ेगा, जिसे न पढ़ना हो, नहीं पढ़ेगा।
इस बीच बहस में कूद पड़े साहित्यकार श्रीराम त्रिपाठी। वह बताते हैं कि हिन्दी के हर शब्द के दो विरोधी अर्थ होते हैं। जीवनधर्मी और मरणधर्मी जैसे दो छोर। बिसतंतु यहाँ ज़हर नहीं, खाद्य पदार्थ है। वह मौत के लिए ज़हर है। विष से ही विषय और विषयी बना है। जीवन से बड़ा विष और विषय क्या होगा। हर जीव किसी के लिए ज़हर (विष) है, तो किसी के लिए खाद्य (विख)। विशेष प्रकार का ज़हर और विशेष प्रकार का खाद्य। यहाँ बिसतंतु हंस का विशेष प्रकार का खाद्य है। बिसतंतु की प्राप्ति से विशेष रूप से शयन भी होगा और शयना भी। कवि ने हिमालय के मानसरोवर को देखने की बजाय अपने मानसरोवर को देखा है, जिसे हिमालय के मानसरोवर के रूप में दिखाया है।
पावस की ऊमस से व्याकुल मानस का 'बादल का घिरना' देख उसके आह्लाद का चित्रण है यह। एक बात और, शीर्षक कविता का शीर्ष (सिर) होता है। इसलिए उसे कविता से अलग नहीं समझना चाहिए। 'बादल को घिरते देखा है', जब मन आह्लादित हो जाता है। ये बादल सावन के नहीं, असाढ़ के हैं। 'पावस की ऊमस' से व्याकुल समय के। 'उमस' नहीं, 'ऊमस'। सामान्य तौर पर कह देंगे कि लय मिलाने के लिए ह्रस्व को दीर्घ कर दिया गया, जबकि ह्रस्व उमस की दीर्घता कारण है, 'ऊमस' का। वरिष्ठ पत्रकार अजित वाडनेकर का कहना था कि शिला सरोरुह भी होते हैं। बर्फ की परतों या शिलावों पर उगे कमल। मैंने देखा नहीं है लेकिन ऐसा मुझे एक विद्वान ने बताया। उन्ही के बताने पर मैंने देखा कि हां अशोक का एक पेड़ इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के बरगद वाले लॉन में है। उसके फूल भी देखा-सूंघा। हजारी प्रसाद द्विवेदी वाला अशोक का फूल। बिसतन्तु तो ठीक है, अगर कवि बितन्तु भी लिखे, तब हमारा प्रयत्न उसे बिसतंतु समझने का होना चाहिए।
फेसबुकिया बहस के केंद्र में रही दूसरी कविता घनश्याम कुमार देवांश की, जिसका शीर्षक है - विगत प्रेम के नाम पर देह-स्मृति का कामुक-ईर्ष्यालु मर्दवाद और कविता का नव-रीतिवाद पूर्व प्रेमिकाएं। उस पर कविता कृष्णपल्लवी बरस पड़ीं। देवांश की कविता की पहेली सुलझाने के लिए तो मैं सिर ही पटकती रह गई कि इसका पता चलने पर चाँद क्यों सुलगता रहा होगा और अपने ही अथाह जल में डूबकर समुद्र ने आत्महत्या की कोशिश भला क्यों और कैसे की होगी ! अंतिम पंक्तियाँ तो मात्र अबूझ-अमूर्त शब्द-क्रीडा हैं, निखालिस तराशा हुआ रूपवाद -- केदार नाथ सिंह मार्का चमकते बिंबों वाला।
कविता का पुरुष अपनी पूर्व-प्रेमिकाओं को बस देह के रूप में, कामोत्तेजक देह के रूप में ही याद कर पा रहा है, उनके व्यक्तित्व का कोई भी अन्य आत्मिक-सौंदर्यात्मक पहलू, प्रेमसिक्त सानिध्य का कोई पल ... और कुछ भी उसे याद नहीं। और उसकी केंद्रीय टीस या ईर्ष्या का सबब यह है कि उसकी पूर्व-प्रेमिकाओं के वैसे ही प्रेम के क्षण अब किसी और के साथ बीत रहे होंगे, हालाँकि कविता में सुलगने का काम वह अपने बजाय चाँद को दे देता है और समुद्र से तो आत्महत्या ही करवा देता है। हिन्दी के प्रगतिशील कवियों की नब्बे प्रतिशत स्त्री और प्रेम विषयक कविताओं में स्त्रियाँ प्रगतिशील मर्दों की दया-करुणा-कृपा-सहायता की पात्र बनकर आती हैं, या फिर उनके प्रेम-प्राकट्य-अनुष्ठान का निमित्त, साधन या 'पैस्सिव रिसीवर' बनकर आती हैं।
प्रेमिका बनकर आती हैं तो दिग-दिगंत में देह ही देह, मांस ही मांस भर जाता है, और माँ बनकर आती हैं तो आसमान में वात्सल्य का आँचल परचम की तरह लहराने लगता है और छलकता हुआ दूध धरती पर गिरकर बहने लगता है। मैं "सात्विक-शाकाहारी" प्रेम-कविता की वकालत नहीं कर रही हूँ। वाम कविता जीवन के स्वस्थ-स्वाभाविक यथार्थ को प्रस्तुत करती है और उसमें ऐंद्रिकता (सेन्सुअसनेस) होनी ही चाहिए।
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