सबसे बड़ा सवाल: वे कन्याओं को मारते रहेंगे, क्या कर लेगा कानून?
हैरत की बात तो ये है कि पिछले दो दशकों में एक करोड़ कन्या भ्रूण हत्याएं की जा चुकी हैं लेकिन अभी तक 'द प्री-कन्सेप्शन एंड पी-नेटल डायग्नोस्टिक टेक्निक्स (प्रोहिबिशन ऑफ सेक्स सेलेक्शन) एक्ट-1994' के तहत एक भी व्यक्ति को सजा नहीं मिली है। इससे हमारी संघीय कानून व्यवस्था के पूरी तरह निष्प्रभावी होने का बोध होता है! साफ है कि चौबीस साल पहले कानून भी बन चुका है और अल्ट्रासोनोग्राफी तकनीक से एक करोड़ कन्या भ्रूण हत्याओं के षड्यंत्रकारी भी बेखौफ हैं। कई राज्यों में तो ऐसी भी सरकारी नीति घोषित है कि तीसरी संतान के रूप में भले कन्या भ्रूण कोख में पल रहा हो, उसको जन्म न देना नौकरी पेशा मां की मजबूरी बना दी गई है।
हैरत की बात तो ये है कि पिछले दो दशकों में एक करोड़ कन्या भ्रूण हत्याएं की जा चुकी हैं लेकिन अभी तक 'द प्री-कन्सेप्शन एंड पी-नेटल डायग्नोस्टिक टेक्निक्स (प्रोहिबिशन ऑफ सेक्स सेलेक्शन) एक्ट-1994' के तहत एक भी व्यक्ति को सजा नहीं मिली है।
एक तरफ जनसंख्या विस्फोट, दूसरी तरफ कानून से बेखौफ अल्ट्रासोनोग्राफी का इस्तेमाल करते हुए लाखों कन्या भ्रूण हत्याएं। भ्रूण हत्या यानी जन्म लेने से पहले ही अल्ट्रासोनोग्राफी के माध्यम से उसका लिंग जान लेने के बाद कोख में ही मार डालना। जनसंख्या विस्फोट इसलिए सताता है कि भविष्य का आकलन आज की तकनीक और जीवनशैली के आधार पर किया जाता है। तब यह भुला दिया जाता है कि अब से पचास साल बाद जरूरत के हिसाब से तकनीक में भी विकास आ जाएगा। तकनीक का विकास विरोधाभासी है।
'लांसेट' में प्रकाशित एक शोध के मुताबिक तकनीक के कारण ही पिछले दो दशक में अकेले भारत में ही एक करोड़ कन्या भ्रूण कोख में ही मार दिए गए। भारत में कन्या भ्रूण हत्या और गिरते लिंगानुपात को रोकने के लिए 'द प्री-कन्सेप्शन एंड पी-नेटल डायग्नोस्टिक टेक्निक्स (प्रोहिबिशन ऑफ सेक्स सेलेक्शन) एक्ट-1994' संसद से पारित एक संघीय कानून है। इस अधिनियम से प्रसव पूर्व लिंग निर्धारण पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। 'प्री-नेटल डायग्नोस्टिक टेक्निक (पीसीपीएनडीटी) एक्ट-1996' के तहत जन्म से पूर्व शिशु के लिंग की जांच पर पाबंदी है।
ऐसे में अल्ट्रासाउंड या अल्ट्रासोनोग्राफी कराने वाले जोड़े या करने वाले डॉक्टर, लैब कर्मी को तीन से पांच साल तक की सजा और 10 हजार से एक लाख रुपए तक का जुर्माना हो सकता है। इस कानून में प्रावधान किया गया है कि गर्भ में पल रहे बच्चे के लिंग की जांच करना या करवाना, शब्दों या इशारों में इस संबंध में कुछ बताना या जानकारी करना, इसकी जांच का विज्ञापन देना, गर्भवती महिला को इसके बारे में जानने के लिए उकसाना, इसके लिए अल्ट्रसाउंड इत्यादि मशीनों का इस्तेमाल करना जुर्म है। जांच केंद्र के मुख्य स्थान पर यह लिखवाना अनिवार्य है कि यहां पर भ्रूण के लिंग की जांच नहीं की जाती है। कोई भी व्यक्ति अपने घऱ पर भ्रूण के लिंग की जांच के लिए किसी भी तकनीक का प्रयोग नहीं कर सकता है।
पहली बार कानून का उल्लंघन करने पर तीन साल की कैद और 50 हजार रुपए तक जुर्माना, दूसरी बार पकड़े जाने पर पांच साल की कैद और एक लाख रुपए तक जुर्माना हो सकता है। लिंग की जांच करने का दोषी पाए जाने पर क्लीनिक का रजिस्ट्रेशन रद्द हो सकता है। इसके साथ ही 'गर्भ चिकित्सीय समापन अधिनियम-1971' की धारा 313 के अनुसार स्त्री की सहमति के बिना गर्भपात कराने वाले को आजीवन कारावास और जुर्माने की सजा हो सकती है। धारा 314 के अनुसार गर्भपात के दौरान स्त्री की मौत हो जाने पर 10 साल का कारावास या जुर्माना या दोनों सजा हो सकती है। धारा 315 के अनुसार नवजात को जीवित पैदा होने से रोकने या जन्म के बाद उसको मारने की कोशिश करने का अपराध करने पर 10 साल की सजा या जुर्माना, दोनों की सजा हो सकती है।
हैरत की बात तो ये है कि पिछले दो दशकों में एक करोड़ कन्या भ्रूण हत्याएं की जा चुकी हैं लेकिन अभी तक 'द प्री-कन्सेप्शन एंड पी-नेटल डायग्नोस्टिक टेक्निक्स (प्रोहिबिशन ऑफ सेक्स सेलेक्शन) एक्ट-1994' के तहत एक भी व्यक्ति को सजा नहीं मिली है। इससे हमारी संघीय कानून व्यवस्था के पूरी तरह निष्प्रभावी होने का बोध होता है! साफ है कि चौबीस साल पहले कानून भी बन चुका है और अल्ट्रासोनोग्राफी तकनीक से एक करोड़ कन्या भ्रूण हत्याओं के षड्यंत्रकारी भी बेखौफ हैं। कानून से बेखौफ होकर कन्याओं को या तो कोख में मार दिया जा रहा है अथवा कुछ वर्षों के भीतर मौत के मुँह में धकेल दिया जा रहा है। राष्ट्रीय जनसंख्या स्थिरता कोष की पूर्व कार्यकारी निदेशक शैलजा चंद्रा के मुताबिक इस कानून को लागू करना बेहद मुश्किल है।
कानून को लागू करने वाले ज़िला स्वास्थ्य अधिकारी के लिए लिंग जांच करने वाले डॉक्टर पर नकेल कसना कत्तई मुश्किल है। डॉक्टरों के पास नवीनतम तकनीकें उपलब्ध हैं। राज्य स्तर पर मुख्यमंत्रियों को इस दिशा में कठोर कदम उठाने होंगे। तभी अधिकारियों और डॉक्टरों को कन्या भ्रूण हत्याएं रोकने और कानून के कठोरता से पालन के लिए विवश किया जा सकता है। भारत के जनसंख्या आयुक्त और महापंजीयक जेके भाठिया के मुताबिक वर्ष 1981 में लड़कियों की संख्या एक हजार लड़कों के मुकाबले 960 थी, जिसमें बड़ा मामूली सा परिवर्तन आया है। इसमें सबसे ज्यादा पंजाब के हाथ खून से रंगे हैं। दिल्ली के अपोलो अस्पताल के डॉक्टर पुनीत बेदी के मुताबिक भारत में लगभग 30,000 डॉक्टर दौलत के लालच में तकनीक का दुरूपयोग कर रहे हैं।
बेटे की ख़्वाहिश तो हमेशा से रही है लेकिन ये डॉक्टर महिलाओं से कहते हैं कि जब भी आपको लड़की नहीं चाहिए, हमारे पास आ जाओ। हम भ्रूण को मार देंगे। कुछ डॉक्टर तो ऐसे विज्ञापनों का भी सहारा लेते रहे हैं कि 'आज 500 रूपये ख़र्च कीजिए, कल दहेज के 5 लाख रूपये बचाइए।' आज तक क़ानून पर अमल शून्य है। केंद्र सरकार के एक संयुक्त सचिव का कहना है कि 'देश में 22,000 ऐसे क्लीनिक हैं, जहाँ इस प्रकार के परीक्षण कराए जा सकते हैं। हमारे पास इतने साधन नहीं कि हम इनपर निगरानी रख सकें।' दूसरी तरफ ग़ैरसरकारी संगठन, महिला उत्थान अध्ययन केंद्र, सेंटर फॉर एडवोकेसी एंड रिसर्च की ऐसी चेतावनियां सामने आ चुकी हैं कि यदि महिलाओं की संख्या इसी तरह घटती रही तो 'महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसात्मक घटनाएं और बढ़ जाएंगी, विवाह के लिए लड़कियों के अपहरण होने लगेंगे। उनकी इज़्ज़त पर हमले होंगे, उन्हें ज़बरदस्ती एक से अधिक पुरुषों की पत्नी बनने पर मजबूर किया जाएगा।'
हैरानी इस बात पर भी होती है कि भारत में कन्या भ्रूण हत्याएं उन क्षेत्रों में हो रही हैं, जहाँ शिक्षित महिलाओं की आनुपातिक दर सबसे ज्यादा है। एक तो स्त्री-शिक्षा दर में वृद्धि के लिए महिला आंदोलन होते रहते हैं, दूसरी तरफ आनुपातिक तौर पर अधिकाधिक शिक्षित महिलाओं वाले क्षेत्र में ही कन्या भ्रूण हत्याएं ज्यादा हो रही हैं। इससे साफ है कि सिर्फ शिक्षा दर बढ़ाने से काम चलने वाला नहीं, बल्कि उसका स्तर विशेष महत्व रखता है। ऐसे में एक और अभिमत सामने आता है। कहा जा रहा है कि महिलाओं का आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होना ज़रूरी है। एक वरिष्ठतम अधिकारी के मुताबिक जहाँ-जहाँ महिलाओं की श्रम में भागीदारी अधिक है, कन्या भ्रूण हत्या की दर कम पाई गई है।
इसके साथ ही बिगड़ती कानून व्यवस्था का प्रश्न भी जुड़ा हुआ है। यह भी गौरतलब है कि भारत सरकार का जनसंख्या नियंत्रण का तरीका भी तमाम तरह की खामियों से भरा हुआ है। मसलन, कई राज्यों में तीन बच्चों की माँ को सरकारी नौकरी नहीं मिल सकती है। इस तरह माता-पिता को मजबूर किया जाता है कि वे किसी भी तरीक़े से तीसरा बच्चा पैदा न करें, भले कोख में कन्या भ्रूण पल रहा हो। सेंटर फॉर ग्लोबल हेल्थ रिसर्च एवं नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के आंकड़ों के मुताबिक पाया गया है कि जिन परिवारों में पहली सन्तान लड़की होती है, उनमें से ज़्यादातर परिवार पैदा होने से पहले दूसरे बच्चे की लिंग जांच करवा लेते हैं और लड़की होने पर उसे मरवा देते हैं।
अगर पहली सन्तान बेटा है तो दूसरी सन्तान के लिंग अनुपात में गिरावट नहीं देखी गई है। पहली संतान बेटी होने पर दूसरे बच्चे की लिंग जांच करवाकर परिवार ये सुनिश्चित करना चाहते हैं कि उनका एक बेटा तो ज़रूर हो। ज्यादातर शिक्षित और समृद्ध परिवारों में ऐसा हो रहा है। कुछ विद्वानों का ऐसा भी मानना है कि शिक्षा की दर, संपत्ति, जाति अथवा समुदाय किसी एक पैमाने पर नहीं, बल्कि सभी तरह के परिवारों में कोख में ही लिंग का चुनाव कर लेना अब आम बात हो चुकी है। अनब्याही मांओं की बदनामी का मसला भी इससे जुड़ा है। कुल मिलाकर लिंगभेदी मानसिकता और जागरूकता के अभाव से भी हमारे देश में बेखौफ कन्या भ्रूण हत्याएं हो रही हैं।
पुलिस कन्याओं के भ्रूण बरामद करने के बावजूद कानून को निष्प्रभावी रहने देती है। हां, पकड़े जाने पर ले-देकर जरूर मामला रफा-दफा कर लिया जाता है। इस तरह यह डॉक्टरों के साथ ही पुलिस के लिए भी कमाई का एक और जरिया हो गया है। पिछले साल ही सांगली (महाराष्ट्र) के गांव महसाल में एक नाले से 19 कन्या भ्रूण बरामद हुए थे, क्या हुआ, कुछ नहीं। अल्ट्रासाउंड मशीनों की पहुंच छोटे शहरों, कस्बों तक हो गई है। देश के लगभग हर शहर-कस्बे में कन्याओं को कोख में मारने का कत्लेआम चल रहा है। फिर भी कानून इतना लाचार क्यों है? सरकारी आकड़ों की बेशर्मी के बारे में तो कुछ न ही कहा जाए। बीते वर्षों में तो लड़कियों से अधिक लड़कों की भ्रूण हत्या के मामले दर्ज हुए हैं।
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