संविधान दिवस पर विशेष: संविधान के सम्मान में, वे उतरे मैदान में
26 नवंबर, आज संविधान दिवस है और दस साल पहले आज ही के दिन मुंबई की सड़कों पर आतंकवाद ने खूनी तांडव किया था। उधर 'हम उतरे मैदान में, संविधान के सम्मान में' नारे के साथ यूनाइटेड यूथ फ्रंट कल मुंबई में 'संविधान बचाओ' रैली निकाल चुका है।
देश आजाद होने के बाद से आतंकवाद, सुरक्षा और संवैधानिक अधिकारों से जुड़े प्रश्नों का सिलसिला आज तक थमा नहीं है। आतंकवाद आज हमारे देश ही नहीं, पूरी दुनिया की संवैधानिक व्यवस्थाओं के लिए चुनौती बना हुआ है।
आज का दिन दो बातों के लिए विशेष उल्लेखनीय है। पहला, देश में हर साल 26 नवंबर को 'संविधान दिवस' मनाया जाता है। दूसरा, 26 नवंबर 2008 को मुंबई पर आतंकी हमले में 166 से ज्यादा लोग मारे गए थे। पहली बात मुल्क की सलामती, हिफाजत और हर ख़ासोआम के कानूनी अधिकारों की वकालत करती है लेकिन दूसरी ठीक इसके उलट, कानून व्यवस्था तहस-नहस करने की एक नापाक मिसाल के तौर पर। संविधान दिवस मनाने के बहाने आज के दिन डॉ. भीमराव अंबेडकर को याद किया जाता है। मुंबई में 'हम उतरे मैदान में, संविधान के सम्मान में' नारे के साथ यूनाइटेड यूथ फ्रंट ने दादर स्थित बाबासाहेब आंबेडकर के निवास स्थान रहे राजगृह से चैत्यभूमि तक कल 'संविधान बचाओ' रैली निकाली।
ऐसी रैलियां देश भर में हो रही हैं। शुरुआत मुंबई से हुई है, क्योंकि मुंबई बाबासाहेब की कर्म भूमि रही है। ये रैलियां करने वाले कह रहे हैं - बाबा साहेब द्वारा रचे गए संविधान को तोड़ा जा रहा है। किसान सूखे से, कर्ज से परेशान होकर आत्महत्याएं कर रहे हैं। देश में कोई भी धर्म खतरे में न होने के बावजूद भारत का संविधान खतरे में डाला जा रहा है। सीबीआई, सुप्रीम कोर्ट, रिजर्व बैंक जैसी संवैधानिक संस्थाएं खतरे में हैं। धर्म की राजनीति एक संविधान विरोधी पहल है। संविधान दिवस के बहाने हम आज ये नहीं भूल पा रहे हैं कि जम्मू-कश्मीर का गंभीर मसला आज भारतीय संविधान के लिए चुनौती बन गया है।
गौरतलब है कि जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय खास परिस्थितियों में हुआ था। 1947 में जब ब्रिटेन की हुकूमत खत्म हुई, तो दो देश बने, भारत और पाकिस्तान। उस समय भारत में 562 देसी रियासतें थीं। समझौते के मुताबिक, इनमें से जो पाकिस्तान के साथ जाना चाहे, वो पाकिस्तान के साथ और जो भारत के साथ रहना चाहे, वो भारत के साथ रह सकती था। जो इन दोनों के अलावा खुद को आजाद रखना चाहता था, वह ऐसा कर सकते था। उसी समझौते के तहत जम्मू-कश्मीर के राजा हरि सिंह ने दोनों में से किसी के साथ भी नहीं जाने का फैसला किया। आज कश्मीर जहां खड़ा है, जैसे हालात से दो-चार हो रहा है, वह सच अब किसी से छिपा नहीं रह गया है। सन् 1950 में जब संविधान लागू हुआ, बहुत कम लोगों पता है कि उसको कैसे अपनाया, उसे लेकर ख़ुद के अधिकारों को कैसे समझा और स्टेट को कैसे समझाया गया कि हमारी हदें क्या हैं। आतंकवाद ही नहीं, लोगों के लिए संविधान की वे हदें आज और भी कई तरह-तरह से तोड़ी जा रही हैं।
देश आजाद होने के बाद से आतंकवाद, सुरक्षा और संवैधानिक अधिकारों से जुड़े प्रश्नों का सिलसिला आज तक थमा नहीं है। आतंकवाद आज हमारे देश ही नहीं, पूरी दुनिया की संवैधानिक व्यवस्थाओं के लिए चुनौती बना हुआ है। ऐसे में संविधान दिवस की महत्ता स्वतः उल्लेखनीय हो जाती है। एक वक्त था, जब आतंकवाद निरोधक क़ानून यानी पोटा, टाडा क़ानून की जगह पर लाना पड़ा। उसके बाद 'आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट' को लेकर गंभीर बहस छिड़ी। 'मेंटेनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट' के नाम से इस विवादित कानून को 1971 में इंदिरा गांधी सरकार ने पास करवाया था।
आपातकाल के दौरान इसके गलत इस्तेमाल के साथ ही इसमें कई बदलाव हुए। 1977 में जनता पार्टी के सत्ता में आते ही इस कानून को रद्द कर दिया गया। बाद में पंजाब में बढ़ते आतंकवाद के चलते सुरक्षाबलों को विशेषाधिकार देने के लिए 'टेररिस्ट एंड डिसरप्टिव एक्टिविटीज' कानून लाया गया। वर्ष 2002 में संसद पर हमले के बाद 'प्रिवेंशन ऑफ टेरेरिज्म एक्ट' कानून पास किया गया। टाडा की तरह यह भी एक आतंकवाद निरोधी कानून था। दो साल बाद इस कानून को रद्द कर दिया गया। देश विरोधी, समाज विरोधी चुनौतियों से न आज निजात मिली है, न ये सिलसिला थमना है लेकिन कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए ऐसी विरोधी ताकतों, चुनौतियों से निबटते रहने की कोशिशें भी साथ-साथ जारी रहनी है। इसलिए हमे संविधान दिवस को कभी नहीं भूलना चाहिए, न ही कभी यह भूलना है कि दस साल पहले आज ही के दिन आतंकवाद का खूंख्वार चेहरा मुंबई की सड़कों पर खूनी नंग नाच कर चुका है।
संवैधानिक स्थितियों की सलामती के लिए सबसे टेढ़ा जम्मू-कश्मीर का राजनीतिक मसला ऐसी स्थितियों में राज्यपाल शासन के अधीन और भी उलझता जा रहा है, जबकि अगले साल 2019 में लोकसभा चुनाव के साथ यहां के विधानसभा चुनाव की भी बातें होने लगी हैं। स्पष्ट है कि वहां का चुनाव देश के बाकी हिस्सों जैसा नहीं होना है। पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्थाओं के बावजूद वहां की राजनीति भी एक सहभागी चुनौती बनी हुई है। संविधानिक स्थितियों की बात करते हुए हम यह कैसे भूल सकते हैं कि खास कर, दक्षिण कश्मीर में चुनाव कराना सबसे बड़ी चुनौती रहती है।
यह इलाका आतंकी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन का मजबूत किला रहा है और सबसे अधिक स्थानीय आतंकी इसी क्षेत्र में हैं। चुनाव बहिष्कार अलगाववादियों का पुराना एजेंडा रहा है, यद्यपि उनकी अपीलें कई बार फेल हो चुकी हैं। इस बार हालात अलग हैं। पीडीपी का ओढ़ा हुआ नरम अलगाववाद, इसमें जमात-ए इस्लामी का साथ चुनावी जनाधार में सेंध लगा रहा है। अनंतनाग, कुलगाम, पुलवामा और शोपियां में खासकर भाजपा कार्यकर्ता हिजबुल मुजाहिदीन के निशाने पर रहते हैं।
यह भी पढ़ें: पुराने कपड़ों को रीसाइकिल कर पर्यावरण बचाने वाली दो डिजाइनरों की दास्तान