Brands
YSTV
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
Yourstory

Brands

Resources

Stories

General

In-Depth

Announcement

Reports

News

Funding

Startup Sectors

Women in tech

Sportstech

Agritech

E-Commerce

Education

Lifestyle

Entertainment

Art & Culture

Travel & Leisure

Curtain Raiser

Wine and Food

Videos

रामवृक्ष बेनीपुरी: जिनके शब्द-शब्द से फूटीं स्वातंत्र्य युद्ध की चिंगारियां

'शुक्लोत्तर युग' के ख्यात साहित्यकार, क्रांतिकारी विचारक, कथाकार, पत्रकार रामवृक्ष बेनीपुरी के जन्मदिन पर विशेष...

रामवृक्ष बेनीपुरी: जिनके शब्द-शब्द से फूटीं स्वातंत्र्य युद्ध की चिंगारियां

Saturday December 23, 2017 , 7 min Read

 वह अपने माता-पिता की इकलौती संतान थे। शुरुआत में वह रामवृक्ष शर्मा के ही नाम से रचनाएं करते थे। बाद में आचार्य रामलोचन शरण के कहने पर वह रामवृक्ष नाम से लिखने लगे।

रामवृक्ष बेनीपुरी

रामवृक्ष बेनीपुरी


'वह उस आग के भी धनी थे, जो राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों को जन्म देती है, जो परंपराओं को तोड़ती है और मूल्यों पर प्रहार करती है। जो चिंतन को निर्भीक एवं कर्म को तेज बनाती है।'

उन्होंने 1921 में उन्होंने मौलवी सबी साहब के कहने पर पढ़ाई-लिखाई छोड़ दी और आजादी के आंदोलन में कूद पड़े। फिर तो अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों और देशभक्तिपूर्ण रचनाओं के कारण उन्हें लंबा वक्त जेलों में ही बिताना पड़ा।

हिन्दी साहित्य के 'शुक्लोत्तर युग' के ख्यात साहित्यकार, क्रांतिकारी विचारक, कथाकार, पत्रकार रामवृक्ष बेनीपुरी की आज (23 दिसंबर) जयंती है। मुज़फ़्फ़रपुर (बिहार) के एक छोटे से गांव बेनीपुर में एक गरीब किसान के घर 23 दिसम्बर 1899 को जन्मे इस महान लेखक का मूल नाम रामवृक्ष शर्मा था। कालांतर में वही बेनीपुर देश के रचनाधर्मियों का साहित्यिक तीर्थ बन गया। वह अपने माता-पिता की इकलौती संतान थे। शुरुआत में वह रामवृक्ष शर्मा के ही नाम से रचनाएं करते थे। बाद में आचार्य रामलोचन शरण के कहने पर वह रामवृक्ष नाम से लिखने लगे।

बचपन में घर वाले उन्हें बबुआ कहते थे। उनके जीवनीकार बताते हैं कि घर वालों के प्यार-दुलार ने उन्हें बालपन में ही जिद्दी बना दिया था। उनके लड़कपन से घर वाले परेशान रहते थे। खिलौने तोड़फोड़ कर फेक देना, तन के कपड़े फाड़कर नंगे बदन गांव भर में घूमना उनकी आदत में शुमार था। जो मां उनकी आदतों से आजिज आकर रोने-धोने लगती थीं, उनके बारे में उन्होंने बाद में लिखा कि वह जो कुछ हुए, उनकी ही करुणा के प्रभाव से। उनके पिता ने दूसरी शादी रचा ली थी। बचपन में ही उनके मां-बाप चल बसे तो वह अपने ननिहाल बंशीपचड़ा चले गए और वही उम्र के पंद्रह साल गुजार दिए। वह प्रगतिशील विचारों के धनी थे। शादी के बाद उन्होंने अपनी पढ़ाई तो जारी रखी ही, अपनी अनपढ़ धर्मपत्नी को भी पढ़ाने की बहुत कोशिश की लेकिन उसमें सफल नहीं हो सके। बाद में तो वह हिंदुस्तान की आजादी के ऐसे दीवाने हुए कि उनके शब्द-शब्द से स्वातंत्र्य युद्ध की चिंगारियां फूटने लगीं।

ननिहाल में ही रामचरित मानस को पढ़ते-सुनते हुए उनके मानस पटल पर साहित्य के बीज अंकुरित हुई। उनके संपूर्ण व्यक्तित्व को शब्द देते हुए राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर कहते हैं- 'रामवृक्ष बेनीपुरी केवल साहित्यकार नहीं, उनके भीतर केवल वही आग नहीं थी, जो कलम से निकल कर साहित्य बन जाती है। वह उस आग के भी धनी थे, जो राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों को जन्म देती है, जो परंपराओं को तोड़ती है और मूल्यों पर प्रहार करती है। जो चिंतन को निर्भीक एवं कर्म को तेज बनाती है।

बेनीपुरी के भीतर बेचैन कवि, बेचैन चिंतक, बेचैन क्रान्तिकारी और निर्भीक योद्धा, सभी एक साथ निवास करते थे।' रामवृक्ष बेनीपुरी की आत्मा में राष्ट्रभक्ति कूट-कूट कर भरी थी। आजादी के आंदोलन के दौरान उन्होंने ज्यादातार जेल की सजाएं काटते हुए लिखा। उनकी प्रमुख कृतियों में पतितों के देश में, आम्रपाली (उपन्यास), माटी की मूरतें (कहानी संग्रह), चिता के फूल, लाल तारा, कैदी की पत्नी, गेहूँ और गुलाब, जंजीरें और दीवारें (निबंध), सीता का मन, संघमित्रा, अमर ज्योति, तथागत, शकुंतला, रामराज्य, नेत्रदान, गाँवों के देवता, नया समाज, विजेता, बैजू मामा (नाटक) आदि उल्लेखनीय हैं। ‘चिता के फूल’ नाम से उनका एक ही कहानी संग्रह उपलब्ध है, जिसमें उनकी कुल सात कहानियां हैं।

इनमें स्वतंत्रता पूर्व का देश, उसकी त्रासदियों, अंदरूनी हालात, कशमकश और द्वेष, सब आकार लेते मिल जाते हैं। ये कहानियां वर्गीय खाइयों और उससे उपजी विषमताओं को खूब गहरे से दिखाती हैं। ‘चिता के फूल’ और ‘उस दिन झोपड़ी रोई’ इसी श्रृंखला की कहानियां हैं, जिसमें वर्ग विशेष के लिए स्वतंत्रता के मायने, उसकी परिणति और लड़ाइयां, सबके अर्थ बिलकुल अलग जान पड़ते हैं। इन दोनों कहानियों में उन्होंने 1930 और 1940 के दशक के दौरान कांग्रेस और अमीरों और गरीबों के बीच की उस गहरी फांक को कहीं गहरे धंसकर रेखांकित किया है।'

उन्होंने 1921 में उन्होंने मौलवी सबी साहब के कहने पर पढ़ाई-लिखाई छोड़ दी और आजादी के आंदोलन में कूद पड़े। फिर तो अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों और देशभक्तिपूर्ण रचनाओं के कारण उन्हें लंबा वक्त जेलों में ही बिताना पड़ा।

वह लिखते हैं- 'देशभक्ति हृदय में अंकुर ले चुकी थी। देश सेवा की प्रेरणा भी मस्तिष्क में स्थान बना चुकी थी किंतु देश भक्ति का एक रूप यही होगा कि पढ़ना-लिखना छोड़कर घर-द्वार की चिंता भूलकर फकीरी का बाना लेकर इस गांव से उस गांव, उस गांव से इस गांव, देश माता की मुक्ति का अलख जगाना होगा, यह तो कभी सोचा ही नहीं होगा।' लगभग ढाई दशकों तक बार-बार जेल जाने से उनकी घर-गृहस्थी तबाह हो गई। वह कारावास के दिनो में भी अपने ओजस्वी शब्दों से देश को जगाते-ललकारते रहे। सन 1942 की 'अगस्त क्रांति' के दौरान वह हज़ारीबाग़ जेल में रहे। वह जब भी जेल से बाहर आते, अपनी नई कृतियों की पांडुलिपियों के साथ।

अपने अथवा बड़े साहित्यकारों के शब्दों से ही वह आह्लादित नहीं होते थे, बल्कि उनसे जुड़ी यादगार व्यवस्थाएं भी उन्हें आकंठ प्रसन्नचित्त कर देती थीं। इंग्लैण्ड में शेक्सपियर के गांव ने उन्हें अभिभूत कर दिया था। जब गांधी जी ने 'यंग इंडिया' पत्रिका निकाली तो गुरु मथुरा प्रसाद दीक्षित के साथ वह सहयोगी संपादक बन गए। बाद में वह 'तरुण भारत', गुजराती के 'नवजीवन' से भी जुड़े रहे। सन् 1942 में वह 'किसान मित्र' साप्ताहिक के सहसंपादक बने। जेल के दिनो में वह कैद के दौरान वह हस्तलिखित कैदी पत्रिका निकालते रहे। उसके प्रथमांक में राजेंद्र बाबू ने भी एक लेख लिखा- 'प्रजा का धन'।

बेनीपुरी जी की रचनाएं ऐसी नहीं होती थीं कि जो चाहा, लिख मारा। वह अपने शब्दों से पूरे समाज को गहरा संदेश देते थे। जैसे उनके एक लेख की बानगी- 'गेहूँ हम खाते हैं, गुलाब सूँघते हैं। एक से शरीर की पुष्टि होती है, दूसरे से मानस तृप्‍त होता है। गेहूँ बड़ा या गुलाब? हम क्‍या चाहते हैं - पुष्‍ट शरीर या तृप्‍त मानस? या पुष्‍ट शरीर पर तृप्‍त मानस? जब मानव पृथ्‍वी पर आया, भूख लेकर। क्षुधा, क्षुधा, पिपासा, पिपासा। क्‍या खाए, क्‍या पिए? माँ के स्‍तनों को निचोड़ा, वृक्षों को झकझोरा, कीट-पतंग, पशु-पक्षी - कुछ न छुट पाए उससे! गेहूँ - उसकी भूख का काफला आज गेहूँ पर टूट पड़ा है? गेहूँ उपजाओ, गेहूँ उपजाओ, गेहूँ उपजाओ ! मैदान जोते जा रहे हैं, बाग उजाड़े जा रहे हैं - गेहूँ के लिए। बेचारा गुलाब - भरी जवानी में सि‍सकियाँ ले रहा है। शरीर की आवश्‍यकता ने मानसिक वृत्तियों को कहीं कोने में डाल रक्‍खा है, दबा रक्‍खा है।'

उन्होंने आगे लिखा, 'किंतु, चाहे कच्‍चा चरे या पकाकर खाए - गेहूँ तक पशु और मानव में क्‍या अंतर? मानव को मानव बनाया गुलाब ने! मानव मानव तब बना जब उसने शरीर की आवश्‍यकताओं पर मानसिक वृत्तियों को तरजीह दी। यही नहीं, जब उसकी भूख खाँव-खाँव कर रही थी तब भी उसकी आँखें गुलाब पर टँगी थीं। उसका प्रथम संगीत निकला, जब उसकी कामिनियाँ गेहूँ को ऊखल और चक्‍की में पीस-कूट रही थीं। पशुओं को मारकर, खाकर ही वह तृप्‍त नहीं हुआ, उनकी खाल का बनाया ढोल और उनकी सींग की बनाई तुरही। मछली मारने के लिए जब वह अपनी नाव में पतवार का पंख लगाकर जल पर उड़ा जा रहा था, तब उसके छप-छप में उसने ताल पाया, तराने छोड़े ! बाँस से उसने लाठी ही नहीं बनाई, वंशी भी बनाई।'

7 सितम्बर, 1968 को मुज़फ़्फ़रपुर में ही उनका निधन हो गया। अर्धशती वर्ष 1999 में 'भारतीय डाक सेवा' ने उनकी यादों को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए डाक-टिकटों का एक संग्रह जारी किया। बिहार सरकार उनके सम्मान में हर वर्ष 'रामवृक्ष बेनीपुरी पुरस्कार' देती है। वह 1957 में बिहार विधान सभा के सदस्य भी चुने गए।

यह भी पढ़ें: 'यायावर' रमेश कुंतल मेघ को हिंदी का साहित्य अकादमी सम्मान