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गौरी लंकेश की कतार में हैं और भी रक्तरंजित नाम

 क्यों इतने खतरनाक क्यों हो गए हैं लोकतांत्रिक देश में पत्रकारों के लिए हालात?

गौरी लंकेश की कतार में हैं और भी रक्तरंजित नाम

Wednesday September 06, 2017 , 5 min Read

 2014 में आंध्र प्रदेश में पत्रकार एमवीएन शंकर, उत्तर प्रदेश में जगेंद्र सिंह, वर्ष 2015 में मध्यप्रदेश में संदीप कोठारी और अक्षय सिंह, वर्ष 2016 में पत्रकार राजदेव रंजन को मार डाला गया।

गौरी लंकेश (फाइल फोटो)

गौरी लंकेश (फाइल फोटो)


पत्रकारों की सुरक्षा पर निगरानी रखने वाली प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय संस्था कमिटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स (सीपीजे) ने आगाह किया था कि भारत में खासतौर से भ्रष्टाचार के मामलों की कवरेज करने वाले पत्रकारों की जान को खतरा रहता है।

प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया की एक स्टडी में कहा गया कि पत्रकारों की हत्याओं के पीछे उन लोगों का हाथ पाया गया है, जो बिना सज़ा के बच निकलते रहे हैं।

निर्भीक महिला पत्रकार एवं राइट विंग विचारों की धुर मुखालफत करने वाली गौरी लंकेश को बेंगलुरु स्थित उनके घर में घुसकर गोली से उड़ा दिया गया। मौजूदा दशक में देश में एक दर्जन से अधिक पत्रकारों की जघन्य हत्याएं हो चुकी हैं। गुरमीत राम रहीम के खिलाफ सबसे पहले आवाज उठाने वाले हरियाणा के पत्रकार रामचंद्र छत्रपति की उनके ऑफिस में घुसकर हत्या की गई थी। इसी तरह वर्ष 2011 में मुंबई में वरिष्ठ पत्रकार ज्योतिर्मय डे को मारा गया। वर्ष 2012 में मध्यप्रदेश में पत्रकार राजेश मिश्रा की गोली मारकर हत्या की गई। उसी साल महाराष्ट्र में पत्रकार नरेंद्र दाभोलकर, छत्तीसगढ़ में बी साईं रेड्डी, उत्तर प्रदेश में पत्रकार राजेश वर्मा की जान ली गई। वर्ष 2014 में आंध्र प्रदेश में पत्रकार एमवीएन शंकर, उत्तर प्रदेश में जगेंद्र सिंह, वर्ष 2015 में मध्यप्रदेश में संदीप कोठारी और अक्षय सिंह, वर्ष 2016 में पत्रकार राजदेव रंजन को मार डाला गया।

किसी सूचना या विचार को बोलकर, लिखकर या किसी अन्य रूप में बिना किसी रोकटोक के अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहलाती है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की भी सीमा होती है। भारत के संविधान में अनुच्छेद 19 (1) के तहत सभी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी गयी है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अपने भावों और विचारों को व्यक्त करने का एक राजनीतिक अधिकार है। इसके तहत कोई भी व्याक्ति न सिर्फ विचारों का प्रचार-प्रसार कर सकता है, बल्कि किसी भी तरह की सूचना का आदान-प्रदान करने का अधिकार रखता है। हालांकि, यह अधिकार सार्वभौमिक नहीं है और इस पर समय-समय पर युक्तिवयुक्तक निर्बंधन लगाए जा सकते हैं। राष्ट्र-राज्य के पास यह अधिकार सुरक्षित होता है कि वह संविधान और कानूनों के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को किस हद तक जाकर बाधित करने का अधिकार रखता है। कुछ विशेष परिस्थितियों में, जैसे- वाह्य या आंतरिक आपातकाल या राष्ट्री य सुरक्षा के मुद्दों पर अभिव्यशक्तिर की स्वंजतत्रता सीमित हो जाती है।

पिछले साल पत्रकारों की सुरक्षा पर निगरानी रखने वाली प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय संस्था कमिटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स (सीपीजे) ने आगाह किया था कि भारत में खासतौर से भ्रष्टाचार के मामलों की कवरेज करने वाले पत्रकारों की जान को खतरा रहता है। सीपीजे की उस 42 पृष्ठीय रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत में रिपोर्टरों को काम के दौरान पूरी सुरक्षा अभी भी नहीं मिल पाती है। वर्ष 1992 के बाद से तो देश में 27 दर्ज मामलों में से तो किसी एक में भी आरोपियों को सजा नहीं मिली। इसी तरह एक अन्य संगठन 'प्रेस फ्रीडम' ने वर्ष 2011 से 2015 के बीच तीन पत्रकारों की मौतों का हवाला दिया।

प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया की एक स्टडी में कहा गया कि पत्रकारों की हत्याओं के पीछे उन लोगों का हाथ पाया गया है, जो बिना सज़ा के बच निकलते रहे हैं। साल 1990 से अब तक देश में 80 पत्रकार हत्याकांडों में से सिर्फ एक मामला ही अदालती कार्रवाई के स्तर तक पहुंच सका। काउंसिल ने इस दिशा में पहलकदमी करते हुए भारतीय संसद से पत्रकारों की सुरक्षा व्यवस्था के लिए क़ानून बनाने की भी मांग उठाई। देश का पूर्वोत्तर क्षेत्र भी पत्रकारों के लिए कुछ कम असुरक्षित नहीं। भारतीय प्रेस परिषद के एक सदस्य के अनुसार पिछले 12 वर्षो में अकेले इसी क्षेत्र में 26 पत्रकारों की जान चली गई। वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स ने तो पिछले साल दावा किया था कि देश में हर महीने कम से कम एक पत्रकार पर हमला हो जाता है।

पत्रकारों की हत्याओं के बाद ये सवाल उठने लगे हैं कि लोकतांत्रिक देश में पत्रकारों के लिए हालात इतने खतरनाक क्यों हो गए हैं? युद्धग्रस्त इराक और सीरिया के बाद दुनिया भर में भारत ही ऐसा देश है जहां पत्रकारों को सबसे अधिक खतरा है। वर्ष 1992 से 2017 तक देश के विभिन्न भागों में लगभग छह दर्जन पत्रकारों को काम के दौरान अपनी जान गंवानी पड़ी है। इनमें से ज्यादातर पत्रकार उन छोटे कस्बों में मारे गए, जहां भ्रष्टाचार की तूती बोलती है। वहां भ्रष्टाचारों का भेद खोलने का मतलब होता है, माफिया, गुंडों, बदमाशों से शत्रुता मोल लेना। पत्रकार जागेन्द्र सिंह को तो उत्तर प्रदेश में जिंदा जलाकर मार दिया गया। प्रेस क्लब ऑफ इंडिया और मुंबई प्रेस क्लब का कहना है कि देश में अभिव्यक्ति की आजादी पर लगातार खतरा बढ़ता जा रहा है। जब पत्रकार दबाव के आगे झुकने से इनकार कर देते हैं तो उनकी हत्या कर दी जाती है। यह केंद्र और राज्य सरकारों का संवैधानिक दायित्व है, वे यह सुनिश्चित करें कि पत्रकार बेखौफ अपना काम कर सकें।

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