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देश के जागरूक छात्रों और युवाओं में लोकप्रिय जनकवि गोरख पांडेय

हमें नहीं चाहिए गुलाम औरत: गोरख पांडेय 

देश के जागरूक छात्रों और युवाओं में लोकप्रिय जनकवि गोरख पांडेय

Monday January 29, 2018 , 9 min Read

'चैन की बाँसुरी बजाइये आप, शहर जलता है और गाइये आप, हैं तटस्थ या कि आप नीरो हैं, असली सूरत ज़रा दिखाइये आप', ये शब्द हैं, जनकवि गोरख पांडेय के, उनकी आज (29 जनवरी) पुण्यतिथि है। गोरख पांडेय लिखते हैं - हमें गुलाम औरत नहीं चाहिए। वह देखने में व्यक्ति होनी चाहिए, स्टाइल नहीं। वह दृढ़ होनी चाहिए। चतुर और कुशाग्र होना जरूरी है। वह सहयोगिनी हो हर काम में। देखने लायक भी होनी चाहिए। ऐसी औरत इस व्यवस्था में बनी बनायी नहीं मिलेगी। उसे विकसित करना होगा।

गोरख पांडेय (एडिटेड बाय योरस्टोरी)

गोरख पांडेय (एडिटेड बाय योरस्टोरी)


गोरख के कविता संग्रहों का कोई सफ़ा पलटिए, आपको मेहनतकश जनता की आवाज सुनाई देगी। गोरख के काव्य की एक खास विशेषता ये है कि उसमें औरतें अलग-अलग रूपों में घूम घूमकर आयी हैं। 

देश के जागरूक छात्रों और युवाओं में सबसे अधिक लोकप्रिय रहे जनकवि गोरख पांडेय हिंदी काव्य-साहित्य में अपने क्रांतिधर्मी सृजन के लिए ख्यात रहे हैं। उनके समकालीन हिंदी साहित्य के शायद ही किसी कवि को उतनी लोकप्रियता मिल पाई हो। गोरख पांडेय को जानने से पहले, आइए फिशर की पुस्तक 'कला की जरूरत' का यह अंश पढ़ते हैं- 'मनुष्य स्वयं से बढ़कर कुछ होना चाहता है। वह सम्पूर्ण मनुष्य बनना चाहता है। वह अलग-अलग व्यक्ति होकर संतुष्ट नहीं रहता, अपने व्यक्तिगत जीवन की आंशिकता से निकलकर वह उस परिपूर्णता की ओर बढ़ने की कोशिश करता है, जिसे वह महसूस करना चाहता है।

वह जीवन की ऐसी परिपूर्णता की ओर बढ़ना चाहता है, जिससे वैयक्तिकता अपनी तमाम सीमाओं के कारण उसे वंचित कर देती है। वह एक ऐसी दुनिया की ओर बढ़ना चाहता है जो अधिक बोधगम्य हो, जो अधिक न्यायसंगत दुनिया हो।' गोरख पांडेय लिखते हैं - कला कला के लिए हो/ जीवन को खूबसूरत बनाने के लिए/ न हो/ रोटी रोटी के लिए हो/ खाने के लिए न हो। वरिष्ठ लेखक विष्णु प्रभाकर के शब्दों में, हिन्दी समीक्षा जगत की समस्या ये है कि गोरख पाण्डेय का जितना मूल्यांकन होना चाहिए था, उतना नहीं हुआ। इलाहाबाद और दिल्ली में आये दिन साहित्यिक सेमिनार और गोष्ठियां होती रहती हैं, लेकिन मुझे याद नहीं कि आखिरी बार गोरख पर केन्द्रित सेमिनार कब और कहाँ हुआ था।

गोरख के कविता संग्रहों का कोई सफ़ा पलटिए, आपको मेहनतकश जनता की आवाज सुनाई देगी। गोरख के काव्य की एक खास विशेषता ये है कि उसमें औरतें अलग-अलग रूपों में घूम घूमकर आयी हैं। 'कैथर कला की औरतें' कविता को ले लीजिए इस कविता में लड़ती विद्रोही औरतें दिखेंगी। इन औरतों को ही गोरख पाण्डेय ने अपनी कविता का मौजूं बनाया। कैथर कला की घटना कोई समान्य घटना नहीं थी। गोरख की दृष्टि उस बड़ी परिघटना तक पहुँची है जिसे कवियों ने एक समान्य घटना मानकर छोड़ दिया या यूँ कहें उनकी दृष्टि वहाँ तक नहीं पहुंच पायी।

'बंद खिड़कियों से टकरा कर' कविता में गोरख ने पूरी संवेदना के साथ औरत की ऐतिहासिक पीड़ा को जिस प्रकार से चित्रित किया वैसा चित्रण हिन्दी कविता में बहुत कम है। इस कविता में गोरख औरत की पीड़ा का चित्रण तो किया ही है साथ ही साथ पूरे पुरूष समाज को कटघरे में खड़ा कर देते हैं, दण्डित करते हैं – 'गिरती है आधी दुनिया/ सारी मनुष्यता गिरती है/ हम जो जिंदा हैं/ हम दण्डित हैं।' एक दिन एक रिक्शा चालक पर उन्होंने ये पंक्तियां लिखीं -

उसने जीने के लिये खाना खाया

उसने खाने के लिये पैसा कमाया

उसने पैसे के लिये रिक्शा चलाया

उसने चलाने के लिये ताकत जुटायी

उसने ताकत के लिये फिर रोटी खाई

उसने खाने के लिये पैसा कमाया

उसने पैसे के लिये रिक्शा चलाया

उसने रोज रोज नियम से चक्कर लगाया

अन्त में मरा तो उसे जीना याद आया

गोरख पांडेय का जन्म देवरिया (उ.प्र.) के पंडित के मुड़ेरवा गांव में 1945 में हुआ था। उन्होंने 1969 में हिन्दी कविता की अराजक धारा से स्वयं को अलग किया और जनसंघर्षों को प्रेरित करने वाली रचनाएं लिखने लगे। उनका किसान आन्दोलनों से सक्रिय जुड़ाव रहा। उनकी कविताएं हर तरह के शोषण से मुक्त दुनिया की आवाज बनती रही हैं। दिमागी बीमारी सिजोफ्रेनिया से परेशान होकर 29 जनवरी 1989 को जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में गोरख पांडेय ने आत्महत्या कर ली थी।

उस समय वह विश्वविद्यालय में रिसर्च एसोसिएट थे। उनकी मृत्यु के बाद उनके तीन संग्रह प्रकाशित हुए हैं - स्वर्ग से विदाई (1989), लोहा गरम हो गया है (1990) और समय का पहिया (2004)। गोरख पांडेय के बहुत सारे स्फुट शब्द उनकी डायरियों में बिखरे पड़े रहे हैं। उन दिनो वह बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी में थे। एक दिन 18 मार्च 1976 को उन्होंने अपनी डायरी में लिखा - 'मैं बनारस तत्काल छोड़ देना चाहता हूं। तत्काल! मैं यहां से बुरी तरह ऊब गया हूं। विभाग, लंका, छात्रावास लड़कियों पर बेहूदा बातें, राजनीतिक मसखरी, हमारा हाल बिगड़े छोकरों सा हो गया है लेकिन क्या फिर हमें ख़ासकर मुझे जीवन के प्रति पूरी लगन से सक्रिय नहीं होना चाहिए? ज़रूर कभी भी शुरू किया जा सकता है।

दिल्ली में अगर मित्रों ने सहारा दिया तो हमें चल देना चाहिए। मैं यहां से हटना चाहता हूं। बनारस से कहीं और भाग जाना चाहता हूं।' संभवतः उन्हीं मनःस्थितियों पर पार पाते हुए वह एक दिन बनारस से देश की राजधानी दिल्ली पहुंच गए और आत्महंता जीवन के आखिरी दिनो तक उन्होंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का परिसर नहीं, बल्कि वही अपने प्राण त्याग दिए। गोरख पांडेय ने एक दिन अपनी डायरी में लिखा - 'कविता और प्रेम – दो ऐसी चीजें हैं, जहाँ मनुष्य होने का मुझे बोध होता है। 'प्रेम' मुझे समाज से मिलता है और समाज को कविता देता हूँ। क्योंकि मेरे जीने की पहली शर्त भोजन, कपड़ा और मकान मजदूर वर्ग पूरा करता है और क्योंकि इसी तथ्य को झुठलाने के लिये तमाम बुर्जुआ लेखन चल रहा है, क्योंकि मजदूर वर्ग अपने हितों के लिये जगह जगह संघर्ष में उतर रहा है, क्योंकि मैं उस संघर्ष में योगदान देकर ही अपने जीने का औचित्य साबित कर सकता हूँ।

इसलिये कविता मजदूर वर्ग और उसके मित्र वर्गों के लिये ही लिखता हूँ। कविता लिखना कोई बड़ा काम नहीं मगर बटन लगाना भी बड़ा काम नहीं। हाँ, उसके बिना पैंट कमीज बेकार होते हैं।' गोरख पांडेय ने छंदोबद्ध खड़ी बोली के साथ लोकांचल की भोजपुरी कविताएं भी खूब लिखीं, साथ ही छंदमुक्त रचनाएं भी, लेकिन उनको शब्दों की भाषा और लय पाठ में छांदस रचनाओं जैसा ही सुख और सहजता मिलती है -

हज़ार साल पुराना है उनका गुस्सा

हज़ार साल पुरानी है उनकी नफरत

मैं तो सिर्फ

उनके बिखरे हुए शब्दों को

लय और तुक के साथ

लौटा रहा हूँ

मगर तुम्हें डर है कि

आग भड़का रहा हूँ।

गोरख पांडेय ने कभी उदासी-मायूसी के गीत नहीं गाए, न जिंदगी बदतर होने का रोना रोया। उनके शब्द किसी बिलखते, बिसूरते व्यक्ति को भी स्वाभिमान और आंतरिक शौर्य से झकझोर कर जगा देते हैं, इसी दुनिया के भीतर की उम्मीदों से उसके मन-प्राण भर देते हैं -

आएंगे, अच्छे दिन आएंगे

गर्दिश के दिन ये कट जाएंगे

सूरज झोपड़ियों में चमकेगा

बच्चे सब दूध में नहाएंगे।

जालिम के पुर्जे उड़ जाएंगे

मिल-जुल के प्यार सभी गाएंगे

मेहनत के फूल उगाने वाले

दुनिया के मालिक बन जाएंगे।

दुख की रेखाएं मिट जाएंगी

खुशियों के होंठ मुस्कुराएंगे

सपनों की सतरंगी डोरी पर

मुक्ति के फरहरे लहराएंगे।

गोरख पांडेय ने उन दिनो अपनी डायरी में बहुत कुछ पठनीय-संग्रहणीय लिखा, जब इंदिरा गांधी की सरकार ने देश में इमर्जेंसी लगा दी थी। एक दिन एक चित्रकला प्रदर्शनी से लौटने के बाद 13 मार्च 1976 को उन्होंने अपनी डायरी में ये शब्द दर्ज किए - 'क्या हमें हक है कि चित्र में व्यक्त कलाकार की भावना को जानें? या वह मनमानी ढंग से कुछ भी सोचने के लिये छोड़ देता है? क्या चित्रकार हमें अनिश्चित भावनाओं का शिकार बनाना चाहता है? क्या वह अपना चित्र हमारे हाथ में देकर हमसे पूरी तरह दूर और न समझ में आने योग्य रह जाना चाहता है? क्या उसे हमारी भावनाओं के बारे में कुछ पता है? अन्ततः क्या कलाकार, उसकी कृति और दर्शक में कोई संबंध है? या तीनों एकदम स्वतंत्र एक दूसरे से पूर्णरूपेण अलग इकाइयां हैं?एक तरफ़ कलाकार आपातस्थिति की दुर्गा का गौरव चित्रित कर रहा है, दूसरी तरफ़ कलाकार आपातस्थिति को चित्र में लाना अकलात्मक समझकर खारिज कर देता है। ये दोनों एक ही स्थिति के मुखर और मौन पहलू नहीं हैं?' -

आशा करना मजाक है

फिर भी मैं आशा करता हूँ

इस तरह जीना शर्मनाक है

फिर भी मैं जीवित रहता हूँ

मित्रों से कहता हूँ -

भविष्य जरूर अच्छा होगा

एक एक दिन वर्तमान को टालता हूँ

क्या काम करना है ?

इसे मुझे तय नहीं करना है

लेकिन मुझे तय करना है

मैं मित्रों को बुलाउँगा -

कहूँगा -

हमें (हम सबको) तय करना है

बिना तय किए

इस रास्ते से नहीं गुजरना है .

मुझे किसी को उदास करने का हक नहीं

हालांकि ऐसे हालात में

खुश रहना बेईमानी है।

जीवन के सौंदर्यशास्त्र पर गोरख पांडेय का अपना अलग नजरिया होता था। वह अपनी डायरी में लिखते हैं - 'सवाल यह नहीं कि सुन्दर कौन है। सवाल यह है कि हम सुन्दर किसे मानते हैं। यहाँ मेरे सब्जेक्टिव होने का खतरा है लेकिन सच यह है कि सौन्दर्य के बारे में हमारी धारणा बहुत हद तक काम करती है। हम पढ़े-लिखे युवक फ़िल्म की उन अभिनेत्रियों को कहीं न कहीं सौन्दर्य का प्रतीक मान बैठे हैं, जो हमारे जीवन के बाहर हैं। नतीजतन, बालों की एक खास शैली, ब्लाउज, स्कर्ट, साड़ी, बाटम की एक खस इमेज हमारे दिमाग में है। हम एक खास कृत्रिम स्टाइल को सौन्दर्य मानने लगे हैं। शहर की आम लड़कियाँ उसकी नकल करती हैं, जो उस स्टाइल के जितना निकट है हमें सुन्दर लगती है।

फिर भी हम स्टाइल को पसन्द करते हैं, ऐसा मानने में संकोच करते हैं। फ़िल्में, पत्रिकाएँ लगातार औरत की एक कामुक परी टाइप तस्वीर हमारे दिमागों में भरती हैं, लड़कियों को हम उसी से टेस्ट करते हैं। हम विचारों के स्तर पर जिससे घृणा करते हैं, भावनाओं के स्तर पर उसी से प्यार करते हैं। भावनाएँ अस्तित्व की निकटतम अभिव्यक्ति हैं। यह हुआ विचार और अस्तित्व में सौन्दर्यमूलक भेद। यह भेद हमारे अंदर चौतरफ़ा वर्तमान है। हमें कैसी औरत चाहिए? निश्चय ही उसे मित्र होना चाहिए। हमें गुलाम औरत नहीं चाहिए। वह देखने में व्यक्ति होनी चाहिए, स्टाइल नहीं। वह दृढ़ होनी चाहिए। चतुर और कुशाग्र होना जरूरी है। वह सहयोगिनी हो हर काम में। देखने लायक भी होनी चाहिए। ऐसी औरत इस व्यवस्था में बनी बनायी नहीं मिलेगी। उसे विकसित करना होगा।' -

खेत में काम करते वक्त जूता बदला,

बदला शहर कि साथ में जूता भी बदल गया,

बदले थे ब्रेख्त ने वतन जूतों से जियादह,

लीडर ने भी देखा न था कब जूता चल गया,

मिलते हैं अब गवाह सबूतों से जियादह।

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