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बेहाल पर्यावरण, बदहाल जीवन

आखिर कैसे बचा जा सकता है बढ़ते प्रदूषण से, जबकि हमारी भारतीय संस्कृति में प्रकृति के साथ मानव के सहचर्य के हजारों सन्दर्भ हैं।

बेहाल पर्यावरण, बदहाल जीवन

Saturday September 09, 2017 , 14 min Read

धरती की कोख का बेलिहाज खनन कर उसकी ताकत को कम करने की कोशिश दशकों से चल रही हैं। नदियों के प्राकृतिक बहाव को रोक कर अपने मुनाफे और सहूलियत के लिए उनकी दिशाओं को मोडऩे का गुनाह करने से भी बाज नहीं आ रहे हैं हम। दुस्साहस देखिये कि धरती का दामन छोटा होता महसूस हुआ तो इन्सानी अंहकार ने आसमानों में बस्तियां बनाने की योजनायें शुरू कर दीं।

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मेरे जेहन में आज तक उस मन्जर की याद ताजा है जब शहरे लखनऊ की हर शक्ल खौफजदा नजर आ रही थी। अजीब वक्त था वह भी। एकाएक सड़क पत्तों की तरह हिलने लगती है और इंसानी गरूर का सिंहनाद करती बहुमंजिली इमारतें कागज की मानिंद कांपती महसूस होती हैं। लोग कौतुक और बदहवासी के आलम में अपने कार्यालयों और प्रतिष्ठानों से लिफ्ट छोड़ कर जीने से जान बचाने को भागने लगते हैं। आलम यह था कि लोग मकानों से ज्यादा पार्कों में खुद को महफूज महसूस कर रहे थे। खबरे थीं कि बरसों बाद गांवों में भी बड़ी जमात रात को खेतों और मैदान में सोई।

धरती की कोख का बेलिहाज खनन कर उसकी ताकत को कम करने की कोशिश दशकों से चल रही हैं। नदियों के प्राकृतिक बहाव को रोक कर अपने मुनाफे और सहूलियत के लिए उनकी दिशाओं को मोडऩे का गुनाह करने से भी बाज नहीं आ रहे हैं हम। दुस्साहस देखिये कि धरती का दामन छोटा होता महसूस हुआ तो इन्सानी अंहकार ने आसमानों में बस्तियां बनाने की योजनायें शुरू कर दीं। जमीनें उजाड़ दी, पर्वतों के सीने चीरकर अपने लिए ऐशगाहों के निर्माण कर लिये, जंगल उजाड़ दिये, पहले वृक्ष काटकर गगनचुम्बी इमारतों की नींव रखी, बाद में 'प्लांटेशन के लिये मैराथन दौड़ कर, रिकार्ड बनाकर, अपनी पिक्स फेसबुक पर अपलोड करके फूले नहीं समा रहे हैं। चिडिय़ों को उड़ा दिया, गायों को कूड़ा-कचरा खाने को विवश किया। दरअसल प्रकृति विरोधी कथित विकास हमें विनाश की ओर ले जा रहा है। एक अरसा पहले ही पहाड़ पर प्रलय को सबने देखा। उसके बाद जमीन की जीनत कश्मीर जलजले में डूब गया। फिर बे-मौसम बरसात और ओलावृष्टि ने धरती पुत्रों के मुकद्दर में मौत का मातम लिख दिया। 

गर किसी को संकेतों में बात समझ आती है तो इसका मतलब यह है कि पहाड़ों और पेड़ों को काटने, नदियों को बांधने और जंगलों को मिटाने का मतलब विकास नहीं है, यह खुद को मिटाने की भौतिक तैयारी है।कुदरत ने कायनात को बेहिसाब नियामतों से नवाजा है। हजारों जीव-जन्तुओं, पादपों, इन्सानों को जिन्दगी बख्शने के लिए सदानीरा नदियां प्रदान की तो पहाड़ों के उतुंग शिखरों को बना कर मौसम के मिजाज को अनुशासित किया, दरख्तों ने जहां पूरी कायनात को सांसे बख्शी वहीं धरती की कोख ने इन्सान की जिन्दगी को आसान बनाने के लिए अपने खजाने खोल दिये। लेकिन लोभ और हवस के घोड़े पर बैठा बदहवास इन्सान, कुदरत की बख्शी अनमोल नियामतों, जो कि आने वाली नस्लों के लिए अमानत होती हैं, में खयानत करने से बाज नहीं आ रहा है।

लखनऊ की एक तस्वीर ये भी, साभार: सोशल मीडिया

लखनऊ की एक तस्वीर ये भी, साभार: सोशल मीडिया


स्कूलों में छुट्टी कर दी गई थी तो अबोध बच्चे मुस्कुरा कर चहक उठे कि आज तो मजा आ गया। सूबे की प्रशासनिक व्यवस्था का मरकज सचिवालय, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है की कालजयी पंक्तियों को चरितार्थ कर एकाएक आनन-फानन में खाली हो गया। उस दिन सरकार-ए-सरजमीन लखनऊ में मुख्य सचिव से लेकर चपरासी तक सभी सड़क पर खड़े कुदरत की ताकत का बड़ी विस्मयता के साथ 'निरीक्षण कर रहे थे। पैरों तले जमीन खिसकने का सजीव अनुभव कैसा होता है इसकी अनुभूति सदर-ए-रियासत से लेकर उत्तर भारत की आम अवाम ने लगातार दो दिनों तक किया था। उसी वक्त पड़ोसी मुल्क नेपाल में भी प्रकृति ने अपना रौद्र रूप दिखाया था। वहां धरती के डोलने से हजारों हंसते-खेलते इन्सानी जिस्म बेजान शरीरों में तब्दील हो गये थे। 

बेशुमार जान-माल कुदरत के कहर का शिकार हुई थी। जो गगनचुम्बी इमारत कुछ लम्हा पहले आदम की जात के हौसले और गुरूर का इश्तहार थी अब चन्द सेकेण्ड बाद जमींदोज होकर कुदरत की ताकत का मुजाहरा पेश कर रही थी। शायद तभी अदब व अदीबों के शहर लखनऊ में मस्जिदों में दुआ पढ़ी जा रही थी कि 'ऐ खुदा हमारे गुनाहों को माफ कर। हम गुनहगारों पर अपने रहमतों की बारिश कर। हम तेरे सजदे में हैं। मन्दिरों में भी प्रार्थना हो रही थी, किसी एक व्यक्ति के लिए नहीं वरन समूची मानवता के लिए। कहर के साथ अक्ल का बड़ा अजीब रिश्ता होता है। कहा भी गया है भय बिनु होय न प्रीति। खैर प्रकृति का कहर कब और कहां बरपे यह कहना मुश्किल है, विज्ञान द्वारा काफी प्रगति किये जाने के बाद भी आज हम प्राकृतिक आपदाओं के सामने बेबस नजर आते हैं। 

लेकिन यह बात जाहिर है कि चाहे सुनामी हो या फिर भूकम्प आदि, कहीं न कहीं इस सबके लिए प्रकृति के साथ हो रही छेड़छाड़ एक बड़ी वजह है, किन्तु यह बात तो हर बार दोहरायी जाती है। आपदा यूं ही नहीं आती, उसे समझने के लिए हमें प्रकृति और पारिस्थितिकी के सहजीवन को समझना होगा। जब प्रकृति को बरसों बरस प्रदूषित किया जाता है तो पर्यावरण की नैसर्गिक स्थिति प्रभावित होती है और तब वह आपदा के संहारक स्वरूप में कायनात को उसके गुनाहों का अहसास कराती है। हमारी धरा पर सभी के लिए स्थान है। खेतों में चूहे भी जरूरी हैं और चूहों का बढऩा रोकने के लिए सांप भी। सांप पर काबू पाने के लिए मोर व नेवले भी हैं। यही सहजीवन है। यह सहजीविता ही विकास की बुनियाद होनी चाहिए। जहां सहजीविता मिटी विकास हवस बन कर विनाश करने लगता है। विकास की अन्धी हवस ने मानव सभ्यता की पहचान ही बदल दी है। 

बहुत दूर जाने की आवश्यकता नहीं है, सबसे बड़ा उदाहरण नजाकत और नफासत का शहर लखनऊ है। कभी अपनी तहजीब और बागों के लिए पहचाने जाने वाले लखनऊ का शुमार मुल्क के पहले पांच प्रदूषित शहरों में हो रहा है। जानकारों की मानें तो लखनऊ बीते पांच वर्षों से लगातार वायु और ध्वनि प्रदूषण में आगे बढ़ रहा है। लखनऊ के शहरी इलाकों में रहना गैस चैम्बरों में रहने से कम नहीं है। यह हम नहीं, बल्कि केन्द्रीय प्रदूषण कण्ट्रोल बोर्ड (सी.पी.सी.बी) के आंकड़े बता रहे हैं। प्रदेश में बढ़ते प्रदूषण ने वातावरण और आम जीवन पर बुरा प्रभाव डाला है। राज्य में मोटरवाहनों की संख्या कुल आबादी के मुकाबले कई गुना ज्यादा है। इससे वायु प्रदूषण के साथ-साथ ध्वनि प्रदूषण में इजाफा हो रहा है। प्रदूषण का बढ़ता पैमाना शहर के लोगों के लिए खतरे की घंटी बजा रहा है। फिलहाल लखनऊ तीसरे नम्बर पर है, लेकिन अगर शहर में बेतरतीब चल रहे निर्माण और मोटरवाहनों की संख्या में हो रहे इजाफे पर काबू नहीं पाया गया तो जल्द ही लखनऊ देश का सबसे प्रदूषित शहर होगा।

भारतीय विष विज्ञान अनुसन्धान संस्थान और उ.प्र. प्रदूषण विभाग की ओर से शहर पर जारी प्रदूषण की रिपोर्ट भी यह बता रही है कि यहां पर प्रदूषण अपने खौफनाक स्तर पर पहुंच गया है। यह विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक से भी कई गुना अधिक है। उ.प्र.में बढ़ता वायु प्रदूषण जहां एक ओर मोटरवाहनों, निर्माण कार्यों और कारखानों की देन है, वहीं पेड़ों की बेतहाशा कटान ने कोढ़ में खाज की स्थिति बना दी है। कौन नहीं जानता उ.प्र. के पूर्व मुख्यमन्त्री अखिलेश के सपने को पूरा करने के लिए लखनऊ का चक गजेरिया फारेस्ट आज इतिहास से भी बेदखल है। उसके बाद वृक्षारोपड़ में विश्व रिकार्ड बनाने का प्रहसन किया जाता है। हां मीडिया की कृपा से यह अवश्य ज्ञात हो गया कि अमुक-अमुक नेता ने वृक्षारोपण किया है। किन्तु पेड़ वाले बाबा के नाम से विख्यात मनीष तिवारी कहते हैं कि अब पांच करोड़ पौधों को जीवित रखने के लिए सरकार के पास क्या कोई योजना है? अगर नहीं तो ऐसे रिकार्ड के बहाने जनता और प्रकृति को छलने का क्या मतलब? 

बढ़ते वायु प्रदूषण ने सूबे के नौजवानों, बच्चों और वृद्धों के फेफड़ों को कमजोर कर दिया है। अस्थमा और क्षय रोग ने रक्तबीज की क्षमता हासिल कर ली है। रही सही कसर ध्वनि प्रदूषण ने पूरी कर दी है। वैसे भी वायु और ध्वनि प्रदूषण का तो चोली-दामन का साथ है। पर्यावरण मन्त्रालय के मुताबिक रिहायशी इलाकों में दिन के समय शोर 55 डेसिबल से ज्यादा नहीं होना चाहिए जबकि रात में इसकी सीमा 45 डेसिबल तय की गई है। आलम यह है कि लखनऊ ध्वनि प्रदूषण के मामले में मुम्बई के बाद दूसरे पायदान पर पहुंच गया है। हैदराबाद, दिल्ली और चेन्नई भी इस सूची में शामिल हैं। केन्द्रीय प्रदूषण बोर्ड ने सात शहरों में 35 स्थानों का चयन किया। इन जगहों से आधुनिक उपकरणों द्वारा रियल टाइम डेटा एकत्र किया गया। इसमें पीजीआई, तेलीबाग, अमौसी, आलमबाग, चारबाग, हुसैनगंज, चौक, अमीनाबाद, हजरतगंज, गोमतीनगर, अलीगंज, चिनहट, कपूरथला, इन्द्रानगर इलाके शामिल रहे। इनमें कामर्शियल क्षेत्रों में ध्वनि 80 डेसीबल तक नापी गयी जबकी रिहायशी क्षेत्र में यह 70 डेसीबल तक पहुंची। 

साभार: सोशल मीडिया

साभार: सोशल मीडिया


यहां यह बात समझनी होगी कि शोर कोई खामोश कातिल नहीं है क्योंकि ये जोर-शोर से डंके की चोट पर लोगों को मारता है। 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने ध्वनि प्रदूषण से जुड़े एक वाद की सुनवाई करते हुए कहा था कि जीने के अधिकार में यह भी शामिल है कि आप किसी शोर को सुनना चाहते हैं या नहीं। लेकिन फिर भी हमारे देश के हर इलाके में लोग अपने पड़ोस में बजने वाले लाउडस्पीकर, वाहनों के हॉर्न शादियों के कानफोड़ू संगीत और राजनीतिक और धार्मिक आयोजनों से आने वाली ऊंची आवाजों को सुनने पर मजबूर होते हैं। केजीएमसी में मनोविज्ञानिक डॉ.एस.सी.तिवारी के मुताबिक बढ़ता ध्वनि प्रदूषण लखनऊ के सामने एक बड़ी चुनौती है। लम्बे समय तक ध्वनि प्रदूषण के प्रभाव से सुनने की शक्ति कमजोर हो सकती है और कई मामलों में खो भी सकती है। साथ ही गर्भ में पल रहे बच्चे की भी मृत्यु हो सकती है। इसके अतिरिक्त सिरदर्द, चिड़चिड़ापन, उच्च रक्तचाप अथवा मानसिक, मनोवैज्ञानिक बीमारियां हो सकती हैं। लम्बे समय तक ध्वनि प्रदूषण के प्रभाव से परेशानियां बढ़ जाती हैं। 

वायु और ध्वनि प्रदूषण से न सिर्फ इन्सान बल्कि परिन्दे भी अपना वजूद खतरे में महसूस कर रहे हैं। मोबाइल तरंगों ने पक्षियों की मानसिक क्षमता को ही समाप्त कर दिया है। सहअस्तित्व के प्राकृतिक सिद्धान्त पर लगातार हो रहे कुठाराघात से जहां एक ओर आसमान में परिन्दे बेबस हो रहे हैं तो दूसरी ओर जीवनदायिनी नदियों में जीवन का कलरव करने वाली मछलियां अब उसी में कालकवलित भी हो रही हैं। दर्जनों बार गोमती के किनारों पर तैरते मछलियों के मुर्दा शरीरों ने बढ़ते जल प्रदूषण की शिकायत दर्ज करायी है लेकिन प्रगतिशील व्यवस्था के कान पर जूं भी नहीं रेंग रही है। गंगा से गोमती, सरयू से सई, घाघरा से कोसी आदि सभी नदियां अपनी जैविक सम्पदा को लुटते देखने के लिये विवश हैं। वह आस्था का आचमन हो या मुनाफे की वासना, दोनों ही नदियों को धीरे-धारे कत्ल कर रहे हैं। 

साभार: सोशल मीडिया

साभार: सोशल मीडिया


मां का दर्जा रखने वाली नदी अपशिष्ट पदार्थों का गोदाम बनती जा रही है। गंगा नदी के किनारे करीब उत्तर प्रदेश के लगभग 17 करोड़ बाशिन्दे बसते हैं। कुल गंगा की गन्दगी का 40 प्रतिशत भाग यूपी के हिस्से में आता है। जिसमें इलाहाबाद, बनारस, सिमिरिया मुख्य और बड़े पड़ाव हैं, जहां से तीर्थ यात्रियों की गन्दगी, इन धार्मिक स्थानों की कुलगन्दगी का 40 प्रतिशत होती है। कानपुर में कम से कम 5,000 ट्रक लोड क्रोम निकलता है, जो जहरीला होता है। बनारस में बनारसी साडिय़ों की प्रिन्टिंग का रसायन भरा पानी भी कम जहरीला नहीं होता। इसके अलावा मिर्जापुर में कालीन बनाने का काम होता है और वहां लगभग 50,000 लीटर केमिकल का पानी रोज निकलता है। जनपद उन्नाव में भी जीवनदायी गंगा नदी में औद्योगिक प्रतिष्ठानों का केमिकलयुक्त बदबूदार रंगबिरंगा पानी गन्दा नाला, लोनी ड्रेन के माध्यम से ब्रिटिशकाल से बहाया जा रहा है। यह जल प्रदूषण का इन्तहां नहीं तो और क्या है कि उत्तर प्रदेश के दो तिहाई जिलों का भूजल पीने लायक नहीं है।

49 जिलों में तो पानी में नाइट्रेट मौजूद है, जबकि दर्जनों दूसरे जिलों के पानी में खारापन, आयरन व फ्लोराइड की समस्या है। जाहिर है कि हैंडपम्प व नलकूपों के पानी का सेवन करने वाले लाखों लोगों की सेहत दांव पर है। जहां तक खारापानी, फ्लोराइड व आयरन की समस्या की बात है तो इसके समाधान के लिए तमाम सरकारी प्रयास विफल ही रहे हैं। इसका प्रमाण उन्नाव में फ्लोराइड प्रदूषण है, जहां करोड़ों खर्च करने के बाद भी न तो समस्या ही दूर हुई और न ही लोगों को साफ पानी मयस्सर हो सका है। नतीजा है कि हजारों लोग फ्लोरोसिस की बीमारी, जिसमें हड्डी टेढ़ी होने लगती है। मथुरा-आगरा से प्रतापगढ़-जौनपुर तक खारे पानी की बेल्ट है। यही वजह है कि इन जिलों का पानी खारा है। उन्नाव, रायबरेली, मथुरा, आगरा, फिरोजाबाद, अलीगढ़, हमीरपुर के पानी में फ्लोराइड की समस्या है। आगरा, अलीगढ़, फिरोजाबाद, बदायूं, बुलन्दशहर, मैनपुरी, भदोई, वाराणसी सहित करीब डेढ़ दर्जन जिलों में भूजल स्रोतों में आयरन की समस्या है। आयरन, फ्लोराइड व खारेपन की समस्या तो प्राकृतिक रूप से मौजूद है, लेकिन करीब 49 जिलों के भूमिगत जलस्रोतों में नाइट्राइट प्रदूषण की विकराल समस्या पायी गयी है। राजधानी लखनऊ सहित दर्जनों जिलों का पानी नाइट्रेट से दूषित है।

आखिर कैसे बचा जा सकता है बढ़ते प्रदूषण से, जबकि हमारी भारतीय संस्कृति में प्रकृति के साथ मानव के सहचर्य के हजारों सन्दर्भ हैं। पेड़ की पूजा से लेकर नदियों को मां के पवित्र सम्बोधन से नवाजने का संस्कार किसी अन्य संस्कृति में देखने को नहीं मिलता है। अत: पर्यावरण संरक्षण हेतु अपनी प्राचीन लोक संस्कृति को प्रसारित एवं स्थापित करने की आवश्यकता है, जिससे जन सहभागिता बढ़ सके। जन सहभागिता के माध्यम से ही चिपको आन्दोलन सफल हुआ था। आधी अबादी की सक्रियता और शक्ति को चिपको आन्दोलन में समूचे देश ने देखा। वैसे ही समर्पण की आज आवश्यकता है। 

वृक्ष बाबा के नाम से मशहूर चन्द्रभूषण तिवारी कहते हैं कि अब सत्यनारायण कथा के साथ-साथ हरि-हरा कथा को भी प्रचलन में लाकर अपने सनातनी संस्कारों को पुनर्जीवित करने की अपरिहार्य आवश्यकता है। चन्द्रभूषण तिवारी एक लाख से अधिक पौधे लगा चुके हैं। वह कहते हैं कि मैं जिसे भी पेड़ भेंट करता हूं उसे अपना समधी बना लेता हूं क्योंकि पौधे मेरे पुत्री है। आज समाज को प्रकृति से अपने सम्बन्ध को समझने की जरूरत है। मानव पर्यावरण का एक महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली घटक है। पर्यावरण से परे उसका अस्तित्व नहीं रह सकता अत: पर्यावरण संरक्षण के लिये जरूरत है। जैसे एक परिवार में किसी व्यक्ति को बुखार आ जाता है तो दूसरे सदस्य उसे चिकित्सक के पास ले जाते हैं। उसी प्रकार आज जरूरत है यदि एक आदमी पर्यावरण को गन्दा कर रहा है तो दूसरा मूकदर्शक बना नहीं रहे अपितु इसकी चिन्ता करें पर्यावरण के डॉक्टर के पास जाये। धीरे-धीरे यह प्रवृत्ति जन-जन तक फैलेगी और पर्यावरण हमारा असली घर होगा।

यह सामान्य बात है कि जहां मामूली सी लापरवाही भी होगी, दुर्घटना सम्भव है। अत: आपदा प्रबन्धन की तैयारी भी होनी चाहिए। लेकिन आपदा प्रबन्धन तभी सफल हो सकता है जब जन-जन में चेतना हो, इसके लिए स्कूली पाठ्यक्रमों में इसे आवश्यक विषय के रूप में शामिल किया जाना चाहिए। समय-समय पर ट्रेनिंग कैम्पों का आयोजन कर ऐसे समय होने वाले तनाव से बचने को राष्ट्र की भावी पीढ़ी के चरित्र में शामिल किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त धार्मिक स्थानों, मेलों में भगदड़ हो या तंग बस्तियों में अग्निकांड, सड़क पर होने वाली दुर्घटनायें, जहरीली शराब के प्रयोग से होनी वाली जन हानि को रोकने के लिए स्थायी व्यवस्था करनी चाहिए। आपदा प्रबन्धन से सम्बन्धित प्रशिक्षित अभियान पूरे वर्ष जारी रहने चाहिए। इसे स्कूल-कालेज सहित समाज के हर वर्ग तक पहुंचाने की दिशा में पहल करनी चाहिए ताकि संकट के ऐसे क्षणों में अनावश्यक घबराहट की बजाय हमें क्या करना चाहिए इसका व्यावहारिक ज्ञान सभी को हो। 

इस विषय पर जापान से प्रेरणा ली जा सकती है। सुनामी ने भारी तबाही मचाई लेकिन जापानियों ने कुदरत के इस प्रकोप का जिस दिलेरी और कौशल से मुकाबला किया, वह काबिले तारीफ है। अनेक बार राहत कार्यों के नाम पर अपने घर भरने तथा बन्दरबांट के समाचार भी मिलते हैं, इसे राष्ट्रीय अपराध घोषित किया जाय। सरकार को भी आपदा प्रबन्धन के क्षेत्र में और अधिक सक्रिय होने की आवश्यकता है। उसे विकास की अभी तक की स्थापित परिभाषा को बदलना होगा। आपदा प्रबन्धन तन्त्र को दुरुस्त करने के साथ ही केन्द्र और राज्य सरकारों को यह भी देखना होगा कि बुनियादी ढांचे को कैसे मजबूती मिले। लेकिन इसी के साथ कुदरत और इन्सान के ताल्लुकात को और 'पूरक बनाने की दिशा में गम्भीर कोशिश करने की प्रबल आवश्यकता है। 

क्या सच नहीं है कि आज भी बारिश का अन्दाजा बगैर किसी यन्त्र के चीटियों को पहले हो जाता है। बस फर्फ इतना है कि वे बारिश के लिये अपना प्रबन्ध पहले करती हैं और हम आपदा के पश्चात। हमें प्रकृति और पारिस्थितिकी के सहजीवन को समझना होगा। यह धरती सबके लिये है और सभी प्रकृति में सन्तुलन के लिए उपयोगी हैं। गर ऐसा होता है तो ऐंठ में डूबी मानव जाति को प्रकृति की वीणा पर बजने वाले आर्तनाद के स्वर सुनायी पडऩे लगेंगे और मानवता प्रकृति के डमरू से उत्पन्न हो रहे मृत्युगीत को सुनने के लिये विवश होने से बच सकेगी।

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