पढ़ाई के लिए एक महिला ने छोड़ दिया ससुराल, अब हज़ारों महिलाओं की हैं प्रेरणा
घरवालों ने उसे पढ़ने नहीं दिया और उसकी शादी कर दी। वो ससुराल चली तो गई पर उसने ससुराल वालों से पढ़ाई की गुहार लगाई। ससुराल वालों ने भी उसे अनसुना कर दिया। तब पढ़ाई को लेकर इस जिद्दी महिला ने आगे पढ़ने और उसे जारी रखने के खातिर ससुराल ही छोड़ दिया। आज वो महिला संस्कृत और हिंदी से एमए पास है। सैकड़ों महिलाओं और लड़कियों को ना केवल पढ़ा रही है बल्कि उनको अपने पैरों पर खड़ा होना सीखा रही है। वाराणसी के सारनाथ, आशापुर में रहने वाली चंदा मौर्य, ह्यूमन वेल्फेयर एसोसिएशन की मदद से आज दूसरी महिलाओं के लिए मिसाल है।
चन्दा मौर्य जब 15 साल की थी और 8वीं की पढ़ाई पूरी की ही थी कि उनके माता पिता ने उनका विवाह कर दिया था। चन्दा आगे पढ़ना चाहती थीं, इसलिए उन्होंने अपने पिता को समझाने की बहुत कोशिश की। उन्होंने फिलहाल शादी नहीं करने की बात लगातार उठाई, लेकिन गरीब किसान पिता ने उनकी नहीं सुनी। चंदा के पिता की दलील थी कि अगर वो ज्यादा पढ़ लेगी तो उसका खर्चा कौन उठायेगा। यही वजह थी कि चंदा की बड़ी बहनों की भी पढ़ाई पांचवीं क्लास के बाद छूट गई थी। इससे पहले चंदा ने अपनी पढ़ाई के दौरान सिलाई भी सीखी थी। हालांकि सिलाई सीखने के लिए उनको घर से 5 किलोमीटर दूर जाना होता था बावजूद इसके वो कभी बस से तो कभी पैदल ही ये रास्ता तय करती थी। इतना ही नहीं सिलाई सीखने की फीस और स्कूल फीस वो खुद ही भरती थी। इन पैसों को जुटाने के लिए वो फूलों की माला बनाती थी। उस समय 100 माला बनाने के लिए उनको 25 पैसे मिलते थे। इन सबके बावजूद चंदा के पिता ने एक न सुनी और उनकी शादी कर दी। शादी तो हो गई पर चंदा ने आगे की पढ़ाई की जिद्द नहीं छोड़ी। चंदा ने अपने ससुराल वालों से कहा,
"मैं आगे पढ़ना चाहतीं हूं, लेकिन मेरे ससुर इसके लिए तैयार नहीं हुए। अब तक मैं 3 बच्चों की मां बन चुकी थी। जब मैं 21 साल की हुई तो मैंने जिद्द कर 9वीं कक्षा में प्रवेश ले लिया और फीस का इंतजाम करने के लिए अपने परिवार के खिलाफ जाकर दूसरी लड़कियों को सिलाई सिखाने लगी। साथ ही गांव की महिलाओं के कपड़े भी सिलने लगी। मेरे ससुराल वालों को ये सब पसंद नहीं था। इसलिए मुझे मजबूरन अपना ससुराल छोड़ना पड़ा और मैं मायके आकर रहने लगी।"
पढ़ाई के लेकर चंदा की लगन और उसकी इच्छा के आगे पिता को झुकना पड़ा और अब वो चंदा की पढ़ाई में मदद करने लगे। इस तरह चंदा अनुभव हासिल करने के लिए बच्चों को मुफ्त में पढ़ाने लगीं, साथ ही अपना खर्चा चलाने के लिए सिलाई सिखाने के साथ दूसरी महिलाओं के कपड़े सीलने का भी काम करने लगीं।
करीब 1 साल मायके में रहने के बाद चंदा ने पिता के घर से थोड़ी दूर किराये का एक मकान ले लिया। तब तक उनके पति को भी समझ में आ गया था कि चंदा के पढ़ने का फैसला सही है इसलिए वो भी अपना घर छोड़ चंदा के साथ रहने के लिए आ गये। यहां भी चंदा ने पढ़ने और पढ़ाने का काम जारी रखा। उन्होंने करीब 11 सालों तक एक हाई स्कूल में बच्चों को पढ़ाने का काम किया। इस स्कूल में वो पहली कक्षा से लेकर आठवीं क्लास तक के बच्चों को हिन्दी और गणित पढ़ाती थी। चंदा का कहना है,
"मेरी गणित में बहुत अच्छी पकड़ थी। स्कूल के अलावा मैं अपने गांव में छोटे बच्चों को निशुल्क में गणित, हिंदी और अंग्रेजी सिखाती थी ताकि जब ये बच्चे स्कूल जायें तो उनको पढ़ाई में आसानी हो। इस तरह मैं एक ओर पढ़ा रही थीं और दूसरी ओर अपनी पढ़ाई भी जारी रखे हुए थी। जिसके बाद साल 2009 में मैंने एमए की पढ़ाई पूरी की।"
पढ़ाई पूरी करने के बाद चंदा अब कुछ बड़ा काम करना चाहती थीं इसलिए वो डॉक्टर रजनीकांत की संस्था ह्यूमन वेल्फेयर एसोसिएशन के साथ जुड़ गईं। इस पर लोगों ने सवाल उठाया तो चंदा का कहना था कि
“इन बच्चों को तो कोई भी टीचर आकर पढ़ा देगा मुझे तो गांव की उन महिलाओं और लड़कियों को शिक्षित करना है जो अनपढ़ होने के कारण अपने रोजमर्रा के काम भी नहीं कर पा रहीं हैं।”
इसके बाद चंदा ने ह्यूमन वेल्फेयर एसोसिएशन के सहयोग से गांव की महिलाओं को साथ लेकर सेल्फ हेल्प ग्रुप बनाये। इसमें महिलाएं अपने ही समूह में पैसा इकट्ठा करती है और जब किसी महिला को पैसे की जरूरत होती है तो वो मामूली ब्याज पर पैसा ले सकती हैं। जबकि साहूकार से कर्ज लेने पर उनको 10 प्रतिशत की दर से पैसा लौटाना होता था। इस तरह जब महिलाओं के समूह में करीब 5 लाख रूपये जमा हो गये तो उसी वक्त टाटा प्रेस ने एक योजना निकाली कि जिन समूहों में 4 लाख से ज्यादा पैसा जमा हो गया है उस समूह की महिलाओं को शिक्षित किया जायेगा। जिससे कि वो बैंकों में पैसा जमा करने और निकालने जैसे काम खुद कर सकें। इसके लिए उन्होंने 20 टीचर रखे। तब चन्दा ने अपने समूह की 50 महिलाओं को अपने सेंटर में पढ़ाने का काम किया। इनमें से काफी सारी लड़कियां वो थीं जिनकी शादी सिर्फ इसलिए नहीं हो पा रही थी कि वो अशिक्षित हैं। महिलाओं के शिक्षित होने का असर ये हुआ कि जो महिला कल तक घर की चौखट बिना घूघंट नहीं निकला करती थीं आज वो उनके लिए चलाई जा रही योजनाओं की बैठकों में भाग लेती हैं।
मनरेगा के पैसे का हिसाब वो खुद रखती हैं और पंचायत में अपनी समस्याओं और अधिकारों के बारे में खुद बात करती हैं। ये महिलाओं के बीच चंदा की चेतना का ही असर है कि एक बार गांव में एक शराब का ठेका शुरू हुआ जिसे समूह की महिलाओं ने अपनी कोशिशों से बंद करवा दिया। चंदा ने अपने काम की शुरूआत महिलाओं के लिए दो सेल्फ हेल्प ग्रुप बनाकर की थी जिनकी संख्या आज बढ़कर 32 हो गई है। हर समूह में 20 तक महिलाएं होती हैं। चंदा के बनाये समूह वाराणसी के 12 गांव में चल रहे हैं। इसके अलावा चंदा महिलाओं को बैंकों से भी लोन दिलवाने में मदद करती है। ताकि वो सब्जी और फूलों की खेती कर सकें। कई महिलाएं बैंकों से लोन लेकर पशु पालन कर दूध बेचती हैं। इस तरह चन्दा की कोशिशों से ये महिलाएं साहूकारों के चंगुल से बच जाती हैं। साथ ही आत्मनिर्भर बन कर अपने परिवार की आर्थिक स्थिति भी सुधारती हैं।
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