मूक-बधिरों को रोजगार दे आत्मनिर्भर बना रहा ये स्टार्टअप
मूक-बधिरों के लिए स्वर्ग बना ये स्टार्टअप...
ना सुनन पाने की बीमारी अर्थात बहरापन भारत में ही नहीं अपितु पूरे विश्व भर की समस्या है। विश्व स्वस्थ संगठन (WHO) के अनुसार, आज भारत की कुल आबादी का 6.3% हिस्सा इस बीमारी से ग्रसित है। जहाँ समाज के लोग इस बीमारी को एक कलंक की तरह समझते हैं वही मिरकल कूरियर के फाउंडर और सीईओ ध्रुव लाकड़ा को इन लोगों में ही आस दिखी, उन्होंने इन पर भरोसा किया और इन के लिए मिरकल को शुरू किया।
मिरकल कूरियर के सीईओ ध्रुव लाकड़ा ऑक्सफ़ोर्ड से सामाजिक उद्यमिता में एमबीए हैं। मिरकेल कूरियर की स्थापना उन्होंने जनवरी 2009 में की थी। उस समय ध्रुव की टीम में सिर्फ 2 लड़के थे लेकिन अब टीम में 35 लड़के और 15 लड़कियां हो गई है। लड़कों को कूरियर पहुंचाने की ज़िम्मेदारी सौंपी जाती है, जबकि लड़कियां कार्यालय में काम करती हैं।
आपने समाज में बहुत सारी संस्थाएं ऐसी देखी होंगी जो मूक-बधिरों के लिए काम करती हैं। हमारी आपकी कॉर्पोरेट इंडस्ट्री भी सिर्फ अपने फायदे के लिए ऐसे लोगों की मदद करती है। सिर्फ चंद रूपये या सामान दान में देना अच्छी बात है लेकिन किसी को जीविका का साधन देना बहुत ही अच्छी बात है। बधिरों को नौकरी दे कर एक ऐसी ही मिसाल पेश की है मुंबई की मिरकल कूरियर ने।
यह कोई एनजीओ नहीं है कि यहाँ पर लोगों को दान दिया जाये, मिरकल कूरियर एक बिज़नेस है जो कि बधिरों को रोजगार देता है। मिरकल कूरियर ने इन विकलांगों को रोजगार दे कर एक तो उनकी प्रतिभा को सराहा है दूसरा उनके जीवन के इस दर्द को भी साझा किया है। ना सुनन पाने की बीमारी अर्थात बहरापन भारत में ही नहीं अपितु पूरे विश्व भर की समस्या है। विश्व स्वस्थ संगठन (WHO) के अनुसार, आज भारत की कुल आबादी का 6.3% हिस्सा इस बीमारी से ग्रसित है। जहाँ समाज के लोग इस बीमारी को एक कलंक की तरह समझते हैं वही मिरकल कूरियर के फाउंडर और सीईओ ध्रुव लाकड़ा को इन लोगों में ही आस दिखी, उन्होंने इन पर भरोसा किया और इनके लिए मिरकल को शुरू किया।
मिरकल कूरियर के सीईओ ध्रुव लाकड़ा ऑक्सफ़ोर्ड से सामाजिक उद्यमिता में एमबीए हैं। मिरकेल कूरियर की स्थापना उन्होंने जनवरी 2009 में की थी। उस समय ध्रुव की टीम में सिर्फ 2 लड़के थे लेकिन अब टीम में 35 लड़के और 15 लड़कियां हो गई है। लड़कों को कूरियर पहुंचाने की ज़िम्मेदारी सौंपी जाती है, जबकि लड़कियां कार्यालय में काम करती हैं।
मिरेकल कूरियर शुरू करने के विचार के पीछे ध्रुव बताते हैं कि, "एक बार बस में वो एक लड़के के बगल में बैठे थे जो कि बड़ी ही उत्सुकता से खिड़की से बाहर देख रहा था। वास्तव में वह उत्सुक नहीं था बल्कि वो बहुत बेचैन था। वह उत्सुकता से चारों ओर देख रहा था, थोड़ा खोया हुआ लग रहा था। ध्रुव ने उनसे पूछा कि वह कहाँ जा रहा था लेकिन लड़के ने जवाब नहीं दिया। यह समझने के लिए उन्हें कुछ सेकंड लग गया कि वह लड़का सुनने या बोलने में असमर्थ था वह बहरा था, जब तक उसने बस कंडक्टर को इशारे से पूछा कि वह कहाँ है। ध्रुव ने कागज का एक टुकड़ा निकाला और उसे हिंदी में लिखा कि वह कहां जा रहा है। तब अचानक से ध्रुव ने महसूस किया कि मूक-बधिर लोगों का जीवन कितना संघर्षमय होता है।"
संघर्ष भरे शुरुआती दिन
मिरकल कूरियर की शुरुआत एक बधिर लड़के और 10 शिपमेंट्स के साथ हुई थी। धीरे-धीरे, लोगों के बीच इसका ज़िक्र होने लगा और ध्रुव को अपना पहला बड़ा ऑर्डर 5,000 शिपमेंट का मिला। उस समय टीम में दो लोग थे एक तो खुद ध्रुव, दूसरा वो लड़का और पास में था 5,000 आइटम्स का शिपमेंट। ध्रुव ने अपने उस मील के पत्थर को पार कर लिया था।
ध्रुव बताते है कि,"उनके आगे एक और चुनौती जो कि सबसे ज्यादा मुश्किल थी वो ये कि पहली बार काम के लिए बच्चों के माता-पिता को समझाने कि।" वह विशेष रूप से मिराकले कूरियर की पहली महिला कर्मचारी रेशमा को काम पर रखने के लिए वक़्त को याद करते हैं और बताते है कि,"रेशमा के माता-पिता को समझाना उनके लिए बहुत मुश्किल बात थी। लेकिन अंततः वह जीत गये।"
ध्रुव ने कई महीनों तक अच्छे से बधिरों की संस्कृति, उनकी सांकेतिक भाषा आदि सीखा और समझा। कंपनी में बच्चों को काम देना, उनके घर वालों को समझान, मानना ये सब काम ध्रुव खुद ही करते हैं। और वो ये काम बहुत ही अच्छी तरह से कर भी रहे हैं। इसी मेहमत का फल है कि कंपनी ने Echoing Green Fellowship (2009), Hellen Keller Award (2009) और विकलांग लोगों के सशक्तिकरण के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार (2010) प्राप्त किया है।
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