छत्तीसगढ़ में गूंज रही है 'कविता चौराहे पर'
क्यों पिछले डेढ़ दशक से लोगों को चौराहे पर कविता पढ़वा रहे हैं दो लोग...
समय के साथ साहित्य के भी रंग-ढंग बदलते रहते हैं और कवि-साहित्यकारों के भी। कभी कवि नारार्जुन ट्रेनों में गा-गाकर अपनी कविताएं सुनाते, अपनी कविताओं की पुस्तकें बेचा करते थे, सनेही मंडल कानपुर-लखनऊ में समस्यापूर्ति के बहाने नए कवियों की पीढ़ी तैयार कर रहा होता था, कविसम्मेलनों की एक अत्यंत संपन्न परंपरा थी, अपने यहां, लेकिन जमाना बदला है, अब चौराहे पर लोग कविताएं लिखे पोस्टर पढ़ने लगे हैं। पिछले डेढ़ दशक से लोगों ये कविताएं पढ़वा रहे हैं पेशे से दर्जी राकेश गुप्त और जगदीश देवांगन।
छत्तीसगढ़ के मुंगेली नगर में पिछले लगभग डेढ़ दशक से कवि राकेश गुप्त और जगदीश देवांगन लोगों को 'कविता चौराहे पर' पढ़वा रहे हैं। जनता के बीच साहित्य पहुंचाने की यह एक अनोखी-सी पहल है।
आम साहित्य और जनता के साहित्य में एक बुनियादी फर्क है। आम साहित्य कुछ भी हो सकता है लेकिन जनता का साहित्य वह होता है, जो लोगों के जीवन-मूल्यों को, जीवन के आदर्शों को प्रतिष्ठापित करता हो, उसे अपने मुक्तिपथ पर अग्रसर करता हो। इस मुक्तिपथ का अर्थ राजनैतिक मुक्ति से लगाकर अज्ञान से मुक्ति तक है। अतः इसमें प्रत्येक प्रकार का साहित्य सम्मिलित है, बशर्ते कि वह सचमुच उसे मुक्तिपथ पर अग्रसर करे, जनता का मानसिक परिष्कार करे, मानव स्वातंत्र्य और मुक्ति की राह दिखाए। कबीर, भारतेंदु और निराला की परंपरा के कवि नागार्जुन ने कभी लिखा था - 'जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊं जन कवि हूँ मैं साफ कहूँगा क्यों हकलाऊं।'
वह अपनी कविताओं की छोटी-छोटी किताबें छपवा कर उन्हें ट्रेनों में गा-गाकर बेचा करते थे। 'इंदुजी इंदुजी क्या हुआ आपको? सत्ता के मद में भूल गईं बाप को' इस कविता को जब वह मंच पर नाच-नाच कर सुनाते थे, पूरा समां बंध जाता था। छत्तीसगढ़ के मुंगेली नगर में पिछले लगभग डेढ़ दशक से कवि राकेश गुप्त और जगदीश देवांगन लोगों को 'कविता चौराहे पर' पढ़वा रहे हैं। जनता के बीच साहित्य पहुंचाने की यह एक अनोखी-सी पहल है। साहित्य में छत्तीसगढ़ के सृजनधर्मियों की अपनी कुछ अलग-सी भूमिका रही है। पं. सुन्दरलाल शर्मा ने सर्वप्रथम छत्तीसगढ़ी में प्रबन्ध काव्य लिखने की और लोचन प्रसाद पांडेय ने छत्तीसगढ़ी में गद्य लेखन की परम्परा विकसित की।
प्रथम छत्तीसगढ़ी उपन्यास हीरु के कहिनी तथा मोंगरा को मानी जाती है। इसके रचयिता क्रमशः वंशीधर पांडेय तथा शिवशंकर शुक्ल हैं। प्रथम छत्तीसगढ़ी कहानी सीताराम मिश्र 'सुरही गइया' है। प्रथम छत्तीसगढ़ी प्रबन्ध कव्य ग्रन्थ सुन्दरलाल शर्मा 'छत्तीसगढ़ दानलीला' है। सन् 1880 में प्रथम छत्तीसगढ़ी व्याकरण काव्योपाध्याय हीरालाल ने सृजित किया था। छत्तीसगढ़ी में नाटक की शुरुआत लोचन प्रसाद पांडेय के 'कलिकाल' से मानी जाती है। छत्तीसगढ़ी में व्यंग्य लेखन शरद कोठारी की रचनाओं से पहली बार प्रसारित हुआ। छत्तीसगढ़ी की प्रथम समीक्षात्मक रचना डॉ विनय कुमार पाठक की 'छत्तीसगढ़ी साहित्य अऊ साहित्यकार' है। रतनपुर के गोपाल मिश्र हिन्दी काव्य परम्परा की दृष्टि से छत्तीसगढ़ के वाल्मिकि माने जाते हैं।
छत्तीसगढ़ के मुंगेली नगर में वर्ष 2005 से मुंगेली के रचनाकार (पेशे से दर्जी) राकेश गुप्त और जगदीश देवांगन ने चौराहे पर एक बोर्ड लगाकर उस पर रोजाना नई-नई कविताएं लोगों को पढ़ाने लगे। पिछले चौदह वर्षों से वह सिलसिला आज भी जारी है। ये कविताएं समसामायिक विषयों पर होती हैं। उनकी कविताओं के विषय मौसम, प्रकृति, तीज-त्यौहार ही नहीं होते, चौराहे के बोर्ड पर राजनीतिक उथलपुथल, सीमा पर लड़ाई, आंतकवादी हमले, मौजूदा शिक्षा व्यवस्था, खराब स्वास्थ व्यवस्थाएं, बिजली-पानी का संकट, मंहगाई, बेरोजगारी आदि भी उन कविताओं के विषय होते हैं। साहित्य को जनता के बीच ले जाने की ये एक अनोखी तरह की पहल है।
रोकेश गुप्त कहते हैं कि कविता चौराहे पर जिसे पढ़ने लोगों की भीड़ भी रहती है। चौराहे पर प्रदर्शित करने के लिए उनको पूरे छत्तीसगढ़ के कवियों की रचनाएं मिलती रहती हैं। 'कविता चौराहे पर' को अब तक कई साहित्य सम्मान भी मिल चुके हैं। ऐसी कविताएं पढ़ने के प्रति आम लोगों के साथ खासकर युवाओं और छात्रों में रुझान बढ़ा है। राकेश गुप्त की साहित्य में गहरी अभिरुचि है। इनका खास मकसद है, कविता के माध्यम से जनता की समस्याएं, जनता को बताना।
आज, जहां तक जनता के बीच गंभीर साहित्यिक पहल की बात है, ख्यात आलोचक नामवर सिंह कहते हैं कि अब युवा कवियों, लेखकों ने आत्मपरक सीमित संसार को ही देखनेवाली संकुचित दृष्टि त्यागकर व्यापक सामाजिक दृष्टि से अपने यथार्थ को देखना, समझना शुरू कर दिया है। साहित्य को सामाजिक परिवर्तन के लिए लड़ी जानेवाली लड़ाई से जोड़कर देखा जाने लगा है और साहित्यकार अब समाज से कटा, स्वकेंद्रित, अहंवादी और कुंठित प्राणी न रहकर एक संघर्षशील सामाजिक मनुष्य की भूमिका अपना रहा है। फिर भी यह कटु सत्य है कि अभी तक लेखकों में विघटन की प्रवृत्तियाँ ज्यादा तेज हो रही हैं। निस्संदेह इस प्रक्रिया में टुटपुँजिया मध्यवर्गीय व्यक्तिवादी संस्कारों का बहुत बड़ा योग है, जिसके व्यक्त रूपों का विश्लेषण आवश्यक है।
आज पूरे सामाजिक जीवन को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाली जनविरोधी राजनीतिक स्थितियों के विपक्ष की भूमिका निभाने वाले ये कवि-लेखक एकमत नहीं हैं। साहित्य के क्षेत्र में राजनीति के ऐसे ही अनाड़ी अनुवादक अनेक संवेदनशील सर्जक साहित्यकारों को राजनीति मात्र से दूर धकेलकर अराजनीतिक बना देते है। राजनीतिक क्षेत्र के असफल नेता तो साहित्य में घुसकर प्राय: इस प्रकार की धाँधली फैलाते ही हैं, राजनीति के संपर्क में आनेवाले नए-नए रंगरूट लेखक भी प्राय: अतिरिक्त उत्साहवश साहित्य पर राजनीतिक बलात्कार कर बैठते हैं। इस प्रकार साहित्यगत राजनीतिक रणनीति अक्सर राजनीतिक अकर्मण्यता की क्षतिपूर्ति होती है। कहना न होगा कि यह टुटपुँजिया मध्यवर्गीय मनोवृत्ति का ही एक रूप है।
वैसे भी अब वे दिन लद गए, जब कवि के पैरों में चमरौधे जूते होते, एड़ियों की विवाइयां फटी होती थीं। वह कविता नहीं, अपने शब्दों की गोली दागता रहता था। एक बड़ी मजेदार टिप्पणी है कि 'अब वही कवि कार से आता है, कार से जाता है, कार के नाम से पहचाना जाता है। आजादी मिलने के बाद पिछले साढ़े छह दशक में और कुछ हुआ हो या न हुआ हो, साहित्य की सूरत बदल गई है। वह मोटा हुआ है, उसका वजन बढ़ा है, उसके कपड़े-जूते बढि़या हुए हैं, उसका कद बढ़ा है, उसका भाव बढ़ा है और इन दिनों तो वह डॉलर से भी ऊंचे भाव पर है। आज उसके पास 'कार' है। साहित्य का इतिहास बताता है कि पहली पंचवर्षीय योजना में पैदल, दूसरी में साइकिल, तीसरी-चौथी में 'टू व्हीलर' और उसके बाद 'कार' तक यात्रा की है। यही उसका 'विकास' है, जो विद्वानों से हमेशा 'अलक्षित' रह जाता है। कार एक रचना है। कविता उस रचना की रचना है।'
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