ये न तो कोई अतिश्योक्ति है, न उत्सुकता में दिया गया बयान। ये न तो भावुकता भरी बातें हैं और ना ही परस्पर स्नेह से जन्मे शब्द। ये एक पत्रकार, रचनाकार और संगीत के उस मुरीद का नज़रिया है, जिसके लिए कला, ईश्वर के समान है। जो इस सच को स्वीकार करता है, कि ईश्वर से साक्षात्कार हुए बिना, कोई कलाकार अपनी कला में पूर्ण हो ही नहीं सकता! जो यह जानता है कि जब तक एक ‘प्रज्ञा-शक्ति’ किसी कलाकार या रचनाकार की रगों में उतर कर, अपने चरम पर नहीं पहुँचती, तब तक वो अपनी कला का प्रदर्शन कर ही नहीं सकता। मुख़्तसर यही कि- ‘दरअस्ल हर कला, ईश्वर का साक्षात् दर्शन ही है.’
कल रात, उसी ‘प्रज्ञा-शक्ति’ से लबरेज़, चलती-फिरती, नाचती-ठुमकती, गाती-गुनगुनाती, और अपने लोक-गीतों से लोक-मंगल की धुन जगाती, रोशनी की एक जीती-जागती मीनार से साक्षात्कार हुआ। अपनी कला के ज़रिए लोक-मंगल के गान में डूबी एक साधिका से रूबरू हुआ। एक कलाकार के भीतर बैठी, सृष्टि के रचयिता ब्रह्म की सहायिका स्री से परिचय हुआ और साथ ही मालिनी अवस्थी होने का मतलब साफ़ हुआ...
मैंने मालिनी अवस्थी का यह रूप पहले कभी नहीं देखा। यह और बात की पिछले आधे दशक से उन्हें देख रहा हूँ। ‘आजतक’ में अपनी नौकरी के दौरान उनके साथ कई शोज़ किए। एक रचनाकार के नाते उनके साथ मंच साझा किए। अपने शब्द उनकी आवाज़ में गूंजते सुनने का सौभाग्य पाया। रिश्तों में उनकी गहरी आस्था और उदारता को देखा। उनके मन-प्राण और मुख से उनका अनुजतुल्य होने का सम्मान पाया, लेकिन कल जैसा दिन, पहले कभी नहीं आया।
दिल्ली के कमानी में वो गा रही थीं और लोग झूम नहीं रहे थे, पागल हो रहे थे। वो ख़ुद भी अपने आप में नहीं थीं। उनमें कोई और ही था। जो आमद की तरह आ रहा था और गा रहा था। सारा समाँ लोक-गीतों की धुनों पर थिरक रहा था। कमानी में मालिनी की कमान से निकला एक-एक सुर, तीर की तरह सीधे दिल तक आ रहा था। लोक-गीतों में ऐसी मादकता। ऐसा नशा कि हथेलियाँ बार-बार एक दूसरे का आलिंगन कर रही थीं। हर कोई सहज ही मान रहा था कि- ‘लोक-गीतों में स्री की एक पूरी यात्रा का ऐसा अद्भुत चित्रण, उसने पहले कभी नहीं देखा-सुना।’
"शिवरात्रि का महासंजोग, स्री दिवस की पूर्व संध्या, और उस पर मालिनी अवस्थी के भीतर से निकलती, दिन भर की उपासी-तिरासी स्री की असीम-ऊर्जा, हतप्रभ और चमत्कृत करने वाली थी। एक-एक सुर साधना की गहरी खान में बरसों-बरस पका हुआ। एक-एक गीत अपनी यात्रा की गवाही ख़ुद देता हुआ। मालिनी अवस्थी को, मालिनी अवस्थी बनाता हुआ।"
भारतीय-संगीत में लोक-गीतों की एक सुदीर्घ परम्परा रही है। गाँव-गलियारों और चौपालों से निकलने वाले लोक-गीत एक पूरे समय और समाज का प्रतिबिंब बनकर खिलखिलाते रहे हैं। गाँव से क़स्बों, क़स्बों से नगरों, नगरों से महानगरों और अब तो महानगरों से महासागरों के पार तक की इनकी यात्रा, कौतुक से भर देती है। करोड़ों-करोड़ लगाने और कमाने वाला भारतीय सिनेमा भी अक्सर लोक-गीतों के सहारे बॉक्स-ऑफ़िस की सफल-यात्रा पूरी करता रहा है।
इस यात्रा के साथ एक और यात्रा होती है, हमारी संस्कृति की यात्रा। कला की यात्रा और हाँ, एक कलाकार की यात्रा। मालिनी अवस्थी उस यात्रा में बहुत आगे निकल चुकी हैं। यह राय या उनकी कला और कलाकार पर दी गई ऐसी कोई भी छोटी-बड़ी राय, उनकी आगामी-यात्रा की आवश्यक्ता क़तई नहीं बन सकती है। हाँ यह ज़रूर साफ़ कर सकती है, कि हमारे लोक-गीतों और लोक-संगीत की इस बड़ी ब्रांड-एम्बेसडर के लाखों-करोड़ों मुरीदों में एक मुरीद और शामिल हुआ।
मालिनी अवस्थी के लिए सदा यही दुआ है, कि वे ताउम्र ऐसे ही गाती रहें. अपने लोक-गीतों से लोक-मंगल की धुन जगाती रहें और उस परम् शक्ति से हम जैसे आमजन का साक्षात्कार कराती रहें...
आमीन! आमीन! आमीन!
-आलोक श्रीवास्तव