ग्रामसभा से राज्यसभा तक पिता का रहा सफ़र तो एमपी के पीए से एमपी बनने का रोचक और ऐतिहासिक सफ़र है चौधरी सुखराम सिंह का
यादवों का इतिहास गौरवशाली है। यादव समुदाय से कई राजा-महाराजा हुए हैं। भारत के अलग-अलग हिस्सों में यादव राजाओं का लम्बे समय तक शासन भी रहा है। लेकिन, राजा और रजवाड़ों की परंपरा की समाप्ति के बाद यादव सत्ता के मामले में पिछड़ गए थे। आज़ादी के बाद एक समय ऐसा भी था जब यादवों का राजनीति में कोई प्रतिनिधित्व भी नहीं था, लेकिन आज समय ऐसा है कि यादवों के बगैर राजनीति की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। 'यादव' जोकि पारंपरिक जातियों का एक समूह है, आज़ाद भारत में राजनीति की बिसात में कुछ दशक पुराना है, लेकिन आज इसकी पकड़ काफी मजबूत है। जो यादव समाज कभी दूसरे राजनीतिक दलों के भरोसे अपनी लड़ाई लड़ता था, वो आज एकजुट होकर खुद की आवाज बुलंद कर रहा है। आज़ाद भारत में यादव समाज को राजनीति का पाठ सबसे पहले चौधरी चरण सिंह ने सिखाया और इसके बाद समाज ने बिंदेश्वरी प्रसाद सिंह, चौधरी रामगोपाल सिंह यादव, हरमोहन सिंह यादव, मुलायम सिंह यादव, शरद यादव जैसे धुरंधर नेता दिये। इन्हीं नेताओं की वजह से इस समाज की देश में राजनीतिक पकड़ दिन-ब-दिन मजबूत होती गई। हालांकि ये सब इतना सरल भी नहीं था, लेकिन अपनी सूझबूझ, प्रतिभा, काबिलियत और मेहनत के दम पर इस समाज ने साबित किया है कि राजनीति में 'यादव' का कोई सानी नहीं है।एक बेहद ख़ास मुलाकात में कद्दावर समाजवादी नेता और राज्यसभा सदस्य चौधरी सुखराम सिंह यादव ने देश के सबसे बड़े राज्य यानी उत्तरप्रदेश की राजनीति में यादवों के उद्भव, विकास और चरम पर पहुँचने के ऐतिहासिक सफ़र की कई महत्वपूर्ण घटनाओं को उजागर किया। प्रस्तुत हैं ऐसे ही कुछ रोचक पहलू और ऐतिहासिक घटनाएं।
चौधरी चरण सिंह के सुझाव ने बनाया था यादवों को राजनीति का धुरंधर : चौधरी सुखराम सिंह यादव साल 1977 में पहली बार दिल्ली आये थे। उनके ताऊ चौधरी रामगोपाल यादव जनता पार्टी के टिकट पर बिल्हौर से लोकसभा का चुनाव जीतकर संसद पहुंचे थे। पहली बार सांसद बने रामगोपाल यादव ने 25 साल के अपने युवा भतीजे सुखराम सिंह को अपना पर्सनल असिस्टेंट यानी पीए बनाया था। भतीजे को पीए बनाने के पीछे दो बड़ी वजहें थीं। पहली, चौधरी रामगोपाल यादव अपने भतीजे सुखराम से बहुत प्यार करते थे। दूसरी वजह थी कि वे सुखराम को राजनीति में लाना चाहते थे।
अपने सांसद ताऊ के पीए की हैसियत से ही सुखराम का संसद आना-जाना शुरू हुआ था। उन दिनों सांसद के पीए को न तनख्वाह मिलती थी और न ही कोई भत्ता दिया जाता था, जैसा की आजकल होता है। पीए को एक पहचान पत्र दिया जाता था जिसकी बदौलत उसे संसद परिसर में आने-जाने की छूट होती थी। बतौर पीए सुखराम सिंह को उन दिनों देश के सबसे ताकतवर नेताओं को करीब से देखने और सुनने का मौका मिला था। उस समय भारत में राजनीतिक माहौल भी पहले से काफी अलग था। पहली बार केंद्र में गैर-कांग्रेसी सरकार बनी थी। आपातकाल के तुरंत बाद 1977 में हुए आम चुनाव में इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस की हार हुई थी। जनता पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिला था। उत्तरप्रदेश की 87 लोकसभा सीटों में से 83 सीटों पर जनता पार्टी के उम्मीदवारों की जीत हुई थी। जनता पार्टी की सरकार में मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री थे। लेकिन, एक नेता ऐसे थे जिनसे सुखराम सिंह ही नहीं बल्कि उनके परिवार के सभी सदस्य बहुत प्रभावित थे। और, ये नेता थे चौधरी चरण सिंह। चौधरी सुखराम सिंह यादव के मुताबिक, चौधरी चरण सिंह की वजह से ही उत्तरप्रदेश में यादवों का राजनीति में दमदार प्रवेश हुआ। एक बेहद ख़ास मुलाकात के दौरान सुखराम सिंह यादव ने उत्तरप्रदेश की राजनीति में यादवों के वर्चस्व स्थापित करने के पीछे की कहानी के कई महत्वपूर्ण पक्ष और पहलू उजागर किये।
बकौल सुखराम सिंह यादव, आज़ादी के बाद उत्तरप्रदेश देश का सबसे बड़ा राज्य बना। उत्तरप्रदेश में यादवों की आबादी काफी ज्यादा होने के बावजूद राजनीति में उनका कोई वजूद नहीं था। काफी लम्बे समय तक यादवों का राजनीति में कोई स्थान नहीं था। आज़ादी के बाद से लेकर 1977 तक जितने भी चुनाव हुए उनमें हमेशा कांग्रेस पार्टी की ही जीत हुई। 1977 तक सभी प्रधानमंत्री उत्तरप्रदेश से चुनाव जीतकर ही संसद पहुंचे थे। जवाहरलाल नेहरु, लालबहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी – तीनों ने लोकसभा का चुनाव उत्तरप्रदेश से ही लड़ा था। 1977 से पहले तक उत्तरप्रदेश विधानसभा के लिए जितनी बार भी चुनाव हुए उनमें कांग्रेस की ही जीत हुई थी। ये धारणा बन गयी थी कि जो भी कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ेगा वो ज़रूर जीतेगा। यादवों की आबादी काफी ज्यादा होने और समाज में काफी महत्वपूर्ण स्थान होने के बावजूद कई कारणों से राजनीति में उनका कोई ख़ास दबदबा नहीं था। जब यादव महासभा के बैनर तले सभी यादव एकजुट हुए तब फैसला लिया गया कि यादवों को राजनीति में भी सक्रीय भूमिका निभानी चाहिए। फैसला ये भी लिया गया कि यादव महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष चौधरी रामगोपाल सिंह के नेतृत्व में यादवों का एक प्रतिनिधि-मंडल तत्कालीन मुख्यमंत्री और कांग्रेस के कद्दावर नेता गोविंदवल्लभ पंत से मिलेगा और अगले चुनाव में यादवों को विधानसभा का टिकट देने का अनुरोध करेगा। फैसले के मुताबिक यादवों का एक प्रतिनिधिमंडल गोविंदवल्लभ पंत से मिलने पहुंचा। जब यादव महासभा के नेताओं ने गोविंदवल्लभ पंत से यादवों को विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का टिकट देने का अनरोध किया गया तब उन्होंने जो बातें कहीं वो बातें सुनकर सभी दंग रह गए। किसी ने अपने सबसे बड़े बुरे सपने में भी ये कल्पना नहीं की थी कि गोविंदवल्लभ पंत जैसे नेता यादवों का परिहास करेंगे। बकौल सुखराम सिंह यादव, गोविंदवल्लभ पंत के कहा था –अहीर राजनीति करेगा? गाय-भैंस चराने वाला आदमी खेती-बाड़ी का काम छोड़कर राजनीति करेगा? गोविंदवल्लभ पंत की इन बातों ने यादव महासभा के नेताओं को हिलाकर रख दिया। उन्हें लगता था कि समाज में यादवों के रुतबे और उनकी आबादी को ध्यान में रखते हुए गोविंदवल्लभ पंत यादव समाज के एक नहीं बल्कि कई लोगों को विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस का टिकट देंगे। लेकिन, पंत के ख्याल जानकार यादव नेताओं का माथा चकरा गया। फिर भी उन्होंने उम्मीद नहीं हारी और गोविंदवल्लभ पंत की बेरुखी के बावजूद उनसे गुहार लगते रहे। उन दिनों गोविंदवल्लभ पंत ही उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस के टिकट बांटते थे और ये माना जाता था कि जिसे कांग्रेस का टिकट मिल गया,उसका विधायक बनना तय है। इसी वजह से यादव महासभा ने नेता गोविंदवल्लभ पंत से उस समय तक अनुरोध करते रहे तब तक उन्होंने यादव को टिकट देने का ऐलान नहीं कर दिया।
पंत यादवों की ताकत को अच्छी तरह से जानते थे। वे यादवों को नाराज़ करने से होने वाले नुकसान को भी भांप चुके थे, इसी वजह से उन्होंने विधानसभा चुनाव के लिए किसी यादव को टिकट देने का फैसला लिया था। फैसला, एक मायने में उनकी मजबूरी था। पंत ने लखनऊ के यादवाचार्य को मैनपुरी का टिकट दिया। मैनपुरी यादव बहुल क्षेत्र है और अगर पंत चाहते तो किसी स्थानीय यादव नेता को भी टिकट दे सकते थे। लेकिन, लखनऊ के एक नेता को टिकट दिया। इस तरह यादवाचार्य उत्तरप्रदेश के पहले यादव विधायक बने।
लेकिन, जब उत्तरप्रदेश में कांग्रेस की कमान जाट जाति के नेता चौधरी चरण सिंह के हाथों में आयी तब राजनीति में भी यादवों की दशा-दिशा बदल गयी। जब कांग्रेस में चरण सिंह का वर्चस्व बढ़ा तब यादव महासभा के नेता एक बार फिर चौधरी रामगोपाल सिंह यादव के नेतृत्व में वही अनुरोध लेकर चरण सिंह के पास भी पहुंचे। सुखराम सिंह यादव बताते हैं, चरण सिंह जाट होने के बावजूद यादवों से प्यार करते थे, यादवों को सम्मान देते थे। यादवों के प्रति चरण सिंह के मन में काफी स्नेह था। मिलने आये यादव महासभा के प्रतिनिधिमंडल से चरण सिंह ने कहा कि कांग्रेस में अभी उनका वर्चस्व इतना बढ़ा नहीं है कि वे जिसे चाहें उसे टिकट दिलवा सकें। लेकिन, चरण सिंह ने यादवों को एक ऐसा सुझाव दिया जिससे राजनीति में बड़ी मजबूती से वे अपने कदम जमाने में कामयाब हुए। चरण सिंह ने यादव नेताओं से कहा कि जिस किसी पार्टी से टिकट मिले यादवों को उस पार्टी से चुनाव लड़ना चाहिए। यादवों की संख्या इतनी ज्यादा है कि वे जब किसी भी उम्मीदवार को जीता सकते हैं तो अपने खुद के समाज के उम्मीदवार को क्यों नहीं। चौधरी चरण सिंह का सुझाव मानकर यादवों ने उस चुनाव में अलग-अलग पार्टियों के टिकट पर विधानसभा का चुनाव लड़ा। नतीजा ये रहा कि पहली बार एक नहीं बल्कि कई यादव चुनाव जीतकर उत्तरप्रदेश विधानसभा में पहुंचे। चरण सिंह का सुझाव मानने की वजह से उस बार कुल 26 यादव; विधायक बनकर विधानसभा पहुंचे थे। इस शानदार और ऐतिहासिक जीत से यादवों का मनोबल बढ़ा और राजनीति में उनका दमदार प्रवेश भी हुआ।
बड़ी बात ये भी है कि सुखराम सिंह के ताऊ चौधरी रामगोपाल यादव और पिता हरमोहन सिंह यादव के कहने पर ही चरण सिंह ने मुलायम सिंह यादव को अपनी पार्टी लोकदल की उत्तरप्रदेश इकाई का अध्यक्ष बनाया था। चौधरी रामगोपाल सिंह यादव समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक गुरु थे।
ताऊ ने वकील बनवाकर डाली थी राजनीतिक जीवन की बुनियाद : महत्वपूर्ण बात ये भी है कि चौधरी रामगोपाल सिंह यादव ने सुखराम सिंह यादव को न सिर्फ राजनीति में आने के लिए प्रेरित किया बल्कि उसके लिए पुख्ता ज़मीन भी तैयार की। जब वे सुखराम सिंह यादव को अपना पीए बनाकर दिल्ली लाये थे तभी से उन्होंने अपने भतीजे को राजनीति के दांव-पेंच सिखाना शुरू कर दिया था। रामगोपाल सिंह यादव को लगा कि दिल्ली में रहकर सुखराम सिंह ज्यादा कुछ नहीं सीख पाएंगे, इसीलिए उन्होंने उन्हें वापस उत्तरप्रदेश भेजने का मन बनाया। सुखराम को वापस कानपुर भिजवाने के पीछे भी एक ख़ास रणनीति थी। कुछ महीनों तक अपने साथ दिल्ली में रखने के बाद रामगोपाल सिंह यादव ने सुखराम सिंह को राजनीति में आगे बढ़ने के लिए वकालत करने की सलाह दी थी। वकालत करने की सलाह सुनकर युवा सुखराम सिंह सकपका गए थे। कुछ कारणों से सुखराम सिंह को वकालती का पेशा नापसंद था। उन्हें मालूम था कि वकील को अपने मुव्वकिलों से फीस मांगनी पड़ती है। सुखराम सिंह को किसी से कुछ माँगना बिलकुल पसंद नहीं था। उनकी प्रवित्ति ही कुछ ऐसी थी कि वे किसी से कुछ मांग नहीं सकते थे। अपने ताऊ और पिता की तरह ही लोगों की हर मुमकिन मदद करना सुखराम सिंह की सबसे बड़ी खूबी है। सुखराम सिंह ने ताऊ को अपने मन की बात बता दी। सुखराम सिंह ने कहा कि उन्हें वकालत का काम सबसे खराब काम लगता है। इस काम में मुव्वकिलों से फीस मांगनी पड़ती है। और, लोगों से कुछ माँगना उनके लिए संभव नहीं है। अपने युवा भतीजे की मन:स्थिति को जानकार रामगोपाल सिंह यादव ने वकालत से होने वाले फायदे के बारे में समझाया। रामगोपाल सिंह यादव ने कहा, “ऐसा नहीं है कि वकालत खराब काम है। ज़रूरी नहीं कि तुम्हें फीस मांगनी पड़े। अगर तुम अच्छे से वकालत करोगे तो लोग खुदबखुद आकर फीस दे जाएंगे और तुम्हें किसी से फीस मांगने की ज़रुरत ही पड़ेगी।” सुखराम सिंह यादव के मुताबिक, रामगोपाल सिंह यादव ने ये भी कहा था कि, मैं जानता हूँ कि वकील की जवानी और वेश्या का बुढ़ापा बहुत खराब होता है। लेकिन, मैं तुम्हें भरोसा देता हूँ कि मेरे प्रभाव की वजह से तुम्हारा काम अच्छा चलेगा और तुम्हारी जवानी खराब नहीं जाएगी।” इतना ही नहीं ताऊ ने सुखराम को ये भी भरोसा दिया कि जब तक वकालत अच्छे से चल नहीं जाती तब तक वे हर महीने उन्हें 500 रुपये दिया करेंगे,जिससे उन्हें अपना कामकाज करने में कोई तकलीफ न हो। दिल्ली से वापस कानपुर भेजते वक्त भावुक हुए रामगोपाल सिंह यादव ने अपने प्यारे भतीजे को नयी टितोनी घड़ी भी भेंट की थी।
ताऊ का भरोसा और आशीर्वाद लेकर कानपुर लौटे सुखराम ने उस ज़माने के मशहूर वकील सरदार महेंदर सिंह से वकालत का काम सीखना शुरू किया। सरदार महेंदर सिंह फौजदारी के वकील थे और उनकी गिनती उत्तरप्रदेश के सबसे बड़े और काबिल वकीलों में होती थी। सरदार महेंदर सिंह के यहाँ काम करते हुए सुखराम सिंह यादव को बहुत कुछ सीखने और समझने को मिला। शुरू से ही पढ़ाई-लिखाई में तेज तो थे ही, जल्दी से सीख लेने का हुनर होने की वजह से भी सुखराम बहुत ही कम समय में कानूनी मामलों के जानकार बन गए। खुद से वकालत शुरू करने के कुछ ही महीनों में बतौर वकील सुखराम सिंह की लोकप्रियता और ख्याति चारों ओर फैलने लगी। लोग दूर-दूर से अपनी फ़रियाद लेकर सुखराम सिंह के पास पहुँचने लगे। उनका दफ्तर हमेशा मुव्वकिलों से भरा रहता। कोर्ट-कचहरी के छुट्टी वाले दिन भी उनके पास फरियादियों की लम्बी कतार रहती। लोगों को भरोसा हो गया था कि अगर उनका केस सुखराम सिंह यादव लड़ेंगे तो उन्हें इंसाफ मिलेगा। सुखराम सिंह यादव ने कई तरह के मुकदमे लड़े। क़त्ल, डकैती, लूट-पाट जैसे मामलों में भी उन्होंने लोगों को इंसाफ दिलाया।
जैसा कि उनके ताऊ चाहते भी थे सुखराम सिंह यादव के अच्छे और बड़े वकील बनने की वजह से उनका जन-संपर्क काफी था। वे हमेशा लोगों के बीच ही रहते थे। लोगों के साथ रहने की वजह से ही वे सभी वर्ग के लोगों के दुःख-दर्द और समस्याओं को भी अच्छी तरह से समझने लगे थे। ज़रूरतमंद और गरीब लोगों की मदद करना उनकी आदत बन गयी थी। कानपुर ही नहीं बल्कि आसपास के शहरों और दूसरे इलाकों में भी उनका काफी रुतबा हो गया था। समाज में लोगों के बीच मिली लोकप्रियता और प्रसिद्धि को ध्यान में रखते हुए ही मुलायम सिंह यादव ने सुखराम सिंह को 1990 में उत्तरप्रदेश विधानपरिषद का सदस्य बनाया। इतना ही नहीं मुलायम सिंह यादव ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में भी जगह दी। सुखराम सिंह यादव को लोकनिर्माण विभाग का राज्य मंत्री बनाया गया। चूँकि वे कानून के भी बड़े जानकार थे नेताजी ने सुखराम सिंह को संसदीय-कार्य राज्य मंत्री का भी जिम्मा सौंपा।
बतौर मंत्री भी सुखराम सिंह यादव ने खूब नाम कमाया। उनके काम करने की शैली आम राजनेता की तरह नहीं थी। वे हमेशा लोगों के बीच रहते, लोगों की समस्याएं जानने की कोशिश करते और अपनी सारी ताकत इन्हीं समस्याओं को दूर करने में लगा देते। बतौर मंत्री सुखराम सिंह यादव के नाम एक अनूठा कीर्तिमान भी है। मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्रित्व-काल में सुखराम सिंह 4 दिसम्बर, 1993 से 3 जून, 1995 तक मंत्री रहे। इस कार्य-काल के दौरान उन्होंने अन्य सभी मंत्रियों की तुलना में सबसे ज्यादा दौरे किये। सबसे ज्यादा आधिकारिक दौरों के बावजूद दौरों की वजह से हुआ उनका खर्च अन्य सभी मंत्रियों की तुलना में सबसे कम था। सुखराम सिंह की ये कार्य-शैली आज भी सभी विधायकों और मंत्रियों के लिए आदर्श और मानक मानी जाती है।
सुखराम सिंह यादव पहली बार 19 मई, 1990 से 18 मई, 1996 तक कानपुर-फतेहपुर स्थानीय प्राधिकारी निर्वाचन क्षेत्र से उत्तर प्रदेश विधान परिषद् के सदस्य रहे। दूसरी बार भी वे इसी निर्वाचन क्षेत्र से विधान परिषद के लिए चुने। अगस्त 2004 में वे उत्तरप्रदेश विधान परिषद के सभापति चुने गए। जिस दिन सुखराम सिंह यादव विधानपरिषद के सभापति चुने गए उस दिन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने सभी प्रमुख राजनैतिक पार्टियों के नेताओं के बीच कहा था कि सुखराम सिंह यादव कानून के जानकार हैं, पेशे के वकील हैं और इसीलिए उन्हें विधानपरिषद का सभापति बनाया जा रहा है।
सुखराम सिंह यादव कहते हैं कि वकील बनने का फायदा उन्हें उनके राजनीतिक जीवन में कई बार मिला और अब भी मिल रहा है। हकीकत तो ये भी है कि राजनीति में आने की एक बड़ी वजह वकील के रूप में काफी लोकप्रिय होना भी है। वे जोर देकर कहते हैं कि ताऊ राम गोपाल सिंह यादव ही उनके राजनीतिक गुरु हैं। उनकी दूरदर्शिता का ही नतीजा है कि वे राजनीति में पायदान-दर-पायदान ऊपर चढ़ते हुए राज्यसभा तक आ पहुंचे हैं।
फाइलेरिया के डर से डॉक्टर बनने से रह गए थे सुखराम सिंह यादव : दिलचस्प बात ये भी है ताऊ अपने प्यारे भतीजे सुखराम सिंह यादव को डॉक्टर बनाना चाहते थे। उन दिनों समाज में डॉक्टरों का रुतबा काफ़ी बड़ा होता था। सभी लोग डॉक्टरों को, ख़ास तौर पर एलॉपथी के डॉक्टरों को, खूब सम्मान देते थे। वैसे भी यादव समाज से बहुत ही कम लोग डॉक्टर बने थे। यादव समुदाय से डॉक्टर बने लोगों की गिनती उंगिलयों पर की जा सकती थी। शायद यही वजह भी थी कि रामगोपाल सिंह यादव अपने भतीजे को डॉक्टर बनाना चाहते थे। रामगोपाल सिंह यादव ने पहले तो अपने भतीजे का दाखिला सैनिक स्कूल में करवाने की कोशिश की लेकिन जब ये नहीं हो पाया तब उन्होंने एक अच्छे स्कूल में उनका दाखिला करवाया। इंटर में सुखराम सिंह से विज्ञान की पढ़ाई करवाई। इसके बाद वे उनका दाखिला एमबीबीएस कोर्स में करवाने के लिए उन्हें बिहार के मुज्ज़फरपुर ले गए। उन दिनों बिहार का एक मात्र प्राइवेट मेडिकल कॉलेज मुज्ज़फरपुर में ही था। रामगोपाल सिंह यादव को पूरा भरोसा था कि उनके रुतबे की वजह से उनके भतीजे को मुज्ज़फरपुर के मेडिकल कॉलेज में सीट दे दी जाएगी। उस समय बिहार के मुख्यमंत्री दरोगाप्रसाद राय भी यादव ही थे और रामगोपाल सिंह यादव की गिनती देश के सबसे बड़े यादव नेताओं में होती थी। एमबीबीएस कोर्स में सुखराम सिंह का दाखिला करवाने के मकसद से रामगोपाल यादव पटना पहुंचे। उन्होंने सभी प्रभावशाली लोगों से बात की और सुखराम सिंह की मेडिकल कॉलेज में सीट पक्की भी हो गयी। इसी बीच बिहार के कई सारे यादव नेता रामगोपाल सिंह यादव से मिलने के लिए पटना पहुंचे। इन यादव नेताओं को ये जानकार बहुत खुशी हुई कि रामगोपाल सिंह यादव अपने भतीजे का दाखिला बिहार के एक मेडिकल कॉलेज में करवाने जा रहे हैं। सभी यादव नेताओं ने रामगोपाल सिंह को बधाई और धन्यवाद दिया। लेकिन, एक यादव ने हिदायत ही कि सुखराम सिंह को मुज्ज़फरपुर में फाइलेरिया से बचाना चाहिए। रामगोपाल सिंह यादव मुज्ज़फरपुर में फाइलेरिया के प्रकोप के बारे में नहीं जानते थे। उन्होंने यादव नेताओं से जानना चाहा कि आखिर ये फाइलेरिया है क्या और कैसे इससे लोग परेशान होते हैं। तब यादव नेताओं ने रामगोपाल सिंह यादव को बताया कि मच्छरों और मक्खियों की वजह से फाइलेरिया होता है और फाइलेरिया होने पर आदमी के पैर मोटे-मोटे हो जाते हैं। ये बात सुनकर रामगोपाल यादव का माथा चकरा गया और उन्होंने ऐलान कर दिया कि वे सुखराम सिंह को वापस उत्तरप्रदेश ले जाएंगे। सुखराम सिंह बताते हैं कि उस दिन उनके ताऊ ने यादव नेताओं ने कहा था – “मैं अपने भतीजे को डॉक्टर बनाना चाहता हूँ न कि मरीज।” रामगोपाल सिंह यादव के तीन बेटे थे। उनके छोटे भाई हरमोहन सिंह यादव के पांच बेटे थे, यानी रामगोपाल सिंह यादव के पांच भतीजे थे। इन आठ लड़कों में रामगोपाल सिंह यादव सबसे ज्यादा लाड़-प्यार सुखराम सिंह को ही करते थे जोकि उनके छोटे भाई के चौथे लड़के थे। रामगोपाल सिंह यादव ने शरू से ही सुखराम सिंह को अपने साथ रखा और वो सब बातें बतायी और समझायी जिसके बारे में वे जानते थे। सुखराम सिंह से भी रामगोपाल सिंह को बहुत उम्मीदें थीं। उन्हें पूरा भरोसा था कि वे उनकी सामाजिक और राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाएंगे। यही वजह भी थी कि रामगोपाल सिंह ने ये सुनिश्चित किया कि उनका भतीजा खूब पढ़ाई-लिखाई करें। सुखराम की सारी शिक्षा उनके ताऊ की देख-रेख में ही हुई। सुखराम ने कभी भी अपने ताऊ को निराश नहीं किया। आगे चलकर वे अपने पूरे खानदान में ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी कर डिग्री लेने वाले पहले व्यक्ति बने। सुखराम से पहले उनके घर-परिवार का कोई भी व्यक्ति डिग्री नहीं ले पाया था। मजेदार बात ये भी है गाँव के एक व्यक्ति ने ये भविष्यवाणी की थी कि रामगोपाल सिंह के परिवार को कोई भी व्यक्ति ग्रेजुएट नहीं बन सकता है। जब सुखराम ग्रेजुएट बने तब ताऊ ने उनसे उस शख्स से जाकर मिलने को कहा था जिसने ये भविष्यवाणी की थे कि उनके परिवार का कोई भी व्यक्ति ग्रेजुएट नहीं बन सकता है।
बड़े-बड़े राजनेताओं के गुरु थे रामगोपाल सिंह यादव : रामगोपाल सिंह यादव ने न सिर्फ अपने भतीजे सुखराम सिंह यादव को राजनीति के गुर सिखाये बल्कि उनके पिता हरमोहन सिंह को भी उन्होंने ही राजनीति में लाया था। रामगोपाल सिंह अपने ज़माने के बहुत बड़े सामाजिक कार्यकर्ता थे। समाजवादी पार्टी के संस्थापक और उत्तरप्रदेश की राजनीति को नयी दिशा देने वाले मुलायम सिंह यादव के भी गुरु रहे हैं रामगोपाल सिंह यादव। देश-भर में यादवों को संगठित करने और उनमें राजनीतिक चेतना लाने में रामगोपाल सिंह यादव की महत्वपूर्ण भूमिका है। अखिल भारतीय यादव महासभा के ज़रिये उन्होंने देश-भर के यादवों को एक मंच पर लाया और उन्हें अलग-अलग क्षेत्रों में प्रवेश करने और अपना स्थान मज़बूत बनाने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित किया।
रामगोपाल सिंह यादव का जीवन संघर्षों से भरा था। उनके पिता चौधरी धनीराम यादव किसान थे और माँ पार्वती गृहिणी। जब रामगोपाल सिंह की उम्र 22 साल थी तभी उनके पिता का निधन हो गया। घर-परिवार को चलाने की सारी ज़िम्मेदारी रामगोपाल सिंह के युवा कंधों पर आ पड़ी। माँ, तीन बहनों और एक भाई की सारी ज़रूरतों को पूरा करने का भार रामगोपाल सिंह पर था। वे कभी चुनौतियों से घबराए नहीं और हमेशा धैर्य के साथ काम लिया। घर के बड़े बेटे होने के नाते उन्होंने अपनी सारी जिम्मेदारियों का बखूबी निर्वहन किया। युवा-अवस्था में ही वे राजनीति में भी सक्रीय हो गए। उनपर चौधरी चरण सिंह का काफी प्रभाव रहा। अखिल भारतीय यादव महासभा को एक मज़बूत और प्रभावशाली संगठन बनाने में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही।
आपातकाल के बाद हुए लोकसभा चुनाव में रामगोपाल सिंह ने उत्तरप्रदेश की बिल्हौर सीट से जनता पार्टी के टिकट चुनाव लड़ा और जीत गए। सांसद बनकर रामगोपाल सिंह यादव 1977 में दिल्ली पहुंचे थे। उन्होंने अपने छोटे भाई हरमोहन सिंह को भी राजनीति के गुर सिखाये। इतना ही नहीं अपने परिवार के दूसरे लोगों के अलावा भी उन्होंने यादव समुदाय के कई लोगों को राजनीति में लाया।
मुलायम सिंह यादव को चरण सिंह की पार्टी लोकदल की उत्तरप्रदेश इकाई का अध्यक्ष बनाने में रामगोपाल सिंह यादव की ही सबसे बड़ी भूमिका थी। रामगोपाल सिंह और उनके छोटे भाई हरमोहन सिंह ने ही चरण सिंह से मुलायम सिंह को लोकदल का अध्यक्ष बनाने की सिफारिश की थी। दोनों भाइयों का मानना था कि मुलायम सिंह यादव युवा हैं, जोशीले हैं और उनमें एक अच्छे नेता के सारे गुण हैं और इसी वजह से उन्हें अगर उत्तरप्रदेश इकाई का अध्यक्ष बनाया जाता है तो लोकदल मज़बूत होगा। यादव भाइयों के सुझाव को मानते हुए चरण सिंह ने आजमगढ़ के रामबघन यादव को हटाकर मुलायम सिंह यादव को उत्तरप्रदेश इकाई का मुखिया बना दिया था। इसके बाद मुलायम सिंह यादव की ताकत और राजनीतिक हैसियत लगातार बढ़ती ही चली गयी। राम नरेश यादव के मुख्यमंत्रित्व-काल में सहकारिता मंत्री रहे मुलायम सिंह यादव ने आगे चलकर अपनी खुद की समाजवादी पार्टी बनाई और तीन बार उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री बने। वे देश के रक्षा मंत्री भी बने। रामगोपाल सिंह यादव और हरमोहन सिंह यादव की सिफारिश का ही नतीजा था कि युवावस्था में ही मुलायम सिंह यादव को बड़ी ज़िम्मेदारी मिल गयी थी और इसी से उनके लम्बे और गौरवशाली राजनीतिक जीवन की मज़बूत बुनियाद पड़ी थी। एक मायने में मुलायम सिंह यादव को ‘नेताजी’ बनाने में रामगोपाल सिंह यादव और हरमोहन सिंह यादव की ही सबसे महत्वपूर्ण भूमिका थी। यही वजह भी है कि मुलायम सिंह यादव, यादव बधुओं - रामगोपाल और हरमोहन की बहुत इज्ज़त करते थे। दोनों भाइयों पर मुलायम सिंह का विश्वास अटूट था। वे अब भी रामगोपाल और हरमोहन के परिवार के सभी सदस्यों को अपने परिवार का ही हिस्सा मानते हैं।
महत्वपूर्ण बात ये भी है कि जब चौधरी चरण सिंह के बेटे अजित सिंह ने खुद को अपने पिता का राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित किया तब लोकदल में फूट पड़ी थी। उस समय मुलायम सिंह लोकदल से अलग हो गए थे। उस समय भी हरमोहन सिंह ने मुलायम सिंह यादव का ही साथ दिया था। वो समय मुलायम सिंह के लिए बड़ी चुनौतियों वाला दौर था। उनका राजनीतिक जीवन दांव पर था। ऐसे समय हरमोहन सिंह जैसे बड़े नेता से मिले समर्थन ने उनका हौंसला बुलंद किया था। उस मदद को मुलायम सिंह यादव कभी भी भूल नहीं सकते हैं। मुलायम सिंह यादव जहाँ रामगोपाल सिंह यादव को अपना गुरु मानते हैं वहीं वे हरमोहन सिंह यादव को अपना गुरु-भाई मानते थे।
बड़े साहब से आगे निकले छोटे साहब: यादव बंधुओं - रामगोपाल सिंह यादव और हरमोहन सिंह यादव की जोड़ी बड़े साहब और छोटे साहब के नाम से मशहूर हुई। सभी लोग सम्मान से रामगोपाल सिंह को बड़े साहब और हरमोहन सिंह को छोटे साहब कहते थे। नेताजी मुलायम सिंह यादव भी दोनों बंधुओं को इसी नाम से बुलाते थे। बड़े साहब की तुलना में छोटे साहब का राजनीतिक सफ़र काफी लम्बा और रोचक रहा। हरमोहन सिंह ने अपने राजनीतिक सफ़र की शुरूआत ग्राम प्रधान बनकर शुरू की थी। साल 1952 में वे गुजैनी गाँव के प्रधान बने। आगे चलकर वे उत्तरप्रदेश विधान परिषद के सदस्य भी बने। तीन बार वे विधान परिषद के सदस्य चुने गए। जनतादल के उम्मीदवार के तौर पर वे राज्यसभा के लिए भी चुने गए। साल 1990 में हरमोहन सिंह सांसद बने थे। 1996 तक उनका पहला कार्यकाल रहा। साल 1997 में वे दुबारा राज्यसभा पहुंचे। इस बार राष्ट्रपति ने उन्हें राज्यसभा के लिए मनोनीत किया था। उन्होंने साल 2003 तक मनोनित राज्यसभा सदस्य के रूप में देश को अपनी सेवाएं दीं। इस दौरान हरमोहन सिंह ने एक बार लोकसभा का भी चुनाव लड़ा था लेकिन वे कामयाब नहीं हो पाए थे।
हरमोहन सिंह ने अपने राजनीतिक सफ़र में कानपुर जिला-परिषद, कानपुर नगरपालिका, कानपुर नगर निगम, जिला सहकारी बैंक, उत्तरप्रदेश भूमि विकास बैंक जैसी बड़ी और महत्वपूर्ण संस्थाओं में भी अलग-अलग महत्वपूर्ण ओहदों पर काम करते हुए उत्तरप्रदेश के विकास में अपनी महती भूमिका अदा की। एक सामाजिक कार्यकर्त्ता के नाते भी वे काफी सक्रीय रहे। हरमोहन सिंह काफी लम्बे समय तक अखिल भारतीय यादव महासभा से भी जुड़े रहे। उन्होंने इस संगठन को काफी विस्तार दिया। हरमोहन सिंह के नेतृत्व में यादव महासभा से समाज के लोगों के सर्वांगीण विकास के लिए देश-भर में कई कार्यक्रमों का भी आयोजन किया।
एक समाज-सेवी, सामाजिक कार्यकर्त्ता, राजनेता, जन-नेता औए शिक्षाविद के रूप में हरमोहन सिंह की ख्याति भारत-भर में फ़ैली। किसानों और ग्रामीण जनता के हितों की रक्षा के लिए उन्होंने कई आन्दोलन किये। आपातकाल के दौरान उन्हें जेल में भी बंद किया गया। हरमोहन सिंह राम मनोहर लोहिया और चौधरी चरण सिंह से काफी प्रभावित रहे। इन दोनों बड़े नेताओं के प्रभाव में ही उन्होंने भारत में नयी समाजवादी क्रांति लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने शुरू से लेकर अंत तक हमेशा मुलायम सिंह यादव का साथ दिया।
ग्राम प्रधान से राज्यसभा सदस्य तक का राजनीतिक सफ़र तय करने वाले हरमोहन सिंह के जीवन के कई सारे पहलू काफी दिलचस्प हैं। साल 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद जब देश-भर में सिख विरोधी दंगे होने लगे थे तब हरमोहन सिंह ने कानपुर में अदम्य साहस का परिचय देते हुए सिखों की रक्षा की थी। हरमोहन सिंह अपनी जान की परवाह किये बिना दंगाइयों से सामने आ खड़े हुए थे। उन्होंने दंगाइयों को भगाने के लिए हवा में गोलियां भी चलायी थीं। उन्होंने अपने शहर कानपुर में एक भी सिख को दंगों का शिकार होने नहीं दिया। सिखों की जान बचाने में हरमोहन सिंह को उनके बेटे सुखराम सिंह यादव और उनके एक दोस्त का बखूबी साथ मिला था। जिस तरह से अपनी जान जोखिम में डालकर हरमोहन सिंह यादव ने साल 1984 में कानपुर में सिखों की जान बचाई थी उस अदम्य साहस को सलाम करते हुए भारत सरकार ने उन्हें 'शौर्य चक्र' से सम्मानित किया था। उनके बेटे सुखराम सिंह यादव को भी 'अशोक चक्र' देने की सिफारिश की गयी थी, लेकिन उनकी फाइल अब भी भारत सरकार के पास पेंडिंग पड़ी हुई है। हरमोहन सिंह की वजह से ही कानपुर शहर और उसके आसपास के इलाके हमेशा दंगों की आग से बचे रहे। जब भी उत्तरप्रदेश में दंगे भड़के उसकी आग कानपुर को छू तक नहीं पायी। हिन्दू-मुस्लिम दंगों के दौरान भी अपनी जान पर खेलकर हरमोहन सिंह और उनके परिवारवालों ने मुसलामानों की रक्षा की। यही वजह है कि कानपुर और उसके आसपास के इलाकों में मुसलमान और सिख लोग हरमोहन सिंह और उनके परिवारवालों को बहुत सम्मान देते हैं।कानपुर और आसपास के इलाकों में साम्प्रदायिक सौहार्द बनाये रखने में हरमोहन सिंह और उनके परिवार ने अपना बहुत कुछ न्योछावर किया है। क्षेत्र के विकास में भी इस परिवार ने अपनी ओर से कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ी।
शिक्षा के क्षेत्र में हरमोहन सिंह ने बहुत काम किया। गरीब लोग शिक्षा से वंचित न रहें, इस मकसद से उन्होंने कानपुर में कई सारे शिक्षा संस्थान खोले। आगे चलकर उनके परिवारवालों ख़ास तौर पर उनके बेटे सुखराम सिंह ने इन संस्थाओं को विस्तार देने के अलावा और भी कई नए शिक्षा संस्थान खोले।
देश की सबसे छोटी प्रजातांत्रिक पंचायत यानी ग्राम सभा से सबसे बड़ी पंचायत यानी संसद तक पहुंचे हरमोहन सिंह यादव का जीवन प्रेरणादायक है। उनके जीवन में आदर्श-मूल्य हैं, सेवा-भावना है। लोगों की जान बचाने के लिए खुद की जान जोखिम में डालने का मज़बूत ज़ज्बा है। सभी जाति-धर्म के लोगों के प्रति समान प्यार और आदर है। उन्होंने अपना जीवन गरीब लोगों के विकास और कल्याण के लिए समर्पित किया है। देश के लिए कई कुर्बानियां उन्होंने दी हैं। उनके जीवन से सीखने के लिए बहुत कुछ है।
जानलेवा हमले में बाल-बाल बचे मुलायम सिंह से मिलने सबसे पहले पहुंचे थे छोटे साहब : मुलायम सिंह यादव पर 7 मार्च, 1984 को जानलेवा हमला हुआ था। इस हमले में मुलायम सिंह यादव बाल-बाल बच निकले थे। जब ये हमला हुआ था तब मुलायम सिंह उत्तरप्रदेश विधान परिषद में विपक्ष के नेता थे। सुखराम सिंह सिंह ने बताया कि हमलावरों ने मुलायम सिंह यादव की जीप पर ताबड़तोड़ गोलियां दागी थीं। इस हमले में मुलायम सिंह के सुरक्षाकर्मी बुरी तरह से ज़ख़्मी हुए थे। हमले में मुलायम सिंह के कुछ साथियों की मौत भी हो गयी थी। मुलायम सिंह यादव अपने साहस की वजह से जान बचाने में कामयाब रहे थे। जैसे ही इस घटना की जानकारी चौधरी हरमोहन सिंह को मिली वे अपने पुत्र सुखराम सिंह और एक साथी दुखीलाल को साथ लेकर मुलायम सिंह से मिलने इटावा निकल पड़े। हमले के बाद मुलायम सिंह से मिलने वाले वे पहले नेता थे। हरमोहन सिंह ने मुलायम सिंह को हिम्मत न हारने और हर राजनीतिक साज़िश को नाकाम करने के लिए सूझबूझ से काम करने की सलाह दी। इतना ही नहीं जीवन के हर मुकाम और पड़ाव पर उनका साथ देने का भरोसा दिया। इस भरोसा के बाद मुलायम सिंह की हिम्मत बढ़ी और वे जानलेवा हमले से लगे सदमे से उबरने में कामयाब हुए। मुलायम सिंह को सुरक्षित दिल्ली भिजवाने के बाद हरमोहन सिंह कानपुर लौट आये थे।
कभी किसी से नहीं डरे मुलायम सिंह : चौधरी सुखराम सिंह यादव ने कहा कि शुरू से ही मुलायम सिंह यादव साहसी और जनसेवी सामाजिक और राजनीतिक नेता रहे हैं। उन्होंने लोगों की मदद करने में अपनी जान की भी परवाह नहीं की है। अपनी बात को बल देने के मकसद से सुखराम सिंह यादव ने एक घटना सुनाई जिसे बहुत कम लोग जानते हैं। घटना उस समय की है जब जालौन जिले की माधवगढ़ सीट के लिए उपचुनाव हो रहा था। मुलायम सिंह यादव इलाके में प्रचार कर रहे थे। इसी दौरान उन्हें खबर मिली की पास ही के एक गाँव में डकैतों ने हमला बोल दिया है। मुलायम सिंह यादव ने तुरंत लोगों को संगठित किया और उस गाँव की तरफ निकल पड़े जिस गाँव में डकैती पड़ी थी। अपने कई सारे समर्थकों के साथ गाँव में पहुंचे मुलायम सिंह को देखते ही सारे डकैत घबरा कर वहां से भाग निकले थे। मुलायम सिंह के इसी साहस, नेतृत्व-श्रमता और संगठन-कौशल की वजह से कई लोगों की जान और उनकी धन-संपत्ति की हिफाज़त हो पायी थी। ऐसा ही काम मुलायम सिंह ने अपनी जीवन में कई बार किया और लोगों की मदद के लिए कभी भी पीछे नहीं हटे और अपने जान की भी परवाह नहीं की।
ताऊ और पिता की गौरवशाली विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं चौधरी सुखराम सिंह : अपने ताऊ सांसद रामगोपाल सिंह यादव का पीए बनकर राजनीति के गुर और दांवपेंच सीखना शुरू करने वाले सुखराम सिंह यादव इन दिनों सांसद हैं। वे समाजवादी पार्टी से राज्यसभा सदस्य हैं। उनका कार्यकाल 2020 तक का है। वे बताते हैं कि जब वे पहली बार अपने ताऊ के पीए के तौर पर संसद पहुंचे थे तब उन्होंने ये सोचा भी न था कि वे भी एक दिन सांसद बनकर दिल्ली और संसद आएंगे। ताऊ उनके लोकसभा के सदस्य रहे। पिता उनके दो बार राज्यसभा पहुंचे। पहली बार चुनकर और दूसरी बार मनोनीत होकर। साल 2017 जब चुनाव जीतकर सुखराम सिंह यादव राज्यसभा पहुंचे तब उन्हें अपनी भावनाओं पर काबू कर पाना बहुत मुश्किल हो रहा था। उनके कंधों पर अपने ताऊ और पिता की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने की ज़िम्मेदारी आ गयी थी। वैसे तो वे विरासत को अपने हाथों के ले चुके थे लेकिन सांसद बनने के बाद उनकी जिम्मेदारियां और भी बढ़ गयीं। अपने ताऊ और पिता की ही तरह चौधरी सुखराम सिंह यादव का विशेष ध्यान ग्रामीण विकास और किसानों के हितों की रक्षा में ही रहता है। शिक्षा को भी वे काफी महत्त्व देते हैं। उन्होंने अपने ताऊ की याद में अपने पैतृक गाँव मेहरबान सिंह का पुरवा में चौधरी रामगोपाल सिंह विधि महाविद्यालय की स्थापना की। उन्होंने अपने पिता और माता के नाम से भी शिक्षण संस्थाएं शुरू की हैं। वे चौधरी रामगोपाल सिंह विधि महाविद्यालय के अलावा शिवलोक महिला महाविद्यालय, शिवलोक साधना कक्ष पीजी कॉलेज, चौधरी हरमोहन सिंह एजुकेशन सेंटर इंटर कॉलेज, श्रीमती गया कुमारी यादव कन्या इंटर कॉलेज, चौधरी रामगोपाल सिंह यादव इंटर कॉलेज, चौधरी बलवंत सिंह इंटर कॉलेज, चौधरी हरमोहन सिंह पैरामेडिकल साइंसेज एंड नर्सिंग इंस्टिट्यूट, जीके पब्लिक स्कूल जैसे शिक्षण संस्थाओं का सफलतापूर्वक चलाते हुए हर साल हज़ारों बच्चों को शिक्षित करने का काम कर रहे हैं। समाज-सेवा के मामले में भी चौधरी सुखराम सिंह किसी ने पीछे नहीं है। वे समाज-सेवा से जुड़े कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं और अपने पिता के नाम पर एक वृद्धाश्रम भी चला रहे हैं। अपने ताऊ और पिता की इच्छा के मुताबिक ही चौधरी सुखराम सिंह यादव ने यादव महासभा से भी खुद को सक्रीय रूप से जोड़े रखा हुआ है। वे लम्बे समय से यादव महासभा के राष्ट्रीय महामंत्री हैं और उन्होंने देश के हर हिस्से में बसे यादवों के विकास के लिए कई कार्यक्रम शुरू करवाएं हैं। चौधरी सुखराम चाहते हैं कि यादव समाज का हर व्यक्ति शिक्षित हो। वे मानते हैं कि जब तक लोग शिक्षित नहीं होंगे तब वे ये सही तरह से समझ नहीं पाएंगे कि समाज में उनकी स्थिति और परिस्थिति कैसी है। एक और बात है जो वे काफी जोर देकर कहते हैं। वे कहते हैं कि लड़कों के साथ-साथ लड़कियों को भी शिक्षित करना बहुत ज़रूरी है। अगर लड़की शिक्षित होगी तो उसकी वजह से दो परिवार शिक्षित होंगे – एक उसका खुद का परिवार और दूसरा उसका ससुराल। चौधरी सुखराम सिंह इस बार पर अफ़सोस जाहिर करते हैं कि भारत में अब भी वर्ण-व्यवस्था समाप्त नहीं हुई है। भारतीय समाज अब भी ब्राह्मण, वेश्य, क्षत्रीय और शूद्र वर्णों में बंटा हुआ है। इस वर्ण-व्यवस्था को समाप्त करने के लिए हर व्यक्ति का शिक्षित होना बेहद ज़रूरी है।