Brands
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
ADVERTISEMENT
Advertise with us

भारतीय राजनीति में भाषा के गिरते हुए स्तर का जिम्मेदार कौन

Tuesday December 29, 2015 , 8 min Read

टीम वाईएसहिंदी

लेखकः आशुतोष

अनुवादकः निशांत गोयल


श्री अरुण जेटली ने एक फेसबुक पोस्ट लिखी है जिसका प्रारंभ उन्होंने संसद में जीएसटी को लेकर चल रहे गतिरोध के साथ किया है। लेकिन उनकी यह पोस्ट मुख्यतः राजनीतिक बहस के दौरान भाषा में आ रही गिरावट को उल्लिखित करती है। प्रारंभिक और सैद्धांतिक रूप से सभी राजनीतिक व्यक्तियों को उनके इस विचार का स्वागत करना चाहिये। इस बात में कोई शक नहीं है कि हाल के समय में राजनीिितक बहस का स्तर लगातार गिरता जा रहा है और अधिकतर बहस एक दूसरे की आलोचना के स्थान पर अपशब्दों पर केंद्रित होकर रह गई हैं। असंसदीय भाषा और भावों का प्रयोग इतना आम हो गया है कि इस बात में अंतर करना काफी मुश्किल हो गया है कि क्या संसदीय है और क्या नहीं। इसे एक प्रकार से राजनीति का ‘मानसिक दिवालियापन’ कहा जा सकता है। जिस प्रकार अपराधी छवि कि लोग निरंतर राजनीति में आ रहे हैं और विभिन्न सरकारों और राजनीतिक दलों में महत्वपूर्ण स्थान पा रहे हैं उसके बाद ऐसा होना कोई अप्रत्याशित नहीं है। साभ्रांतवादी स्पष्टीकरण के रूप में इसे ‘‘हमारी राजनीति के अधीनस्थीकरण’’ का प्रतिफल कह सकते हैं और साथ ही इसका सीधा संबंध ‘‘मुख्यधारा की राजनीति के क्षेत्रीयकरण’’ से भी जोड़ा जा सकता है।

लेकिन आज आवश्यकता एक गहन विश्लेषण और आत्मनिरीक्षण की है। आजादी की लड़ाई के दौरान एक समय ऐसा भी था जब कांग्रेस पार्टी का लगभग पूरा शीर्ष नेतृत्व इंग्लैंड के सर्वश्रेष्ठ काॅलेजों और विश्वविद्यालयों में शिक्षा प्राप्त समाज के एक चुनिंदा तबके से आता था। वे सब बेहतरीन अंग्रेजी संसदीय परंपराओं का अनुसरण करते थे। वे सभीी अंग्रेजी भाषा और संस्कृति से बहुत अच्छी तरह वाकिफ थे और अंग्रेजी विशेषता को आत्मसात कर रहे थे। इसके साथ ही वे एक भाषा और संस्कृति को लेकर आए जो भारतीय परिस्थितियों से विदेशी हाते हुए भी समय के साथ देश के नेतृत्व के लिये एक प्रमाणिक पहचान बन गई। यह परंपरा महात्मा गांधी द्वारा तोड़ी गई जिन्होंने खादी को फैशन बना दिया। विंस्टन चर्चिल उनकी इस पोशाक से बहुत नाराजज रहता था और नफरत से उन्हें ‘आधा नंगा फकीर’ कहकर पुकारता था। हालांकि चर्चिल खुद बहुत ढनाढ्य नहीं था लेकिन वह ठेठ अंग्रेजी शिष्टाचार के माहौल में पैदा हुआ था और उसे अपना सिगार और शाम की ड्रिक से बेहद प्रेम था। गांधीजी बिल्कुल अलग थे। उन्हें इस बात का बहुत अच्छी तरह पता था कि विदेशी कपड़े पहनकर और विदशी भाषा में बातचीत कर जनता के साथ नहीं जुड़ा जा सकता। खादी के साथ उनका प्रयोग बेहद सफल रहा था।

दूसरी तरफ नेहरू अंग्रजों की तरफ अधिक आसक्त थे। अंग्रेजी भाष पर उनकी पकड़ भी बहुत बेहतरीन थी। उन्हें उन सभी को बढ़ावा देना बहुत पसंद था जो उसके साथ उस वातावरण में संवाद कर सकने में कामयाब रहते थे। उनके साथियों में शायद लाल बहादुर शास्त्री इकलौते ऐसे व्यक्ति थे जिनकी परवरिश निचले दर्जे की थी। लेकिन भारतीय राजनीतिक वर्ग की उत्कृष्टा और भाषा की बाधा को सबसे पहले राममनोहर लोहिया ने तोड़ा जिन्हें गैर-कांग्रेसवाद और पिछड़ों की राजनीति का मूल वास्तुकार माना जाता है। उनका प्रवेश और अभिव्यक्ति भारतीय राजनीति में स्थानीयों का पहला परिचय था। इससे पहले कांग्रेस सबसे अधिक प्रभावशाली पार्टी थी जिसका नेतृत्व समाज के ‘ब्राहमण’ करते थे। लोहिया ने कहा, ‘‘जो संख्या मं अधिक हैं उन्हें समाज का नेतृत्व करना वाहिये।’’ उनका यह तर्क सत्तरूढ़ अभिजाम वर्ग की इच्छाओं के विरुद्ध सबसे आदर्श लोकतांत्रित तर्क था। हालांकि वे अपनी पिछड़ों की राजनीति की सफलता को देखने के लिये अधिक समय तक जीवित नहीं रहे लेकिन 90 के दशक के प्रारंभ में मंडल आयोग के लागू होने के साथ ही एक ऐसा नेतृत्व सामने आया जो हर मामले में बिल्कुल अलग था।

लालू, मुलायम, मायावती, कांशीराम, कल्याण सिंह, उमा भारती न तो चांदी की चम्मच लेकर पैदा हुए थे और न ही उनका झुकाव किसी भी प्रकार की सांभ्रांतवादी सुविधाओं के प्रति था। ये सब जमीन से उठकर आज इस मुकाम पर पहुंचे हैं। इन्होंने भारतीय राजनीति में एक नई भाषा को प्रस्तुत किया जो निश्चित रूप से कभी खुद को शासक मानने वाले राजनीतिक समूहों को पसंद नहीं आई। इन समूहों ने लालू, मुलायम और मायावती का मजाक तक बनाया। उनकी भाषा का उपहास उड़ाया गया। ये नेता अभिव्यक्ति के मामले में सांभ्रांत नहीं थे। इनमें से अधिकांश की समस्या अंग्रेजी बोलने से संबंधित थी। इसके अलावा इनके प्रति जातिवादी पूर्वाग्रह भी था। इन्हें ऊंची जातियों और उच्च वर्ग द्वारा अवमानना भी झेलनी पड़ी। भ्रष्टाचार और अक्षमता ने कई पूर्वाग्रहों को सच साबित किया। लेकिन ‘‘कथित शासक समूह’’ के पास इनके ‘‘संख्या आधारित प्रभुत्व’’ को स्वीकार करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था।

मेरा कहने का यह मतलब बिल्कुल भी नहीं है कि शुद्ध भाषाई अर्थ में सिर्फ राजनीति का अधीनस्थीकरण ही भाषा की गिरावट का इकलौता कारण है। लेकिन हां इसके फलस्वरूप बातचीत में एक अलग भाषा का आगाज जरूर हो गया। अंग्रेजी का स्थान स्थानीय भाषा ने ले लिया था। यह नई भाषाई संस्कृति अंग्रेजीभाषी वर्ग के लिये एक आघात की तरह थी। दो समूहों के बीच ‘टकराव’ ने इस मुद्दे को और अधिक जटिल बना दिया। शासक वर्ग के लिये इस नए राजनीतिक वर्ग द्वारा चुनौती पेश किया जाना और प्रतिस्थापित किया जाना बेहद दर्दनाक था। इसने भारतीय राजनीति में गल्तियों की नई संभावनाओं को जन्म दिया। यह बंटवारा अधिक मौलिक था और तीव्र कड़वाहट से भरा था। दोनों समूह एक ही राजनीतिक जमीन के लिये लड़ रहे थे और कोई भी झुकने को तैयार नहीं था। लेकिन संख्याबल उत्तरार्द्ध के पक्ष में था। इसके फलस्वरूप सबसे पहले एक दूसरे के लिये आपसी सम्मान और प्रशंसा की बली चढ़ी। राजनीतिक मतभेद राजनीतिक द ुश्मनी में बदल गए। और बहस का स्थान अपशब्दों ने ले लिया।

आम आदमी पार्टी (आप) के साथ इसमें एक नया आयाम जुड़ गया। यह राजनीति के खेल में बिल्कुल नई है और यह पारंपरिक राजनीति को चुनौती दे रही है। पुराने खिलाडि़यों को नई वास्तविकताओं के साथ खुद को ढालने में मुश्किल हो रही है। आप ने पहले से मौजूद संघर्ष को आौर बढ़ा दिया है। इसके उद्गम के साथ कड़वाहट और अधिक हो गई है। पहले से ही स्थापित तमाम राजनीतिक दलों ने आप के खिलाफ तलवारें भंजनी प्रारंभ कर दी हैं। वे इस नए बच्चे का सामना करने में खुद को असमर्थ पा रहे हैं। यहां तक कि पार्टी के गठन से पहले से ही आप के नेतृत्व को चुनिंदा अपशब्दों से संबोधित किया गया था। हमें नाली का चूहा गया था। यहां तक कि दिल्ली विधानसभा चुनावों के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक ने हमें नहीं बख्शा और जंगलों में रहने वाले नक्सली तक कहा। उन्होंने हमें ‘‘बदनसीब-वाला’’ तक कहा। यह प्रधानमंत्री के लिये एक एक नया नीचा स्तर था। यह भाषा प्रधानमंत्री का पद धारण करने वाले व्यक्ति के लिये किसी भी प्रकार से शोभनीय नहीं कही जा सकती। एक और वरिष्ठ बीजेपी नेता गिरिराज सिंह ने हमें राक्षस तक कहा। साध्वी निरंजन ज्योति तो इससे एक कदम और आगे बढ़ गईं और उन्होंने हमें हरामजादा कहा। सूची बहुत लंबी है।

मुझे अब भी अच्छी तरह याद है कि मोदी ने वर्ष 2007 के गुजरात चुनाव के दौरान सोनिया गांधी और तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त जे एम लिंगदोह के प्रति किस भाषा का प्रयोग किया था। मैं उसे दोहराना नहीं चाहता लेकिन वह उसे किसी भी प्रकार से भद्र नहीं कहा जा सकता। मुझे अब भी यशवंत सिन्हा का तत्कालीन प्रधामंत्री मनमोहन सिंह को ‘शिखंडी’ कहना याद है जिसका सीधा मतलब नपुंसक होता है। यशवंत सिन्हा वाजपेयी के मंत्रीमंडल में एक बहुत मजबूत कैबिनेट मंत्री थे। अब अरुण जेटली सहित बीजेपी के उच्च नेतृत्व को अरविंद द्वारा प्रधानमंत्री के लिये प्रयोग किये गए एक शब्द से परेशानी है। मैं सिर्फ यह कहना चाहता हूं कि सिर्फ दूसरों को दोष देना और अपने गिरेबान में न झांकना ठीक नीति नहीं है। वे जो उपदेश दे रहे हैं उसे वास्तविकता में अपनाया भी जाना चाहिये। आप इस मुद्दे को लेकर जागरुक है लेकिन फिर भी हममें से प्रत्येक को आत्मविश्लेषण कर सुधारात्मक कदम उठाने होंगे। यहां तक कि आप की स्थापना से बहुत पहले संसद ने सांसदों के व्यवहार के लिये दिशा-निर्देशों का मसौदा तैयार करने के उद्देश्य से एक आचार समिति का गठन किया था लेकिन इसे कभी भी गंभीरता से नहीं लिया गया। और इसकी वजह बिल्कुल साफ है। भारत की राजनीति बद गई है। ऐतिहासिक कारणों के अलावा पुराने दलों और राजनीतक समूहों के लिये सिंद्धांत काफी भारी हो गए हैं और कोई भी आसानी से पीछे हटने को तैयार नहीं है। इतिहास और वर्तमान दानों ही इस मोड़ पर मिल रहे हैं जिसके नतीजतन एक ऐसी भाषा सामने आ रही है जिसे अभद्र कहा जा सकता है। लेकिन मैं आपको बता दूं कि चीजें बदल रही हैं और यह बदलाव बेहतरी के लिये हो रहा है।