पिता चाहते बेटी बने चित्रकार, लेकिन बन गई अभिनेत्री
अजनबी रास्तों पर पैदल चलें, कुछ न कहें: दीप्ति नवल
सांवली-सलोनी दीप्ति नवल हिंदी फिल्मों की मशहूर अदाकारा ही नहीं, अभिनय के अलावा कविता, फोटोग्राफी, चित्रकारी, फिल्म निर्माण आदि भी उनके जीवन के खुशनुमा शौक रहे हैं। आज (03 फरवरी) उनका 61वां जन्मदिन है। एक ओर जहां उनकी जिंदगी के तमाम चमकीले अध्याय हैं, उनसे जुड़े कई ऐसे पठित-अपठित पन्ने भी हैं, जो किसी को भी गंवारा न होंगे। और तब उनकी कलम से फूटते हैं ऐसे लफ्ज - 'लोग एक ही नज़र से देखते हैं औरत और मर्द के रिश्ते को, क्योंकि उसे नाम दे सकते हैं ना! नामों से बँधे बेचारे यह लोग!'
दीप्ति नवल को उनके पिता तो चित्रकार बनाना चाहते थे लेकिन उनका मन अभिनय और कविता में रम गया। यद्यपि मौके-दर-मौके घुमक्कड़ी के दिनो में चित्रकारी भी कर लिया करती हैं। प्रदर्शनियों में उनकी कई खूबसूरत पेंटिंग प्रदर्शित हो चुकी हैं।
वर्ष 1957 में पंजाब के अमृतसर में जन्मीं दीप्ति नवल की पढ़ाई लिखाई पालमपुर (हिमाचल) में हुई है। इसके अलावा न्यूयॉर्क की सिटी यूनिवर्सिटी और मैनहट्टन के हंटर कॉलेज से भी उन्होंने डिग्रियां हासिल की हैं। वह हिंदी फिल्मों की सबसे प्रतिभाशाली अभिनेत्रियों में से एक रही हैं। उन्होंने कई सफल चरित्र बड़े पर्दे को दिए हैं। श्याम बेनेगल की फिल्म 'जुनून' से कभी उन्होंने बॉलीवुड में कदम रखा था लेकिन इस सफर की सही शुरुआत 1979 में फिल्म 'एक बार फिर' से हुई थी। इस फिल्म पर उन्हें उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार भी मिला।
उन्होंने अपने 35 साल के लंबे करियर में कुल लगभग सत्तर फिल्मों में अभिनय किया है, जिनमें 'चश्मे बद्दूर', 'मिर्च मसाला', 'अनकही', 'मैं जिंदा हूं', 'कमला', 'साथ-साथ', 'अंगूर' आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। जब पर्दे की दुनिया से बाहर निकल कर दीप्ति नवल के शब्दों की दुनिया में हम दाखिल होते हैं तो पता चलता है कि वह कितने बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी, सुलझी हुई और संवेदनशील कवयित्री हैं। उनकी प्रकाशित पुस्तकों में 'लम्हा-लम्हा' काफी मकबूल है। उन्होंने अलग-अलग शीर्षकों से केंद्रित रात पर कई कविताएं लिखी हैं -
मैंने देखा है दूर कहीं पर्बतों के पेड़ों पर
शाम जब चुपके से बसेरा कर ले
और बकिरयों का झुंड लिए कोई चरवाहा
कच्ची-कच्ची पगडंडियों से होकर
पहाड़ के नीचे उतरता हो
मैंने देखा है जब ढलानों पे साए-से उमड़ने लगें
और नीचे घाटी में
वो अकेला-सा बरसाती चश्मा
छुपते सूरज को छू लेने के लिए भागे
हाँ, देखा है ऐसे में और सुना भी है
इन गहरी ठंडी वादियों में गूँजता हुआ कहीं पर
बाँसुरी का सुर कोई़...
तब
यूँ ही किसी चोटी पर
देवदार के पेड़ के नीचे खड़े-खड़े
मैंने दिन को रात में बदलते हुए देखा है!
दीप्ति नवल को उनके पिता तो चित्रकार बनाना चाहते थे लेकिन उनका मन अभिनय और कविता में रम गया। यद्यपि मौके-दर-मौके घुमक्कड़ी के दिनो में चित्रकारी भी कर लिया करती हैं। प्रदर्शनियों में उनकी कई खूबसूरत पेंटिंग प्रदर्शित हो चुकी हैं। बर्फीले पहाड़ों की सैर करती हुई वह खुद को कुशल छायाकार भी सिद्ध कर चुकी हैं। इसके अलावा वह तरह-तरह के वाद्ययंत्र भी साध लेती हैं। उन्हें संगीत से भी गहरा लगाव है। वह अपने हुनर को फेसबुक पर भी शेयर करती रहती हैं। अपने जीवन की दुखद आपबीती की ओर लौटती हुई दीप्ति लिखती हैं -
'बहुत घुटी-घुटी रहती हो
बस खुलती नहीं हो तुम!'
खुलने के लिए जानते हो
बहुत से साल पीछे जाना होगा
और फिर वही से चलना होगा
जहाँ से कांधे पे बस्ता उठाकर
स्कूल जाना शुरू किया था
इस ज़ेहन को बदलकर
कोई नया ज़ेहन लगवाना होगा
और इस सबके बाद जिस रोज़
खुलकर
खिलखिलाकर
ठहाका लगाकर
किसी बात पर जब हँसूंगी
तब पहचानोगे क्या?
दीप्ति नवल नवल ने फिल्म निर्माता प्रकाश झा के साथ शादी रचाई थी लेकिन उनका यह रिश्ता सिर्फ दो वर्ष ही चला। दोनो ने बेटी दिशा को गोद लिया था। दिशा को गायन का शौक है। वह दांपत्य जीवन में भले अलग हो गए हों, आज भी उनमें हाशिये की दोस्ती बनी हुई है। यदा-कदा वे साथ-साथ आज भी दिख जाते हैं। खैर, यह भी दीप्ति के जीवन का एक दुखद अध्याय ही है। एक वक्त में उनको अभिनेता फ़ारूक़ शेख के निधन ने इतना विचलित कर दिया था कि वह फूट-फूटकर रोई थीं। उन्हें आज भी लगता है कि वह फिल्म 'चश्मे बद्दूर' की नेहा राजन हैं और वो फ़ारूक़ शेख सिद्धार्थ पाराशर। वह निजी जिंदगी में फारूक शेख के साथ काफी निकट से जुड़ी रही थीं।
कई फिल्मों में दोनों ने साथ-साथ काम कर शोहरत कमाई। एक बार तो गजब ही हो गया। वह 'चश्मे बद्दूर' के रीमेक के लिए छत पर फारूक शेख के साथ इंटरव्यू दे रही थीं, जबकि आसपास वालों ने समझ लिया कि कोई और खेल चल रहा है। उन्होंने ऑब्जेक्शन किया। अगले दिन उस घटनाक्रम को जब मीडिया ने 'देह-व्यापार' की खबर के रूप में उछाल दिया, उससे दीप्ति नवल को गहरा आघात लगा था। दीप्ति नवल की जिंदगी में शामिल ऐसे भी अध्याय हैं, जिनके पन्ने पलटे बिना उन पर की जा रहीं बातें अधूरी रह जाएंगी।
मसलन, एक बार उन्हे एक चाहने वाले सुशोभित सक्तावत ने फेसबुक पर लिखा - 'सुनो दीप्ति, मैं ये तो नहीं कहने वाला कि इंतेहा फ़िदा हूं तुम्हारी नायाब ख़ूबसूरती, हुस्नो-नज़ाकत पर या तुम्हारा लड़कपन भी दिलफ़रेब है या कि तुम्हारी बेमिसाल अदाकारी से मुतास्सिर रहता हूं बहुत या अचरज से भरा कि कैसे कर लेती हो इतना कुछ – नज़्में कहना, अफ़साने सुनाना, तस्वीरें उतारना, मुसव्विर का बाना पहनकर खींचना ख़ाके, भरना रंग या यायावरी के रास्तों को सौंप देना अपने सांझ-सकारे। और इतना करके भी रहना ग़ैरमुमकिन, कि जैसे पानी पर हवा की अंगुली से खींची कोई लकीर हो, जिसके सिरे किसी और दुनिया में छूट रहे या कि तुम एक सितारा हो, पर सबसे हसीन सितारा हो, ऐसा कहके तुमसे अपनी रफ़ाकत का एक डौल क्यूं बांधूं, कि वजहों की गठरी बहुत भारी होती है..... पूछ नहीं रहा तुमसे कुछ, बता रहा हूं. बस, तुमको देखा तो ये ख़याल आया के छतनार का साया हो, जिसके आग़ोश में गरचे गिरूं तो ही पनाह. और यह कि तुम दी प ती हो, रत्तीभर भी इससे कम ज़ियादा नहीं, और सिवा इसके तुम्हें और होने को क्या है। उस दिन ‘कथा’ में हरी साड़ी पहने देखा था तुम्हें, बालों में गुड़हल का लाल फूल लगाये इंद्रधनुष लग रही थीं। तुम्हारी यादों के कितने मोरपंख सहेज रक्खे हैं मैंने, अब इसका भी क्या बखान करूं....।' शायद ऐसे ही क्षणों में दीप्ति नवल लिखती हैं -
अजनबी रास्तों पर
पैदल चलें
कुछ न कहें
अपनी-अपनी तन्हाइयाँ लिए
सवालों के दायरों से निकलकर
रिवाज़ों की सरहदों के परे
हम यूँ ही साथ चलते रहें
कुछ न कहें
चलो दूर तक
तुम अपने माजी का
कोई ज़िक्र न छेड़ो
मैं भूली हुई
कोई नज़्म न दोहराऊँ
तुम कौन हो
मैं क्या हूँ
इन सब बातों को
बस, रहने दें
चलो दूर तक
अजनबी रास्तों पर पैदल चलें।
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