'साहस' बना रहा झुग्गी के बच्चों को शिक्षित और उनके मां-बाप को आत्मनिर्भर
सबसे दुखद है यूनेस्को की 2014 में आई जीएमआर रिपोर्ट। इस रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया भर में सबसे ज्यादा निरक्षरों की संख्या किसी देश में है तो वो भारत में है।
भारत के तकरीबन दो-तिहाई बच्चे बुनियादी शिक्षा नहीं प्राप्त कर पाते हैं। प्राथमिक शिक्षा पाने के योग्य एक तिहाई बच्चे ही चौथी कक्षा तक पहुंच पाते हैं और बुनियादी शिक्षा ले पाते हैं।
इतने सारे जी घबरा देने वाले आंकड़ों के बीच कई सारे समाजसेवी संस्थाएं और सुधी लोग बच्चों की शिक्षा पर खूब मन लगाकर काम कर रहे हैं। देखने, सुनने में उनके काम 'गिलहरी प्रयास' लग सकते हैं, लेकिन अंधेरा मिटाने को एक लौ का जल जाना भी काफी प्रेरक होता है। ऐसा ही जिम्मेदारी भरा काम कर रही है दिल्ली की एक एनजीओ साहस।
शिक्षा का हक। रोटी, कपड़ा और मकान के बाद अगर इंसान को जीवनयापन करने के लिए जिस चीज की जरूरत सबसे ज्यादा होती है, वो है शिक्षा। कुछ लोग कुतर्क करेंगे कि क्या जिन लोगों को चार आखर पढ़ने नहीं आता वो सांस नहीं ले पाते। इस कुतर्क का सबसे सटीक जवाब है, केवल सांस लेने को ही जीना नहीं कहते हैं। शिक्षा एक इंसान को काबिल बनाती है, रोजगार प्राप्त करने के लिए, बेहतर जीवन जीने के लिए, उसके सर्वआयामी विकास के लिए।
शिक्षा इंसान के लिए नित नए द्वार खोलती है। लेकिन इससे बड़े दुख की बात क्या होगी कि एक ऐसे समय में जब इस दुनिया के लोग दूसरे ग्रहों में पैठ बना रहे हैं उस समय में एक बड़ी आबादी के पास अभी तक शिक्षा का हक तक नहीं पहुंचा है। वैश्विक आंकड़ों की अगर बात करें तो 774 मिलियन लोगों तक अभी अक्षरज्ञान तक की रोशनी नहीं पहुंची है। 774 मिलियन लोग यानि सात हजार सात सौ चालीस लाख लोग।
ये तो सिर्फ निरक्षरता दर है जिसमें इंसान अपनी अपनी भाषा का कखगघ पढ़ने लायक तक नहीं होता। आगे की शिक्षा तो बहुत दूर की बात है। इतने सारे लोग अभी तक किसी फॉर्म में अपना नाम पता तक लिख सकने में असमर्थ हैं। इन सबमें सबसे दुखद है यूनेस्को की 2014 में आई जीएमआर रिपोर्ट। इस रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया भर में सबसे ज्यादा निरक्षरों की संख्या किसी देश में है तो वो भारत में है। यूनेस्को की एक और रिपोर्ट के मुताबिक भारत के तकरीबन दो-तिहाई बच्चे बुनियादी शिक्षा नहीं प्राप्त कर पाते हैं।
प्राथमिक शिक्षा पाने के योग्य एक तिहाई बच्चे ही चौथी कक्षा तक पहुंच पाते हैं और बुनियादी शिक्षा ले पाते हैं। वहीं एक तिहाई अन्य बच्चे चौथी कक्षा तक तो पहुंचते हैं लेकिन वो बुनियादी शिक्षा नहीं ले पाते। जबकि एक तिहाई बच्चे न तो चौथी कक्षा तक पहुंच पाते हैं और न ही बुनियादी शिक्षा हासिल कर पाते हैं। भारत के आधे से भी कम बच्चों को बुनियादी शिक्षा हासिल हो पाती है।
आंखों मे है सपने, दिल में है विश्वास
इतने सारे जी घबरा देने वाले आंकड़ों के बीच कई सारे समाजसेवी संस्थाएं और सुधी लोग बच्चों की शिक्षा पर खूब मन लगाकर काम कर रहे हैं। देखने, सुनने में उनके काम 'गिलहरी प्रयास' लग सकते हैं, लेकिन अंधेरा मिटाने को एक लौ का जल जाना भी काफी प्रेरक होता है। ऐसा ही जिम्मेदारी भरा काम कर रही है दिल्ली की एक एनजीओ साहस। 'साहस' ने अपना एक लर्निंग सेंटर बना रखा है दिल्ली से सटे गाजियाबाद की एक झुग्गी इलाके में।
साहस लर्निंग सेंटर में जब योरस्टोरी टीम पहुंची तो बच्चों को खूब सारा ड्रॉइंग करते हुए, किताबें पढ़ते हुए, खेलते-खिलखिलाते देख आह्लाद से भर उठी। हम सब हमेशा इस तरह की स्टोरीज पढ़ते रहते हैं कि फलाना एनजीओ उस जगह गरीब घरों के बच्चों को पढ़ाने का काम कर रही है। लेकिन जब आप अपनी आंखों से उस गंदगी में सैकड़ों कमल को खिलते देखते हैं, उन सैकड़ों बच्चों को जो कल तक किसी कचरे के ढेर में से कुछ बीन रहे थे वो आज कॉपी-किताब लेकर बड़ी तन्मयता से पढ़ रहे हैं, उनकी आंखों में तैर रहे सपने आपको अपने आप मोहित कर लेते हैं। उनके सपनों की मजबूती देखकर आपके अंदर के विश्वास को और बल मिलता है।
'साहस' को इस मुकाम पर लाकर खड़ा करने वाली अर्पणा चंदेल के मुकृताबिक, 'किसी भी समस्या को देखकर खून उबाल मारता था तो बस चल पड़ते थे झोला उठाकर। यहां-वहां हाथ मारकर रास्ते में पड़े कुछ पत्थर चुन लेते थे। थोड़ी तसल्ली हो जाती थी। लेकिन वो नाकाफी था। उस सड़क पर अभी भी कंकड़ बिछे पड़े हैं। हम किसी का भला न कर सकते हैं न ही करेंगे। बस सबके अन्दर के साहस को जगाएंगे और हर कोई अपना भला खुद करेगा। साहस का उद्भव कुछ ऐसे हुआ, लंबे समय से छोटा मोटा काम कर रहे थे, रेलवे स्टेशन से कूड़ा उठाने वाले बच्चों का घर ट्रेस किया और पहले बस्ती में ही पढ़ाना शुरू कर दिया। जब उन्हें मुझपर भरोसा हुआ तो पास में कमरा किराए पर ले लिया। 116 बच्चों का स्कूल में दाखिला भी कराया था पर वो नहीं गए। फिर साहस लर्निंग सेंटर को फॉर्मली स्टार्ट किया। आज हमारे पास 100 से ज़्यादा बच्चे पढ़ते हैं। स्कूल में 4 टीचर हैं, मुझे छोड़कर। मैं ऑफिस से जल्दी छुट्टी होने पर और वीक ऑफ के दिन जाती हूं। मेरी सैलरी से ही स्कूल का खर्च चलता है। अब हम बच्चों के पैरेंट्स के लिए रोजगार का जुगाड़ लगाने में लगे हैं। जल्द ही सैनिटरी पैड मेकिंग यूनिट लगाने वाले हैं।'
आपको बता दें कि अर्पणा एक बड़े मीडिया हाउस में नौकरी करती हैं। 9 घंटे की शिफ्ट और दो-तीन घंटे के ट्रैवल से हुई थकान के बावजूद वो थकती नहीं। उन बच्चों की मुस्कुराहट उनमें जीवन भरती रहती हैं। हर दिन वो नए उत्साह से उन बच्चों की बेहतरी के लिए प्लान्स बनाती हैं और उनके क्रियान्वयन पर जुट जाती हैं।
सिर्फ समस्या पर नहीं, उसके जड़ पर करेंगे प्रहार
एनजीओ साहस ने अपने मुख्य उद्देश्य चिन्हित कर रखे हैं। जिनकी लिस्ट कुछ ऐसी है, समाज के निचले तबके को मुख्यधारा में लाने के लिए काम करना, बच्चों की शिक्षा और विकास पर पूरा ध्यान। अर्पणा 'साहस' के लक्ष्य को विस्तार से बताती हैं, किसी भी समाज के विकास में महती भूमिका निभाती है लेकिन भूखे पेट कोई पढ़ाई नहीं होती। जब परिवार पेट पालने के लिए दिन रात एक कर देते हों तो ऐसे में बच्चों की शिक्षा पर कैसे ध्यान जा सकता है। अगर माता-पिता बच्चों को दो वक्त का खाना नहीं दे पा रहे हैं तो उनको स्कूल भेजना एक सपने सरीखा है। इसलिए हमारा लक्ष्य सिर्फ समस्या को खत्म करना ही नहीं है बल्कि समस्या की जड़ को उखाड़ फेंकना है। हमारे एनजीओ का नारा है, 'है हमारी, ज़िम्मेदारी'।
साहस न सिर्फ झुग्गी के बच्चों को पढ़ा रहा है बल्कि उसका एक हाथ इस दिशा में भी काम कर रहा कि उनके मां-बाप को रोजगार मिलेष जब उनके घर में पैसे आएंगे तो ही वो बच्चों की शिक्षा पर चिंतामुक्त होकर ध्यान दे पाएंगे। साहस नित नए रोचक आइडियाज लेकर आता है कभी वो उनसे कागज के लिफाफे बनवाता है तो कभी बैग। टीम साहस इन सब चीजों को उन्हें बनाना सिखाती है और फिर जब ये प्रोडक्ट तैयार हो जाते हैं तो उसे बाजार में बेचकर उनसे हुई आय को इन बच्चों के मांबाप के हवाले कर देती है।
अपनी इस मुहिम के बारे में अर्पणा बताती हैं,कर्ता का कारक से सामना हुआ तो सारे अंदाज़े धुंआ हो गए। सोचा था झाड़ू बनाना बेहतर होगा लेकिन बात कागज़ के लिफाफे पर जा रुकी। फिर क्या था, काम शुरू। बेगा समाज की इन महिलाओं की सीखने की क्षमता और सृजनात्मक सोच अदभुत है। एक ही बार में सिखाने पर कुछ ऐसा बनाया।
सराहनीय प्रयास: खुद का सैनिटरी नैपकिन
अब साहस एक और जरूरी आइडिया लेकर आया है। टीम साहस अपना खुद का सैनिटरी नैपकिन लॉन्च करने की तैयारी में है। अर्पणा बताती हैं, भारत में तकरीब 30 करोड़ औरतों को हर महीने सैनिटरी नैपकिन की जरूरत पड़ती है। लेकिन जरूरत के हिसाब पैड्स की आपूर्ति बहुत कम है और पैड्स को लेकर देश में जागरूकता भी काफी कम है। मार्केट में सैनिटरी पैड मंहगे भी आते हैं। इन सब बातों को ध्यान रखते हुए हम हाइजीनिक, इको फ्रेंडली और कम दाम के सैनिटरी पैड्स बनाने की दिशा मे काम कर रहे हैं।
साहस लर्निंग सेंटर में पढ़ने आने वाले बच्चों के माता-पिता इन पैड्स को बनाएंगे। इससे दो फायदे होंगे, एक तो इससे उनके लिए रोजगार के अवसर पैदा होंगे दूजा यहां की महिलाओं को सस्ते पैड भी उपलब्ध होंगे। क्योंकि हमारा लक्ष्य ही यही है कि समाज का सर्वांगीण विकास हो।
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