"स्वास्थ्य, राजनीति और अपराध जगत में अब ऐसी सूचनाएं आम हो चली हैं, कि "मुरादाबाद जिला अस्पताल में और जेपी नगर के दो डॉक्टर फर्जी मेडिको लीगल रिपोर्ट बनाने में फंस गए...", "कहीं किसी शहर मेडिकल कॉलेज में प्रवेश दिलाने के नाम पर 31.50 लाख रुपये की ठगी..." या फिर "आरुषि हत्याकांड का मेडिको लीगल रजिस्टर जिला अस्पताल से गायब..."। आईये एक नज़र डालते हैं चिकित्सा और कानून के बीच बैठे उस अपराधी पर, जिसमें सेंध लगाना तो आसान है, लेकिन उसकी शिनाख्त करके न्याय पाना बेहद मुश्किल।"
"कानूनी अनभिज्ञता और उदासीनता के कारण निजी चिकित्सा संस्थानों में खुद के नियम-शर्तें, खुद तय की हुई फीस चलती है। पैसा कमाने के लिए सिजेरियन अॉपरेशनों की संख्या में वृद्धि होती जा रही है। प्रसव के दौरान पहुंची महिला से पहले ही कह दिया जाता है, कि उसके पेट में बच्चे को खतरा है। सरकारी चिकित्सकों के संरक्षण में निजी अस्पताल चलाए जा रहे हैं। अवसर मिलते ही मरीज निजी अस्पतालों को रैफर कर दिए जाते हैं। मनमाना बिल-बाउचर के लिए मरीजों को अनाप-शनाप टेस्ट की लिस्ट थमा दी जाती है और फार्मा कंपनियों से कमाई के लिए महंगी दवाइयां लिख दी जाती हैं।"
दिसंबर 2011 में पंचकूला (चंडीगढ़) निवासी अमरजीत सिंह वर्ष 2005 में वीजा पर न्यूजीलैंड गए थे। छह महीने वहां रहने के बाद उन्होंने अपनी पत्नी और दोनों बच्चों भी बुला लिया। उन्हें न्यूज़ीलैंड की सिटिजनशिप मिल गई। वर्ष 2010 में जब वह एक जीपीएस बनाने वाली कंपनी में काम कर रहे थे, तो उस दौरान उन्हें टॉर्चर किया गया। कंपनी की मैनेजर ने उनकी जासूसी कराई। 4 जनवरी 2010 को उन्हें प्रसाद में स्ट्रॉबेरी खिला दी गई। तबीयत ऐसी खराब हुई कि सांस लेना मुश्किल हो गया। किसी तरह वे डॉक्टर के पास पहुंचे। डॉक्टर ने दवा तो दे दी, लेकिन कई बार कहने पर भी टेस्ट नहीं किया। मार्च 2010 में कंपनी में काम के दौरान उन्हें ड्रग दिया गया था, जिससे उनकी तबीयत और खराब हो गई और वे अस्पताल में भर्ती हो गये। डॉक्टर ने उन्हें दवाईयां तो दीं पर पुलिस केस नहीं बनाया। जबकि वे मेडिकल क्राइम का शिकार हुए थे। कंपनी की हरकतों से परेशान होकर उन्होंने लेबर कोर्ट में केस किया। कोर्ट से कहा गया, कि ह्यूमन राइट्स में जाओ, पर वहां भी बात नहीं बनी। वहां पर भी उन्होंने प्राइवेसी ब्रीच, इलिगल टर्मिनेट और मेडिकल क्राइम का केस किया था।
"लेबर कोर्ट में केस के बाद अमरजीत सिंह को नौकरी से निकाल दिया गया। प्राइवेसी ब्रीच का केस इसलिए किया गया, क्योंकि उनकी जासूसी कराई गई और मेडिकल क्राइम इसलिए, क्योंकि उन्हें ड्रग देकर मारने की कोशिश की जा रही थी। ह्यूमन राइट्स में भी उनकी अर्जी ठुकरा दी गई और इसके बाद वे ट्रिब्यूनल में गए, सिर्फ इस आस पर कि उन्हें न्याय मिल जाये। जब न्यूज़ीलैंड सरकार ने उनकी कोई मदद नहीं की तो उन्होंने भारत सरकार से मदद मांगी, लेकिन यहां भी कोई मदद नहीं मिली।"
"सिविल लिबटीज खत्म करने के बाद न तो व्यक्ति पूरे देश में कहीं इलाज करवा सकता है और न ही केस लड़ने के लिए वकील हायर कर सकता है। इसके आलावा अन्य सुविधाएं भी खत्म कर दी जाती हैं। जानकारों ने उन्हें बताया कि चाइनीज़ हर्बल मेडिसिन ली जा सकती है। वह सिविल लिबटीज के दायरे में नहीं आती। इसके बाद उन्होंने ऐसा ही किया और चाइनीज़ दवा ने बजाय फायदे के नुकसान कर दिया।"
अमरजीत को जो दवाएं न्यूज़ीलैंड में दी गईं , उनके शरीर को नुक्सान पहुंचाने लगीं। समय पर इलाज न मिलने पर बिमारी कैंसर में तब्दील हो जाने का खतरा पैदा हो गया। अमरजीत ने न्यूज़ीलैंड सरकार और उस कंपनी पर मेडिकल क्राइम का केस कर दिया। दवा भारत आ जाती, तो उसका यहां टेस्ट कराया जा सकता था, लेकिन वह हाईलैंड कमीशन में पड़ी रह गयीं। बाद में जब अमरजीत ने इंडिया में टेस्ट कराया, तो पता चला कि उनके क्लोन में जबरदस्त इन्फेक्शन हो गया था। गाल ब्लैडर भी रुग्ण हो चुका था। और कैंसर की संभावना बढ़ गई थी। ट्रिब्यूनल में केस के बाद न्यूज़ीलैंड सरकार ने उनकी सिविल लिबटीज खत्म कर दी। सिविल लिबटीज खत्म करने के बाद न तो व्यक्ति पूरे देश में कहीं इलाज करवा सकता है और न ही केस लड़ने के लिए वकील हायर कर सकता है। इसके आलावा अन्य सुविधाएं भी खत्म कर दी जाती हैं। जानकारों ने उन्हें बताया कि चाइनीज़ हर्बल मेडिसिन ली जा सकती है। वह सिविल लिबटीज के दायरे में नहीं आती। इसके बाद उन्होंने ऐसा ही किया और चाइनीज़ दवा ने बजाय फायदे के नुकसान कर दिया।
एक डॉक्टर अखबार में विज्ञापन देता है, कि वह कैंसर समेत बड़े से बड़े मर्ज का इलाज कर सकता है। जब वह मरीजों को लूटने लगता है, तो जनता खुद उठ खड़ी होती है। प्रशासन और स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों से शिकायत की जाती है। शासन तक बात पहुंचती है। लेकिन, होता क्या है? डॉक्टर माल-मत्ता समेट कर निकल जाता है। नकली दवाओं का कारोबार भी इसी तर के डॉक्टरों के बूते फल-फूल रहा है। कानपुर, लखनऊ, इलाहाबाद, भिंड, भिवानी, लुधियाना हर जिले में ऐसे डॉक्टर मिल जायेंगे, जो पढ़े हैं होम्योपैथी और दवाएं एलोपैथी की दे रहे हैं। मेडिकल और कानून के बाकी पहलुओं की चर्चा कौन करे। कुछ साल पहले उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में डिप्टी सीएमओ डॉक्टर डॉ. योगेंद्र सिंह सचान की मौत के मामले तक में मेडिको लीगल विभाग के हरकत में आने के बाद लखनऊ हाईकोर्ट के आदेश के बावजूद डॉ. सचान का बिसरा सुरक्षित नहीं रखा गया।
"चिकित्सा क्षेत्र पर आम आदमी का विश्वास बनाये रखने के लिए मेडिकल छात्रों को आवश्यक रूप से कानून की भी शिक्षा दिया जाना विचरणीय हो चला है। यह सबको मालूम होना चाहिए कि चिकित्सा अपराध और कानून के बीच एमएलसी एक अहम दस्तावेज है और क्रिमिनल मामलों में इसकी काफी अहमियत है।"
चिकित्सा में कानून से लड़ना एक बड़ी चुनौती है, इसलिए कुछ सवाल ऐसे हैं, जिनकी जानकारी आम आदमी को होनी बेहद ज़रूरी है-
स्वास्थ्य क्षेत्र में लिप्त गैरकानूनी कार्यों में लिप्त चेहरों से निपटने के कानूनी उपाय हैं?
मेडिको लीगल सर्टिफिकेट (एमएलसी) क्या होता है?
जागरूकता के लिए चिकित्सा विधिक (मेडिको लीगल), मेडिकल विधिशास्त्र की जानकारी रखना क्यों आवश्यक है?
साथ ही, यदि मरीज़ की मौत डॉक्टर और अस्पताल की लापरवाही से हो जाये, तो किन कानूनी उपायों का सहारा लेना चाहिए?
यह सरकार भी मानती है, कि दुर्घटनाओं, अस्पतालों में अलाज और रोगी-डाक्टरों के मध्य शिकायतों से संबंधित समस्याओं को निपटाने वाले विधि विशेषज्ञों का भारत में अभी तक भली प्रकार से विकास नहीं हुआ है और भारत में चिकित्सा विधिक विशेषज्ञता अपेक्षाकृत एक नया व्यवसाय है। इसलिए चिकित्सा विधिक विशेषज्ञों की भारतीय संघ (आईएएमएल) को चिकित्सा विधिक (मेडिको लीगल) मामलों की जिम्मेदारी सौंपी गई है। चिकित्सा विधिक विशेषज्ञता की आवश्यकता न्याय आयुर्विज्ञान (फॉरेन्सिक मेडिसिन), मेडिकल विधिशास्त्र और विष विज्ञान में होती है।
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा 1958 में स्थापित केंद्रीय चिकित्सा विधिक परामर्शदात्री समिति का संज्ञान लेते हुए मध्य प्रदेश सरकार द्वारा भोपाल में भी चिकित्सा विधिक संस्थान स्थापित किया गया है। इस संस्थान के कार्य क्षेत्र की प्रकृति अर्ध न्यायिक है। अब तो जिला स्तर तक मेडिको लीगल अधिकारियों को नामांकित करने की ज़रूरत महसूस की जाने लगी है। चिकित्सा क्षेत्र पर आम आदमी का विश्वास बनाये रखने के लिए मेडिकल छात्रों को आवश्यक रूप से कानून की भी शिक्षा दिया जाना विचरणीय हो चला है। यह सबको मालूम होना चाहिए कि चिकित्सा अपराध और कानून के बीच एमएलसी एक अहम दस्तावेज है और क्रिमिनल मामलों में इसकी काफी अहमियत है। एमएलसी एक बेसिक दस्तावेज है, क्योंकि इसमें यह दर्ज होता है कि पीड़ित को कितना ज़ख़्म हुआ है और किस तरह के हथियार से शरीर के किस अंग में चोट लगी है। एमएलसी में डॉक्टर की राय भी होती है। उसी के अनुसार पुलिस मामला बनाती है।
"यदि किसी मामले में केस पहले से दर्ज है और एमएलसी की रिपोर्ट बाद में आती है, तो एमएलसी के अनुसार धाराएं लगाई जाती हैं। यद्यपि इस पर अमल होता नहीं है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक जजमेंट में साफ कहा है, कि जब तक कोई घायल अस्पताल पहुंचे तो पहले उसका इलाज शुरू किया जाये। बाद में पुलिस को सूचित कर औपचारिकताएं पूरी की जायें।"
एमएलसी में लिखी बातें अहम होती हैं, इसलिए ज़रूरत पड़ने पर एमएलसी लिखने वाले डॉक्टर को गवाही के लिए बुलाया जाता है। अदालत उसके बयान को मुख्य मानती है। दिल्ली के एम्स ट्रॉमा सेंटर ने तो एमएलसी लिखने का पूरा काम कंप्यूटराइज्ड कर दिया है। वैसे ऐसा कई बार देखा गया है, कि एेसे मामलों में आरोपी एमएलसी में फेरबदल कराने के बाद छूट भी जाते हैं या उनकी सजा शिथिल हो जाती है।