Brands
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
ADVERTISEMENT
Advertise with us

बीमारी की वजह से नौकरी जाने के बाद भी हिम्मत नहीं हारी, ईको टूरिज्म से रोज़गार बढ़ा रहा है एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर

बीमारी की वजह से नौकरी जाने के बाद भी हिम्मत नहीं हारी, ईको टूरिज्म से रोज़गार बढ़ा रहा है एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर

Wednesday February 24, 2016 , 5 min Read

अकसर कहा जाता है कि सबसे मजबूत आदमी वो होता है जो मुश्किल स्थिति में भी खुद को डिगने नहीं देता। जो विपरीत हालात में भी खुद को संभालकर रखता है और उस वक्त से खुद को निकालने के लिए प्रयासरत रहता है। आप ही सोचिए, जिस समय आपको नौकरी की सख्त ज़रूरत है और उसी समय आपको नौकरी से निकाल दिया जाता हो तो कैसा लगेगा। लेकिन अगर आप संयम के साथ हालात का डटकर मुकाबला करेंगे तो परिणाम बेहतर ही निकलेगा। ये कहानी है उस इंसान की जिसको इसलिए अच्छी खासी नौकरी से इस्तीफा देने के लिये दबाव बनाया गया, क्योंकि उसके बाएं पैर में बड़ी परेशानी हो गई। शरीर में बीमारी का लगना और उसी बुरे वक्त में नौकरी का जाना किसी के लिए भी गहरा सदमा हो सकता था। लेकिन हिमांशु कालिया तो दूसरी ही मिट्टी के बने इंसान थे, तभी तो उन्होंने इन सब चीजों का सामना करते हुए ऐसा काम शुरू किया कि आज वो दूसरों के लिए मिसाल बन गये हैं। इतना ही नहीं आज वो आदिवासियों को रोजगार के साधन भी उपलब्ध करा रहे हैं। ये उन्हीं की कोशिशों का नतीजा है कि उत्तर प्रदेश के बहराइच के कतर्निया घाट को उत्तर प्रदेश सरकार ने पर्यटन के तौर पर विकसित करने के लिए हिमांशु कालिया के बनाये रोड मैप को मंजूरी दे दी है।


image


उत्तर प्रदेश के बहराइच में रहने वाले हिंमाशु कालिया मूल रूप से एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं। उन्होंने अपनी बीटेक की पढ़ाई साल 2007 में भोपाल से पूरी की। उसके बाद करीब 4 साल तक उन्होंने नोएडा की एक फर्म में नौकरी की। इसी दौरान उनके पैर में तकलीफ होने के कारण उनको सर्जरी करानी पड़ी। सर्जरी के 6 महीने बाद तक उन्हें बिस्तर पर ही रहना पड़ा। इस वजह से जिस कंपनी में हिमांशु काम कर रहे थे, उस कंपनी ने उन पर इस्तीफा देने का दबाव बनाया। मजबूरन इस्तीफा देना पड़ा। पर कहते हैं रास्ते बंद नहीं होते। समस्याओं में छुपे होते हैं उसके निदान। पैर की तकलीफ ठीक होने के बाद उन्होंने कुछ समय तक गुड़गांव में एक कंपनी में काम किया। इसके बाद 2011 में वे आंत्रप्रेन्योरशिप मैनेजमैंट में एमबीए की पढ़ाई करने के लिए एक्सएलआरआई जमशेदपुर चले गये।


image


हिंमाशु ने योरस्टोरी को बताया,

"अचानक मेरे पिताजी का देहांत हो गया और मैं अपने गृह नगर बहराइच लौट आया। यहां पर मैंने अपने पारिवारिक कारोबार ट्रांसपोर्ट के काम को आगे बढ़ाया, लेकिन मैं कुछ अलग करना चाहता था। मेरे दिमाग में मेरे मेंटोर और एक्सएलआरआई जमशेदपुर में आंत्रप्रेन्योरशिप डेवलपमेंट सेल्स के चेयरपर्सन प्रबल सर की बात हमेशा घूमती रहती कि कुछ अपना काम करना चाहिए। पर क्या करना चाहिए यह मुझे समझ नहीं आ रहा था। एक दिन मैं बहराइच के कर्तनिया घाट में नदी किनारे घूम रहा था। यहां के प्राकृतिक सौन्दर्य ने मेरे दिल में जगह बना ली। मैंने देखा, नदी किनारे, जंगल के बीच में मिट्टी और बांस से बनी झोपड़ियां हैं। तभी मैंने सोचा कि क्यों ना इस इलाके में ईको टूरिज्म को बढ़ावा दिया जाए।"


image


साल 2012 में जब उन्होंने इस पर काम करना शुरू किया तो सबसे पहले समस्या सामने आई ज़मीन की। क्योंकि इस काम के लिए ज़मीन चाहिए थी। इस सिलसिले में उन्होंने राज्य सरकार, वन विभाग और नाबार्ड के सामने कई बार अपने काम का प्रेज़ेन्टेशन दिया। हिमांशु का कहना है कि फिर भी उन्हें ना तो जमीन मिली और ना ही किसी तरह की कोई आर्थिक मदद। जिसके बाद इन्होंने अपना 1 साल भवानीपुर गांव में रहकर बिताया। उसके बाद इन्हें स्थानीय लोगों की मदद से जमीन हासिल हुई। इस तरह पहले साल हिमांशु ने इस जमीन पर एक ही झोपड़ी बनाई। शुरूआत में इनके पास कम ही टूरिस्ट आते थे। धीरे-धीरे इनके काम का विस्तार होता गया और आज देश से ही नहीं विदेश से सैलानी यहां घूमने आते हैं।


image


हिमांशु के मुताबिक 

“बहराइच में थारू जनजाति के लोग रहते हैं। इस जनजाति के लोग आज भी प्रकृति के काफी करीब हैं, ये लोग अपने घरों को परम्परागत तरीके से सजाते हैं। साथ ही ये लोग बांस के इस्तेमाल से बहुत ही खूबसूरत समान बनाते हैं, जिन्हें यहां आने वाले सैलानी बहुत पसंद करते हैं।” 

हिमांशु अपने टूरिस्टों को ग्रामीण और प्राकृतिक माहौल में घूमाते हैं ताकि वे यहां के प्राकृतिक सौंदर्य का लुत्फ उठा सकें। वो उन्हें जंगल में घूमाने ले जाते हैं और उन्हें थारू जनजाति के लोगों के बीच ले जाते हैं। यहां पर वे टूरिस्टों को उनका डांस और दूसरी गतिविधियां दिखाते हैं। उनके बच्चे सैलानियों का अतिथि सत्कार करते हैं, वे उन्हें थारू जनजाति का पारम्परिक भोजन कराते हैं जिसमें अरहर की दाल, चूल्हे की रोटी, चटनी और दाल बाटी चूरमा प्रमुख हैं। सैलानी इनकी बनाई हुई पारम्परिक वस्तुएं, जो कि ज्यादातर बांस से बनी हुई होती है, उन्हें खरीदते हैं।

हिमांशु के ईको टूरिज्म की बदौलत भवानीपुर के अलावा आम्बा, बर्दिया, बिशनापुर और फकीरपुर ऐसे कुछ गांव हैं जहां पर रहने वाले लोगों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार मिला है। हिमांशु के मुताबिक यहां रहने वाले परिवारों कोई गाइड का काम करता है तो कुछ अपनी गाड़ी से सैलानियों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाता है। इसके अतिरिक्त सैलानी महिलाओं और बच्चों की बनाएं सामान खरीदते हैं। अब तो हिमांशु के मड हट के पास कुछ दुकानें भी खुल गई हैं। हिमांशु के अपने स्टाफ में 7 लोग हैं, और करीब 10 परिवार इस काम के लिए सीधे तौर पर उनसे जुड़े हैं।


image


हिमांशु इस काम में आने वाली परेशानियों के बारे में बताते हैं कि यहां पर हर साल बाढ़ आती है जिसमें इनकी बनाई मिट्टी की झोपड़ियां और दूसरा सामान बह जाता है जिस वजह से इन्हें हर साल नई झोपड़ियां बनानी पड़ती हैं। ये हिमांशु की कोशिशों का ही नतीजा है कि वन विभाग ने इलाके में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए उनकी सलाह पर एक मसौदा राज्य सरकार के पास भेजा था जिसे अब मंजूर कर लिया गया है। भविष्य की योजनाओं के बारे में हिमांशु के मुताबिक जल्द ही वे अपने काम का विस्तार खजुराहो में करने जा रहे हैं। 

वेबसाइट : www.katerniaecowildlife.com