कविता मानसिक विलासिता नहीं: फारूक आफरीदी
राजस्थान के प्रतिष्ठित कवि फारूक आफरीदी...
राजस्थान के प्रतिष्ठित कवि हैं फारूक आफरीदी। वह स्वयं को कविता का ऋणी कहते हुए बताते हैं कि ‘कविता ने मुझे बहुत कुछ दिया। एक बड़ा कुटुंब, वसुधैव कुटुम्बकम का तोहफा, एक दृष्टि, एक सोच और इन्सानियत के पक्ष में खड़े होने का सबसे समर्थ माध्यम। उनके लिए कविता सिर्फ कविता नहीं है बल्कि जीवन जीने का एक सलीका है। कविता ने उनके सीमित संसार को व्यापकता और जीवन जीने की एक बेहतर समझ दी।
आजकल के कवि-सम्मेलनों के हालात पर फारूक आफरीदी का कहना है कि कविता कम और चुटकुलेबाजी अधिक होती है। कवियों के गुट बन गए हैं। मैं समझता हूँ जैसे सिंहों के गुट नहीं होते वैसे कवियों के भी गुट नहीं हो सकते लेकिन हो यही रहा है।
अपना साहित्यिक सफरनामा बांचते हुए फारूक आफरीदी बताते हैं कि जब मैं छठवीं कक्षा में था, तब पराग और नंदन जैसी पत्रिकाएँ पढ़ने लगा था। उनमें कहानियां हों या कविताएँ, बड़े चाव से पढ़ता था। स्कूल में अध्यापकगण कविताएं सुनाया करते थे हालाँकि उनमें उस समय के फ़िल्मी गीत अधिक होते थे। पाठ्यक्रम में भी कविताएँ होती थीं। उन्हें पढ़कर मन में हूक उठती थी कि हम भी कोई कविता लिखें। नौवीं कक्षा में आया तो सैकंडरी स्कूल की एक पत्रिका का शुभारम्भ हुआ, जिसके संपादक मंडल में मुझे भी शामिल किया गया। पत्रिका के पहले ही अंक में कविता छपी, जिसे मैंने वर्षों तक संभाल कर रखा। इस तरह कविता लिखने की मेरी शुरुआत हुई।
यह बात कोई सन् 1966-68 की होगी। फिर कुछ कविताएँ और भी लिखीं किन्तु उन्हें कहीं प्रकाशित नहीं करवाया। इस बीच घरेलू आर्थिक परिस्थितिवश स्कूल छोड़कर घर की जिम्मेदारी सम्भालनी पड़ी और एक दैनिक ‘जनगण’ समाचार पत्र के सम्पादकीय विभाग में लग गया, जहाँ रविवारीय अंक में कविताएँ प्रकाशित कराने का अवसर मिला। इसके बाद दैनिक ‘जलते दीप’ से जुड़ा। तब से पूरी तरह पत्रकारिता में जुट गया और कविताई लगभग छूट गई। अध्ययन भी साथ-साथ चलता रहा। जब बी.ए.आर्ट्स में प्रवेश लिया तो विश्वविद्यालय की पत्रिका में अपनी जो रचना दी, वह कविता ही थी। कविता मन के किसी कोने में हमेशा मौजूद रही।
बरसों तक अख़बार में ‘मामूलीराम की डायरी’ शीर्षक से व्यंग्य लिखे, जो खूब चर्चित रहे। यहीं व्यंग्यकार गोवर्धन हेड़ाऊ के संपर्क में आया, जिनसे व्यंग्य लिखना सीखा और उन्हीं ने मेरा हरिशंकर परसाई की रचनाओं से परिचय कराया।तब भी मन कविताओं में रमता था। मेरी कविताएं कभी ‘राजस्थान पत्रिका’ तो कभी ‘राष्ट्रीय सहारा’ में समय-समय पर प्रकाशित होती रहीं। इसी तरह बाड़मेर में कवि गोपालदास ‘नीरज’ और अन्य वरिष्ठ कवियों के साथ मंच पर कविता पढ़ने का अवसर मिला तो उदयपुर में नन्द चतुर्वेदी जैसे पुरोधाओं के संग भी कविताएँ पढ़ीं। कवियों की संगत से बहुत कुछ सीखने को मिला। व्यंग्य लेखन भी चलता रहा। सन् 1995 में व्यंग्य की पुस्तक ‘मीनमेख’ आ गयी।
अपनी कविताओं को लेकर मन में सदा संदेह ही रहा। इन वर्षों में कई कविताएँ लिखीं और अनेक बड़े कवियों और गीतकारो को पढ़ता रहा। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर, महादेवी वर्मा, शुभद्रा कुमारी चौहान, हिरवंश राय बच्चन, अज्ञेय, निराला, नागार्जुन, नीरज, नरेश सक्सेना, प्रयाग शुक्ल, उदय प्रकाश, अनिल जनमेजय, लीलाधर मंडलोई, रमानाथ अवस्थी, शेरजंग गर्ग, काका हाथरसी आदिअनेकशः आधुनिक कवियों को पढ़ डाला। इनको पढ़ते हुए मुक्त छंद कविताएँ लिखीं और एक रजिस्टर में उन्हें उतारता रहा। मित्रों को आपस में सुनाता और छोटी-मोटी कवि गोष्ठियों में सुनाता रहा।
कविता का पहला संग्रह 2017 में आया और जब इसका लोकार्पण विद्वान कवियों के बीच हुआ तो सभी ने इसकी सराहना की। तब कुछ आत्मविश्वास जागृत हुआ। इसके बाद सिलसिला जारी रखने का साहस हुआ। अब तो दूसरा संग्रह भी लगभग प्रिंट के लिए तैयार है। आजकल देश में जो हालात हैं, लोग निरंतर हाशिये पर धकेले जा रहे हैं, शोषण और दमन के शिकार हैं, वह चिंता का विषय है। मैं समझता हूँ, कविता के जरिए उन्हें वाणी दी जा सकती है, उनके हितों की लड़ाई लड़ी जा सकती है, उनकी संस्कृति, उनकी कलाएँ उनके हुनर को किसी हद तक बचाए रखा जा सकता है।
जीवन के रण में लगातार अलग-थलग पड़ते जा रहे हाशिये के इन लोगों की सुनवाई हमारी कविता ही करती है और उनमें जिजीविषा का संचार करती है। कवि और कविता का ऐसे समय में मूक बने रहना अपराध होगा। यह वह दबाव है, जिनका मुकाबला करते हुए इससे उबरना है। मूल प्रश्नों से कविता को भिड़ना होगा। नागार्जुन और त्रिलोचन की परम्परा को आगे बढ़ाने का यही समय है। आजकल अधिकतर समय तो अध्ययन और उनकी समीक्षाओं में बीत रहा है और जब-जब किसी विचार या समस्या अथवा झकझोरने वाली घटनाएँ उद्वेलित करती हैं और गहरा दबाव बनाती हैं तो कविता आकार लेने लगती है।
कविता शब्दों का संकुल मात्र नहीं है, कविता शब्दों का गुम्फन भर भी नहीं है, कविता शाब्दिक या मानसिक विलासिता के लिए तो कतई नहीं है। कविता उद्देश्यपरक होनी चाहिए। उसके भीतर आत्मा और विचार भी नितांत आवश्यक है। कविता में समसामयिकता के बावजूद मनुष्यता की महत्ता को प्रतिष्ठित करने वाली वैश्विक दृष्टि होनी चाहिए।
आजकल के कवि-सम्मेलनों के हालात पर फारूक आफरीदी का कहना है कि कविता कम और चुटकुलेबाजी अधिक होती है। कवियों के गुट बन गए हैं। मैं समझता हूँ जैसे सिंहों के गुट नहीं होते वैसे कवियों के भी गुट नहीं हो सकते लेकिन हो यही रहा है। अब कवि सम्मेलनों में अच्छी कविताएँ नहीं पढ़ी जातीं। कई कवि तो अपने जीवन में चार कविताएँ लिखकर जीवन भर उन्हीं से मंच लूटते रहे। यही हाल अब भी है। यह सही है कि जब से गंभीर कविता मंच से गायब हुई है, तब से सार्थक कविता लोगों से दूर होती गई। इस तरह आज के कवि मंचों की कोई सार्थक भूमिका नहीं रह गई है। मेरे विचार से कविता को विचार कविता के रूप में छोटे-छोटे मंचों पर पढ़ा जाना चाहिए। लोगों में कविता और उसके शाश्वत उद्देश्य की समझ विकसित करने की जरूरत है।
गांवों की चौपालों पर गंभीर कविता जनमानस की भाषा में पढ़ी जाए, जिनमें उनके दुःख दर्द उनकी जिंदगी के अनुभव, उनके कष्ट और उनसे उभरने के सूत्र उनमें मौजूद हों। अब इश्क या प्रेम की कविता का समय नहीं है। समाज की विसंगतियां और त्रासदियाँ कविता में उकेरी जानी चाहिए ताकि जनमानस में उनसे जूझने का जज्बा पैदा हो और वे निराशा और अवसाद से मुक्त हो सकें। कविता गेय हो या अगेय, इसका ज्यादा फर्क नहीं पड़ता बशर्ते उसका कंटेंट प्रभावी और दिल को छूने वाला हो। सुनने वाले को लगे कि यह उसकी कविता है बल्कि उसके जीवन की कविता है। कविता का कंटेंट महत्वपूर्ण होता है। यह कंटेंट मनुष्य और मनुष्यता की गरिमा की रक्षा करने वाला हो।
‘गेय पक्ष’ का अपना महत्व है। गेय कविता लोगों के कंठों पर लम्बे समय तक बनी रहती है किन्तु कविता मुक्त छंद हो तो वह भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। कविता ‘बदनाम कविताई’ से जितना जल्दी मुक्त हो जाये, उतना ही अच्छा है। कविता तो गलियों, मोहल्लों और चौराहों तक पढ़ी जानी चाहिए। नुक्कड़ नाटकों की तरह नुक्कड़ कविताओं के आयोजन होने चाहिए। कविता में जहाँ भी जन चेतना के स्वर सुनाई देंगे, वे प्रभावी साबित होंगे।
इलीट क्लास कविता को पंचसितारा होटल तक ले गया है। उसके लिए देश और दुनिया में जगह-जगह लिटरेचर फेस्टिवल हो रहे हैं, जिसने कविता को बाजारू बना दिया है, जो कवि को आम आदमी से दूर ले जा रहे हैं। यह कल्चर बढ़ती जा रही है जिसे रोके जाने और इसके सामने जनरुचि के सच्चे, समानांतर साहित्यिक उत्सवों की जरूरत है। चाहे यह बड़े स्तर पर न हो किन्तु इस रचनात्मक दौर की शुरुआत हो चुकी है।
कविता के लोक मानस से जुड़ने के एक सवाल पर वह कहते हैं कि कवि को लोक मानस से जुड़ना होगा। कवि को लोक के अन्तर्मन से जुड़ना होगा। आज लोक के सामने जीवन की बड़ी लड़ाई रोजी रोटी के प्रश्न से जुड़ी हुई है। अन्नदाता किसान आत्महत्या करने को विवश है। उसके सामने वर्चस्व की लड़ाई है। उसके पैरों तले की जमीन खिसक रही है, जिसकी परवाह किसी को नहीं है। दूसरी तरफ धर्म और जात-बिरादरी के नाम पर अलगाववाद की जो मुहीम चल पड़ी है, वह हमारे सांस्कृतिक मूल्यों को ही तिरोहित करने पर आमादा हैं।
मनो-मालिन्य का ऐसा गन्दा दौर हमें कहाँ ले जायेगा और समाजों को बाँटकर क्या हासिल कर लेंगे, जैसे ज्वलंत प्रश्न हमारे सामने हैं। युवाओं को रोजगार के लिए भटकना पड़ रहा है।आम युवा के भीतर असंतोष की ज्वाला भड़क रही है, स्त्रियाँ आज भी परेशानी की गिरफ्त में हैं, शोषण की शिकार हैं और मुक्ति का मार्ग खोज रही हैं। यह कोई कम चिंताजनक नहीं है। साहित्य की अजस्र धारा या कविता ही इस टूटते, बिखरते ताने-बाने को संभाल सकती है। छद्म राष्ट्रवाद के नाम पर जन्म ले रहे उन्माद को साहित्य ही थाम सकता है -
सुनो समय !
तुम्हें रोकता-टोकता नहीं
बस इतना भर चाहता हूँ तुमसे
बच जाएँ संवेदनाएं
नया प्रभात उत्सुकता से झांक रहा है
रोककर एक क्षण पूछ तो लो इससे
कहीं अपने अंक में भरकर वह
अजगर और मगरमच्छ तो
नहीं ला रहा
पूर्वानुसार?
सुनो !
बता दो प्रभात को इतना सा
धरती पर मौजूद है पहले से ही
अश्रु भरे समंदर
प्रदूषित हुई अमृत भारी पोटलियाँ
सुनो !
यह तो जरूर पूछ लो अब की बार
अपने अंक में भरकर
वह समुद्र सी गहराई
हिम शिखर सी ऊंचाई
नैसर्गिक सुन्दरता
सदभावों की सरलता
लीलने तो नहीं आ रहा?
सुनो !
एक क्षण तो रोककर पूछ लो।
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