महाप्राण निराला का प्रिय स्वतंत्र रव, अमृत मंत्र नव
22 जनवरी, वसंत पंचमी पर विशेष...
साहित्य और संस्कृति में यह भी एक बड़ी अजीब सी परंपरा पड़ चुकी है कि कविवर सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का जन्मदिन वसंत-पंचमी को मनाया जाता है। लोगों ने मान लिया है कि किसी और दिन उनका जन्म हो ही नहीं सकता क्योंकि वसंत-पंचमी के दिन सरस्वती की पूजा होती है और निराला सरस्वती के वरद पुत्र थे। निराला जी का वास्तविक जन्मदिन 21 फरवरी 1896 है। वसंत पंचमी को निरालाजी की जन्मदिन इसलिए मनाया जाता है कि उस वर्ष 21 फरवरी 1896 को ही वसंत पंचमी थी। इसलिए निराला जी स्वयं अपना जन्मदिन अंग्रेजी तिथि की बजाय बसंत पंचमी को ही मनाते रहे थे। इस बार वसंत पंचमी 22 जनवरी को मनाई जा रही है...
निराला जी के पिता ने उनका नाम सूर्यकुमार तिवारी रखा था। बचपन में वह गोली खेलने में उस्ताद थे। वह शुरू से ही विद्रोही मन-मिजाज के रहे। जनेऊ, जात-पांत, ऊंच-नीच के भेदभाव से परे। तेरह वर्षीय मनोहरा देवी से उनकी शादी हुई।
वसंत पंचमी पर सबसे पहले ‘वर दे वीणा वादिनी’ पंक्ति स्मृति में कौंधती है। ये पंक्ति है हिन्दी साहित्य की अमर विभूति महाप्राण निराला की। साहित्य और संस्कृति में यह भी एक बड़ी अजीब सी परंपरा पड़ चुकी है कि कविवर सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का जन्मदिन वसंत-पंचमी को मनाया जाता है। लोगों ने मान लिया है कि किसी और दिन उनका जन्म हो ही नहीं सकता क्योंकि वसंत-पंचमी के दिन सरस्वती की पूजा होती है और निराला सरस्वती के वरद पुत्र थे। निराला जी का वास्तविक जन्मदिन 21 फरवरी 1896 है। वसंत पंचमी को निरालाजी की जन्मदिन इसलिए मनाया जाता है कि उस वर्ष 21 फरवरी 1896 को ही वसंत पंचमी थी। इसलिए निराला जी स्वयं अपना जन्मदिन अंग्रेजी तिथि की बजाय बसंत पंचमी को ही मनाते रहे थे।
खैर, महाप्राण निराला से जुड़ी तमाम ऐसी बातें हैं, जिन्हें लिखिए तो लिखते ही जाइए, अनवरत, अनंत काल तक। भारतीय हिंदी साहित्य में वह एक मात्र ऐसे महाकवि लगते हैं, जिनके शब्द आज भी उतने ही अपराजेय, प्रभावी, शाश्वत और आधुनिक हैं। उनकी रचनाओं पर जितने तरह की बातें हैं, उनके व्यक्तित्व पर भी उससे कुछ कम नहीं। पूरे साहित्य जगत को ज्ञात है कि निराला जी को पूरी गंभीरता और निष्ठा से सबसे पहले प्रसिद्ध हिंदी आलोचक रामविलास शर्मा ने ‘निराला की साहित्य साधना’ पुस्तक-श्रृंखला के माध्यम से सुपरिचित कराया था। निराला जी रामचरित मानस के रचयिता तुलसी दास को अपना प्रतिनिधि कवि मानते थे और रामविलास शर्मा निराला जी को। अपने 'फुरसतिया' पटल पर अनूप शुक्ला लिखते हैं - 'निरालाजी को कवि निराला बनने के लिये प्रेरित करने में उनकी जीवन संगिनी की भूमिका उल्लेखनीय थी। रामविलास शर्मा लिखते हैं -
यह कवि अपराजेय निराला,
जिसको मिला गरल का प्याला;
ढहा और तन टूट चुका है,
पर जिसका माथा न झुका है;
शिथिल त्वचा ढलढल है छाती,
लेकिन अभी संभाले थाती,
और उठाये विजय पताका-
यह कवि है अपनी जनता का!
'जनकवि निराला से रामविलास शर्मा की जब पहली मुलाकात हुई तो वह लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्र थे। एक साल बाद एमए की परीक्षा देकर एक दिन रामविलास शर्मा निराला का कविता संग्रह ‘परिमल’ खरीदने के लिए सरस्वती पुस्तक भंडार गए। पुस्तक लेकर वह चलने ही वाले थे कि इतने में निरालाजी आ गए। उन्होंने पूछा- यह किताब आप क्यों खरीद रहे हैं? रामविलास जी ने कहा- इसलिये कि मैं इसे पढ़ चुका हूं। निराला जी ने आंखों में ताज्जुब भरते हुए प्रतिप्रश्न किया- तब? रामविलास जी ने जवाब दिया- मैं तो बहुत कम किताबें खरीदता हूं। इसकी कविताएं मुझे अच्छी लगती हैं। उन्हें जब इच्छा हो तब पढ़ सकूं, इसलिये खरीद रहा हूं। निराला जी ने उनके हाथ से किताब लेकर पीछे के पन्ने पलटते हुए कहा- शायद ये बाद की (मुक्तछन्द) की रचनाएं आपको न पसन्द हों। रामविलास जी ने कहा - वही तो मुझको सबसे ज्यादा पसन्द हैं। पता नहीं आपने तुकान्त रचनाएं क्यों कीं? इसके बाद वह मिल्टन, शेली, ब्राउनिंग आदि अंग्रेज कवियों के बारे में खोद-खोदकर सवाल करते रहे। निराला जी सुनते रहे।'
अनूप शुक्ल बताते हैं कि निराला जी के पिता ने उनका नाम सूर्यकुमार तिवारी रखा था। बचपन में वह गोली खेलने में उस्ताद थे। वह शुरू से ही विद्रोही मन-मिजाज के रहे। जनेऊ, जात-पांत, ऊंच-नीच के भेदभाव से परे। तेरह वर्षीय मनोहरा देवी से उनकी शादी हुई। एक दिन सुर्यकुमार ने मनोहरा देवी से कहा- 'अपने बाल सूंघो? तेल की ऐसी चीकट और बदबू है कि कभी-कभी मालूम होता है कि तुम्हारे मुंह पर कै कर दूं।' और बीते वक्त में एक दिन पुत्र रामकृष्ण और पुत्री सरोज को जन्म देने के बाद मनोहरा देवी चल बसीं। आखिरी वक्त में मुलाकात भी न हो सकी। कलकत्ते से प्रकाशित 'मतवाला' में काम करते हुए सूर्यकांत त्रिपाठी ने अपने नाम के साथ उपनाम जोड़ लिया- 'निराला'।
एक बार दुलारे लाल भार्गव के यहां ओरछा नरेश की पार्टी थी। राज्य के भूतपूर्व दीवान शुकदेव बिहारी मिश्र तथा नगर के अन्य गणमान्य साहित्यकार उपस्थित थे। जब ओरछा नरेश आये तो सब लोग उठकर खड़े हो गये। निराला अपनी कुर्सी पर बैठे रहे। लोगों ने कानाफूसी की- कैसी हेकड़ी है निराला में! रायबहादुर शुकदेव बिहारी मिश्र हर साहित्यकार से राजा का परिचय कराते हुये कहते-गरीब परवर, ये फलाने हैं। बुजुर्ग लेखक शुकदेवबिहारी युवक राजा को गरीबपरवर कहें, निराला को बुरा लगा। जब वह निराला का परिचय देने को हुए तो निराला उठ खड़े हुए। उन्होंने कहा- हम वह हैं, हम वह हैं जिनके बाप-दादों की पालकी तुम्हारे बाप-दादों के बाप-दादा उठाया करते थे।
उत्तराखंड के कवि चंद्रकुँवर वर्त्वाल और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला 1939 से 42 तक लखनऊ में एक-दूसरे के सम्पर्क में रहे। उसके बाद परिस्थितियां ऐसी बनीं कि दोनों बिछुड़ गये। अस्वस्थ होने के कारण वर्त्वाल हिमवंत की ओर चले गये। निराला भी उन दिनों अस्वस्थ थे। यातनाओं के बीच उनका जीवन चल रहा था। एक दिन वर्त्वाल ने निराला को पत्र के रूप में ‘मृत्युंजय’ कविता भेजी जो उनके जीवन तथा निराला के काव्य की उच्चतम व्याख्या है-
सहो अमर कवि ! अत्याचार सहो जीवन के,
सहो धरा के कंटक, निष्ठुर वज्र गगन के !
कुपित देवता हैं तुम पर हे कवि, गा गाकर
क्योंकि अमर करते तुम दु:ख-सुख मर्त्य भुवन के,
कुपित दास हैं तुम पर, क्योंकि न तुमने अपना शीश झुकाया
छंदों और प्रथाओं के निर्बल में,
किसी भांति भी बंध ने सकी ऊँचे शैलों से
गरज-गरज आती हुई तुम्हारे निर्मल
और स्वच्छ गीतों की वज्र-हास सी काया !
निर्धनता को सहो, तुम्हारी यह निर्धनता
एक मात्र निधि होगी, कभी देश जीवन की !
अश्रु बहाओ, छिपी तुम्हारे अश्रु कणों में,
एक अमर वह शक्ति, न जिस को मंद करेगी,
मलिन पतन से भरी रात सुनसान मरण की !
अंजलियां भर-भर सहर्ष पीवो जीवन का
तीक्ष्ण हलाहल, और न भूलो सुधा सात्विकी,
पीने में विष-सी लगती है, किन्तु पान कर
मृत्युंजय कर देती है मानक जीवन को !
अनिल रघुराज लिखते हैं - हर बसंत पंचमी को निराला और इलाहाबाद बहुत याद आते हैं। बसंत पंचमी का मतलब इलाहाबाद में पढ़ने के दौरान ही समझा क्योंकि महाप्राण निराला का जन्मदिन हम लोग पूरे ढोल-मृदंग के साथ इसी दिन मनाते थे। हिंदुस्तानी एकेडमी या कहीं और शहर के तमाम स्थापित साहित्यकारों और नए साहित्य प्रेमियों का जमावड़ा लगता था। निराला की कविताएं बाकायदा गाई जाती थीं। नास्तिक होते हुए भी हम वीणा-वादिनी से वर मांगते थे और अंदर ही अंदर भाव-विभोर हो जाते थे।
सोचने की ज़रूरत भी नहीं समझते थे कि जो सूर्यकांत त्रिपाठी निराला संगम से मछलियां पकड़कर लाने के बाद दारागंज में हनुमान मंदिर की ड्योढी़ पर मछलियों का मुंह खोलकर भगवान और पंडितों को चिढ़ाते थे, वह मां सरस्वती की वंदना कैसे लिख सकते हैं। बाद में समझ में आया कि सरस्वती तो बस सृजनात्मकता की प्रतीक हैं। जिस बसंत में पाकिस्तान में जबरदस्त उत्सव मनाया जाता है, उस बसंत की पंचमी का रंग भगवा नहीं हो सकता। यह सभी के लिए बासंती रंग में रंग जाने का उत्सव है, सृजन के अवरुद्ध द्वारों को खोलने का अवसर है। इस अवसर पर अगर निराला की कविता का पाठ नहीं किया तो बहुत अधूरापन लगेगा। इसलिए चलिए कहते हैं काट अंध उर के बंधन स्तर, बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर...
वर दे वीणा-वादिनी वर दे।
प्रिय स्वतंत्र रव, अमृत मंत्र नव
भारत में भर दे।
काट अंध उर के बंधन स्तर
बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर
कलुष भेद तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे।
वर दे वीणा-वादिनी वर दे...
नव गति नव लय ताल-छंद नव
नवल कंठ नव जलद मंद्र रव
नव नभ के नव विहग वृंद को
नव पर नव स्वर दे।
वर दे वीणा-वादिनी वर दे...
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