'जब कड़ी मारें पड़ीं, दिल हिल गया': सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'
संघर्षशील उतार-चढ़ावों से गुजरा 'महाप्राण' सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का व्यावहारिक जीवन अलग तरह के अनुभवों से सामना कराता है लेकिन उनकी साहित्य साधना हिन्दी कविता के छायावादी युग के एक प्रमुख स्तंभ के रूप में उनसे हमारा परिचय कराती है।
वह मस्तमौला, यायावर तो थे ही, फकीरी में भी दानबहादुरी ऐसी कि जेब का आखिरी आना-पाई तक मुफलिसों पर लुटा आते थे। नया रजाई-गद्दा रेलवे स्टेशन के भिखारियों को दान कर खुद थरथर जाड़ में फटी रजाई तानकर सो जाते थे।
जीवन की ऐसी विसंगतियां-उलटबासियां शायद ही किसी अन्य महान कवि-साहित्यकार की सुनने-पढ़ने को मिलें, जैसी की महाप्राण के बारे में। सुख-दुख की कई अनकही-अलिखित-अपठित गाथाएं निराला जी के जीवन से जुड़ी हैं।
जब कड़ी मारें पड़ीं, दिल हिल गया
पर न कर चूँ भी, कभी पाया यहाँ;
मुक्ति की तब युक्ति से मिल खिल गया
भाव, जिसका चाव है छाया यहाँ।
संघर्षशील उतार-चढ़ावों से गुजरा 'महाप्राण' सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का व्यावहारिक जीवन अलग तरह के अनुभवों से सामना कराता है लेकिन उनकी साहित्य साधना हिन्दी कविता के छायावादी युग के एक प्रमुख स्तंभ के रूप में उनसे हमारा परिचय कराती है। वह मस्तमौला, यायावर तो थे ही, फकीरी में भी दानबहादुरी ऐसी कि जेब का आखिरी आना-पाई तक मुफलिसों पर लुटा आते थे। नया रजाई-गद्दा रेलवे स्टेशन के भिखारियों को दान कर खुद थरथर जाड़ में फटी रजाई तानकर सो जाते थे। जीवन की ऐसी विसंगतियां-उलटबासियां शायद ही किसी अन्य महान कवि-साहित्यकार की सुनने-पढ़ने को मिलें, जैसी की महाप्राण के बारे में। तभी तो वह जीवन और समाज की ऐसी असह सच्चाइयों को ऐसे अमर शब्द दे पाए-
दो टूक कलेजे के करता पछताता, पथ पर आता।
पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठी भर दाने को, भूख मिटाने को
मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।
साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाये,
बायें से वे मलते हुए पेट को चलते,
और दाहिना दया दृष्टि-पाने की ओर बढ़ाये।
भूख से सूख ओठ जब जाते
दाता-भाग्य विधाता से क्या पाते?
घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते।
चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए,
और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए!
सुख-दुख की ऐसी कई अनकही-अलिखित-अपठित गाथाएं निराला जी के जीवन से जुड़ी हैं। जग जानता है, कवयित्री महादेवी वर्मा से निराला जी का भाई-बहन जैसा रिश्ता था। एक बार वह रक्षा-बंधन के दिन सुबह-सुबह महादेवी जी के घर पहुँच गए। रिक्शा रुका। दरवाजे के बाहर से ही चिल्लाए- 'दीदी, जरा बारह रुपए तो लेकर आना।' बारह रुपए लेकर महादेवी जी बाहर निकलीं, पूछा- 'यह तो बताओ भैया, यह सुबह-सुबह बारह रुपए का क्या करोगे?' निरालाजी बोले- 'ये दुई रुपया तो इस रिक्शा वाले को। अब बचे दस रुपए। ये तुम्हारे लिए। तुम से राखी बँधवाऊंगा तो देने के लिए पैसे कहां से आएंगे!'
उत्तर प्रदेश के शीर्ष शिक्षाधिकारी रहे साहित्यकार श्रीनारायण चतुर्वेदी के ठिकाने पर वह अक्सर लखनऊ पहुंच जाया करते थे। और वहां कब तक रहेंगे, कब अचानक कहीं और चले जाएंगे, कोई तय नहीं होता था। श्रीनारायण चुतर्वेदी के साथ निरालाजी के कई प्रसंग जुड़े हैं। लोग चतुर्वेदीजी को सम्मान से 'भैयाजी' कहते थे। वह कवि-साहित्यकारों को मंच दिलाने से लेकर उनकी रचनाओं के प्रकाशन, आतिथ्य, निजी आर्थिक जरूरतें पूरी कराने तक में हर वक्त तत्पर रहते थे।
वह सर्दियों का दिन था। कवि-सम्मेलन खत्म होने के बाद एक बार भैयाजी बनारसी, श्यामनारायण पांडेय, चोंच बनारसी समेत चार-पांच कवि सुबह-सुबह चतुर्वेदीजी के आवास पर पहुंचे। सीढ़ियों से सीधे उनके कमरे में पहुंचते ही एक स्वर में पूछ बैठे - 'भैयाजी नीचे के खाली कमरे में फर्श पर फटी रजाई ओढ़े कौन सो रहा है? सिर तो रजाई में लिपटा है और पायताने की फटी रजाई से दोनों पांव झांक रहे हैं।' चतुर्वेदीजी ने ठहाका लगाया - 'अरे और कौन होगा! वही महापुरुष हैं।... निरालाजी। ... क्या करें जो भी रजाई-बिछौना देता हूं, रेलवे स्टेशन के भिखारियों को बांट आते हैं। अभी लंदन से लौटकर दो महंगी रजाइयां लाया था। उनमें एक उनके लिए खरीदी थी, दे दिया। पिछले दिनो पहले एक रजाई और गद्दा दान कर आए। दूसरी अपनी दी, तो उसे भी बांट आए। फटी रजाई घर में पड़ी थी। दे दिया कि लो, ओढ़ो। रोज-रोज इतनी रजाइयां कहां से लाऊं कि वो दान करते फिरें, मैं इंतजाम करता रहूं।'
इसके बाद छत की रेलिंग पर पहुंचकर मुस्कराते हुए चतुर्वेदी जी ने मनोविनोद के लिए इतने जोर से नीचे किसी व्यक्ति को कवियों के नाश्ते के लिए जलेबी लाने को कहा, ताकि आवाज निरालाजी के भी कानों तक पहुंच जाए। जलेबी आ गई। निरालाजी को किसी ने नाश्ते के लिए बुलाया नहीं। गुस्से में फटी रजाई ओढ़े वह स्वयं धड़धड़ाते कमरे से बाहर निकले और मुंह उठाकर चीखे - 'मुझे नहीं खानी आपकी जलेबी।' और तेजी से जलेबी खाने रेलवे स्टेशन निकल गए। इसके बाद ऊपर जोर का ठहाका गूंजा। लौटे तो वह फटी रजाई भी दान कर आए थे।
निरालाजी चाहे कितने भी गुस्से में हों, चतुर्वेदीजी की कदापि, कभी तनिक अवज्ञा नहीं करते थे। एक बार क्या हुआ कि, कवि-सम्मेलन में संचालक ने सरस्वती वंदना (वर दे वीणा वादिनी..) के लिए निरालाजी का नाम माइक से पुकारा। वह मंच की बजाए, गुस्से से लाल-पीले श्रोताओं के बीच जा बैठे थे। मंच पर हारमोनियम भी रखा था। पहले से तय था, सरस्वती वंदना का सस्वर पाठ निरालाजी को ही करना है, लेकिन उन्हें बताया नहीं गया था। निरालाजी बैठे-बैठे जोर से चीखे, 'मैं नहीं करूंगा सरस्वती वंदना।' इसके बाद एक-एक कर मंचासीन दो-तीन महाकवियों ने उनसे अनुनय-विनय किया। निरालाजी टस-से-मस नहीं। मंच पर श्रीनारायण चतुर्वेदी भी थे। उन्होंने संचालक से कहा - 'मंच पर आएंगे कैसे नहीं, अभी लो, देखो, उन्हें कैसे बुलाता हूं मैं।' वह निरालाजी को मनाने की कला जानते थे। उन्होंने माइक से घोषणा की, 'निरालाजी आज कविता पाठ नहीं करेंगे। उनकी तबीयत ठीक नहीं है।' तत्क्षण निरालाजी चीखे और उठ खड़े हुए - 'आपको कैसे मालूम, मेरी तबीयत खराब है! सुनाऊंगा। जरूर सुनाऊंगा।' और फिर तो हारमोनियम पर देर तक उनके स्वर गूंजते रहे।
फ़िराक़ गोरखपुरी और निराला जी की दोस्ती के भी कई किस्से हैं। रमेश चंद्र द्विवेदी लिखते हैं- 'फ़िराक़ और निराला में दोस्ती तो थी, लेकिन जम कर लड़ाई भी होती थी। वह नौकर से निराला के लिए रिक्शा मंगवाते और गेट तक उन्हें छोड़ने जाते। वो रिक्शेवाले को पैसा पहले ही दे दिया करते थे। वह खुद ही निराला से कविता सुनाने के लिए ज़िद करते और जब निरालाजी कविता पढ़ना बंद कर देते तो वह उनकी कविता में ख़ामियां बयान करते। निरालाजी पहले तो सुनते और फिर जब उनसे न रहा जाता तो बरस पड़ते और फिर तो छतें हिलने लगतीं। कभी-कभी निरालाजी अंग्रेज़ी में लड़ाई लड़ते मगर फ़िराक़ उनका जवाब हिंदी में देते थे। जब भी निराला आते नौकर को भेज कर एक बोतल महुए की शराब मंगाई जाती। निरालाजी के लिए कोरमा, कबाब, भुना हुआ गोश्त, पुलाव, मिठाइयाँ सब कुछ रहता। फ़िराक़ अंदर आकर बार-बार चिल्ला जाते- ख़बरदार, कुछ कम न पड़ने पाए।'
उन दिनो अज्ञेय जी का निराला जी के यहां आना-जाना था। अज्ञेय जी पहली बार जब निराला जी से मिलने पहुंचे, 'उग्र' जी भी विराजमान थे। आमने-सामने दोनो के बीच दो अधभरे गिलास और हाथों में अधजले सिगरेट। उग्रजी ने निराला जी से परिचय दिया -
'यह अज्ञेय है।'
निरालाजी ने पहले तो सिर से पैर तक उन्हे देखा, नमस्कार के जवाब में बोले, 'बैठो।'
अज्ञेय जी बैठने ही जा रहे थे, बोले- 'जरा सीधे खड़े हो जाओ।'
अज्ञेय जी सीधे खड़े हो गए। निरालाजी भी खड़े। दोबारा उन पर सिर से पैर तक आंखें दौड़ाने के बाद बैठते हुए उग्रजी से बोले- 'ठीक है। डौल तो रामबिलास जैसा ही है।'
अज्ञेयजी लिखते हैं, निराला का पागलपन 'जीनियस का पागलपन' था, इसीलिए वह सहज ही प्रकृतावस्था में लौट आते थे।'
एक बार वह शिवमंगल सिंह सुमन के साथ निरालाजी से मिलने पहुंचे। सुमनजी पूछ बैठे- 'निरालाजी, आजकल आप क्या लिख रहे हैं?'
निराला ने कहा- 'निराला? कौन निराला? निराला तो मर गया। निराला इज़ डेड।'
इसी तरह एक बार कविसम्मेलन में पंडित श्याम नारायण पांडेय 'हल्दीघाटी' की कविता सुना रहे थे-
'रण बीच चौकड़ी भर-भर कर चेतक बन गया निराला था..'।
मंच से निरालाजी चौंके- 'क्या कहा...... निराला था?'
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