सरोजनी प्रीतम ने नई व्यंग्य विधा को दिया जन्म
हिंदी कविता में हंसिका नाम से नई विधा को जन्म देने वाली प्रसिद्ध व्यंग्य लेखिका डॉ सरोजिनी प्रीतम का आज (06 अक्तूबर) जन्म दिन है। एक जमाने में हिंदी की श्रेष्ठ पत्रिकाओं 'धर्मयुग' और 'साहित्यिक हिंदुस्तान' के अलावा अखबारों की साप्ताहिक परिशिष्ट में वह आए दिनो पाठकों को गुदगुदाया करती थीं।
हिन्दी साहित्य में एमए एवं 'स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी कहानी में नगर जीवन' विषय से पीएचडी डॉ सरोजनी प्रीतम ने अपनी 'हंसिकाओं' से दुनिया भर के पाठकों और श्रोताओं को प्रभावित किया।
'धर्मयुग' और 'साहित्यिक हिंदुस्तान' के जमाने से व्यंग्य-जगत में विख्यात डॉक्टर सरोजनी प्रीतम हिन्दी की एकमात्र ऐसी महिला व्यंग्य-लेखिका हैं, जिन्होंने 'हंसिका' नाम की एक नई विधा को जन्म दिया। अपने तीखे-चुटीले, धारदार व्यंग्य से हिन्दी साहित्य जगत को समृद्ध करने वाली सरोजनी प्रीतम को नारी वेदना की सजीव अभिव्यक्ति के लिए विशेष तौर पर जाना जाता है। हिन्दी साहित्य की अध्येता रहीं सरोजनी प्रीतम ने पहली रचना महज मात्र 11 साल की उम्र में प्रकृति को कथ्य मानकर लिखी थी। उनके लेखन में गद्य एवं पद्य दोनों में समान अधिकार से व्यंग्य एवं वेदना व्यक्त हुई है। वह अपनी हंसिकाओं में हँसी की स्थितियों पर प्रहार कर उसमें मनोरंजन का एक नया पुट डालने और फिर मसालेदार चटपटा बनाकर गरमा-गरम परोसने की कोशिश करती हैं- 'यह जूते आपको कैसे लगते हैं यह तो नहीं कह सकती पर इन्हें मैं आपके चरणों में नहीं हाथों में सौंप रही हूँ।' एक वक्त था, जब हर सप्ताह, हर माह हिंदी पाठकों को पत्र-पत्रिकाओं में उनकी हंसिकाएं पढ़ने को मिलती थीं। उनकी एक हंसिका है दर्पण -
साहित्यकार पति ने कहा -
साहित्य को सब अर्पण है,
साहित्य समाज का दर्पण है,
दर्पण सुनकर वह बोली -
'ठीक है इससे ज्यादा सिर मत फोड़ना,
और हाँ एकाध दर्पण
मुँह देखने के लिए भी रख छोड़ना।
हिन्दी साहित्य में एमए एवं 'स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी कहानी में नगर जीवन' विषय से पीएचडी डॉ सरोजनी प्रीतम ने अपनी 'हंसिकाओं' से दुनिया भर के पाठकों और श्रोताओं को प्रभावित किया। उनकी हंसिकाओं का नेपाली, गुजराती, सिंधी, पंजाबी सहित कई भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। उनकी एक हंसिका है 'सूली' -
तिलक माला लाये, किया चंदन से अभिषेक,
बलि के बकरे सी हुई, दुल्हन की गति देख,
खुशी से फूली फूली,
चढ़ेगी हँस-हँस सूली।
सरोजिनी प्रीतम हास्य व्यंग्य तथा संवेदनशील काव्य लेखन के क्षेत्र में भीसक्रिय रही हैं। उन्होंने दूरदर्शन व अन्य मन्त्रालयों के लिये विशिष्ट कार्यक्रमों का निर्माण भी किया है। उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं - हँसिकाएँ ही हँसिकाएँ, मेरी प्रतिनिधि हँसिकाएँ, चूहे और आदमी में फर्क, प्रतिनिधि हास्य व्यंग संकलन, कोयल का है गला खराब, इक्यावन श्रेष्ठ व्यंग्य कथाएँ, आखिरी स्वयंवर, लाइन पर लाइन, छक्केलाल, डंक का डंक, लेखक के सींग, आर्शीवाद के फूल, गिनतीलाल की छीक, उदासचन्द, पंखों वाला पेड़, आफत की पुतले, मूसाराम की मूछें, प्रतिनिधि हास्य व्यंग्य बाल कथाएं, चलना सीखो, अलटू पलटू की अक्षरमाला, सुबोध बाल गीत, हँसो-हंसाओ, हे बुद्ध लौटो तो। उन्होंने कई हास्य उपन्यास भी लिखे, जैसे- बिके हुए लोग, एक थी शान्ता, सनकी बाई शंकरी। उनकी एक औपन्यासिक कृति विज्ञान पर आधारित है- अंधेरे की चट्टान। कम से कम शब्दों में उनकी हंसिकाओं की तीक्ष्णता देखते ही बनती है, जैसे यह 'प्रत्युत्तर' शीर्षक हंसिका -
रावण ने आटा लेने के लिए
भिखारी का रूप धारण किया,
श्रीराम ने उसे-
आटे-दाल का भाव बता दिया।
सरोजिनी प्रीतम लेखन के साथ साथ मंचों पर भी सक्रिय रहीं। उनकी हँसिकाओं को खासकर 1970 के दशक से देश-विदेश में लोकप्रियता प्राप्त होने लगी थी। उन्होंने 1974 से 'धर्मयुग' तथा 'कादंबिनी' में नियमित रूप से हँसिकाएँ स्तंभ लिखना प्रारंभ किया। यह सिलसिला 'धर्मयुग' में 1980 तथा 'कादंबिनी' में 2003 तक नियमित रूप से जारी रहा। इसके बाद वह नवभारत समूह के सांध्य टाइम्स में 'काँटा लगा' स्तंभ में हँसिकाएँ लिखती रहीं। सरोजिनी जी 'धारणाएँ' शीर्षक हंसिका:
तथाकथित संतों, महन्तों ने
धारणाएँ बदल दीं,
मुहावरों पर गाज गिरी,
मुँह में राम-राम-
बगल में छप्पन छुरी।
अपनी खास विधा हंसिका से हिंदी साहित्य को समृद्ध करने वाली डॉ सरोजिनी प्रीतम को विशिष्ट साहित्यिक सेवाओं के लिए 'हिन्दी अकादमी', 'कामिल बुल्के' जैसे श्रेष्ठ सम्मानों से समादृत किया गया। उन्होंने दूरदर्शन के लिए टेलीफिल्म 'सैनिक की बेटी' लिखने के अलावा एक लंबी कविता भी लिखी- 'सीता का महाप्रयाण'। उनके सृजन के केंद्र में हमेशा स्त्री की वेदना रही।
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