भारत का वो पहला डांसिंग स्टार जो अमिताभ, मिथुन और गोविंदा के लिए बना प्रेरणा
रोते-रोते चला गया दुनिया को हंसाने वाला
एक संघर्षरत कपड़ा मिल मजदूर के घर पैदा हुए प्रसिद्ध अभिनेता-निर्देशक भगवान दादा उन दुर्भाग्यशाली कलाकारों में रहे हैं, जिनके साथ अवसान के दिनो में फिल्म इंडस्ट्री ने वही सुलूक किया, जैसा कभी शैलेंद्र, परवीन बॉबी, कादिर खान, महमूद आदि के साथ कर चुका था। एक अग्निकांड ने उनकी जीवन भर की पूंजी बर्बाद कर दी। दुनिया को हंसाने वाले भगवान दादा अपने आखिरी भयानक दुर्दिन में आज (04 फरवरी) ही के दिन दुनिया से विदा हो गए थे।
भगवान दादा की जिंदगी में 1940 का दशक सबसे कामयाब माना जाता है। उसी दशक में उन्होंने कई फ़िल्मों में यादगार भूमिकाएँ निभाईं, जिनमें प्रमुख थीं 'बेवफा आशिक', 'दोस्ती', 'तुम्हारी कसम', 'शौकीन' आदि।
महाराष्ट्र के अमरावती में 01 अगस्त, 1913 को एक कपड़ा मिल मजदूर के घर पैदा हुए भगवान दादा (असली नाम भगवान आभाजी पालव) एक ओर तो बचपन से ही घरेलू दुर्दिन से लड़ने लगे थे, दूसरी ओर जंगल में मंगल की तरह उनके सिर पर हर वक्त फिल्मों का नशा छाया रहता था। पढ़ाई-लिखाई में जरा भी मन नहीं लगता था। माता-पिता से इस गैरजिम्मेदारी के लिए उन्हें प्रायः रोजाना ही झिड़कियां बर्दाश्त करनी पड़ती थीं लेकिन दादा भला कब पीछे हटने वाले थे। वह अपनी धुन में मस्तमौला कदमताल करते रहे। ऐसे दिनों में उन्हें रोजी-रोटी के लिए मजदूरी करनी पड़ी। इस दौरान वह अपना शरीर बनाने पर भी ध्यान देने लगे। उधर, फिल्मों में काम करने के लिए मशक्कत भी करते रहे। काम में मन नहीं लगता था।
हर वक्त एक ही सवाल उनके मन को मथता रहता कि क्या कभी उन्हें भी फिल्मों में काम करने का मौका मिल सकता है। आखिर एक दिन उनकी जिंदगी में वह मोड़ ही आ गया। उन्हें सबसे पहले मूक फिल्मों में छोटी-छोटी भूमिकाएं मिलनी शुरू हुई थीं। सन् 1930 में निर्माता सिराज अली हकीम की मूक फ़िल्म 'बेवफा आशिक' में एक कॉमेडियन के रूप में उन्हें पहला ब्रेक मिला। फिर तो वह एक एक कर कई मूक फ़िल्मों में काम करते हुए एक बड़े दर्शक वर्ग के पसंदीदा कलाकार के रूप में चर्चित होने लगे। बोलती फ़िल्मों का दौर शुरू होने के साथ ही उनके जीवन में दूसरा महत्वपूर्ण दौर आया।
वह अपने जीवन में कठिन वक्त से लगातार मुकाबला करते रहे। वह अपनी जड़ों से कभी कटे नहीं। फ़िल्मों में भी इसी तरह के जुझारू, कामकाजी वर्ग के लोगों, मील मज़दूरों आदि के जीवन संघर्षों को रेखांकित किया। ऐसी ही उनकी पहली बोलती फिल्म थी 'हिम्मत ए मर्दा'। भगवान दादा से कभी मीलों के मज़दूरों के साथ अपने सरोकार नहीं बदले। उन्होंने मीलों के कई होनहार और प्रतिभावान लोगों को यथासंभव अपने फ़िल्म निर्माण में अवसर दिए। सुपरस्टार बनने के बाद भी जब भी वह घर पहुंचते, अपने पड़ोसियों, दोस्त-मित्रों के साथ पूरी आत्मीयता से वक्त बिताते।
भगवान दादा की जिंदगी में सन 1940 का दशक सबसे कामयाब माना जाता है। उसी दशक में उन्होंने कई फ़िल्मों में यादगार भूमिकाएँ निभाईं, जिनमें प्रमुख थीं 'बेवफा आशिक', 'दोस्ती', 'तुम्हारी कसम', 'शौकीन' आदि। इस दौरान भगवान दादा ने अपनी लगन से फ़िल्म निर्माण से जुड़ी अन्य विधाओं का भी अच्छा ज्ञान अर्जित कर लिया। सन् 1934 में प्रदर्शित 'हिम्मत-ए-मर्दां' उनकी पहली बोलती फ़िल्म थी। सन् 1938 से 1949 के बीच उन्होंने कम बजट वाली कई स्टंट फ़िल्मों एवं एक्शन फ़िल्मों का निर्देशन किया। उन फ़िल्मों को समाज के कामकाजी वर्ग के बीच अच्छी लोकप्रियता मिली। उन फ़िल्मों में 'दोस्ती', 'जालान', 'क्रिमिनल', 'भेदी बंगला' आदि प्रमुख हैं।
तब तक भगवान दादा अभिनय के साथ ही फ़िल्मों के निर्माण और निर्देशन में भी दिलचस्पी लेने लगे थे। उन्होंने जागृति मिक्स और भगवान आर्ट्स प्रोडक्शन के बैनर तले कई फ़िल्में बनाईं जो समाज के एक वर्ग में विशेष रूप से लोकप्रिय हुईं। इन फ़िल्मों में 'मतलबी', 'लालच', 'मतवाले', 'बदला' आदि उल्लेखनीय हैं। पहली बार उन्होंने कम बजट की फ़िल्म स्वयं बनाने के लिए किसी तरह 65 हजार रुपए जुटाए। भगवान दादा हिंदी सिनेमा के पहले डांसिंग मास्टर माने जाते हैं। अभिनय के बाद वह व्यक्तिगत प्रशिक्षण के लिए अपना ज्यादा से ज्यादा वक्त सेट पर ही बिताते थे। उन्होंने ही पहली बार सिर पर बडी सी टोपी रख कर डांस करने की फिल्म इंडस्ट्री को सीख दी।
वह अपनी फ़िल्मों को अपनी गलियों में भी सभी लोगों को एकत्रित करके दिखाया करते थे। धीरे धीरे उन्होंने चैंबूर में जागृति पिक्स व भगवान आर्ट्स प्रोडक्शन के रूप में हाउस शुरू किया। राजकपूर ने भगवान दादा के अभिनय और निर्देश से प्रभावित होकर उनको सामाजिक फ़िल्में बनाने की राय दी थी। उसके बाद ही उन्होंने 'अलबेला' फ़िल्म बनाई थी। इसमें भगवान दादा के अलावा गीता बाली की प्रमुख भूमिका रही थी। इस फ़िल्म के संगीतकार सी. रामचंद्रन थे और उन्होंने ही इसमें चितलकर के नाम से पार्श्व गायन भी किया था। अलबेला फ़िल्म अपने दौर में सुपर हिट रही और कई स्थानों पर इसने जुबली मनाई। इस फ़िल्म के गीत-संगीत का जादू सिने प्रेमियों के सर चढ़ कर बोला। इसका एक गीत 'शोला जो भड़के दिल मेरा धड़के' आज भी खूब पसंद किया जाता है।
भगवान दादा की ज्यादातर एक्शन फ़िल्में कम बजट वाली होती थीं। वह अपनी प्रसिद्ध सामाजिक और हास्य फ़िल्म 'अलबेला' के लिए मुख्य रूप से याद किए जाते हैं। हिन्दी फ़िल्मों में नृत्य की एक विशेष शैली की उन्होंने शुरूआत की। आज की पीढ़ी के कई बड़े कलाकार उस जमाने में भगवान दादा को देखते, सीखते हुए आगे बढ़े, जिनमें एक सदी के महानायक अमिताभ बच्चन भी रहे हैं। फिल्म 'अलबेला' के बाद भगवान दादा ने 'झमेला' और 'लाबेला' बनाई लेकिन दोनों ही फ़िल्में नाकाम रहीं और उनके बुरे दिन शुरू हो गए। कभी सितारों से अपने इशारों पर काम कराने वाले भगवान दादा का करियर एक बार जो पटरी से उतरा तो फिर ढहता ही चला गया।
उन दिनों फिल्मी दुनिया के रंग-ढंग तेजी से बदलने लगे थे। जिंदगी के इस मोड़ पर उन्हें आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा। अपनी आर्थिक तंगी से आजिज आकर वह छोटे-छोटे रोल पाने के लिए तरसने लगे। मजबूरी में उन्हें इन अपमानजनक स्थितियों का खामोशी से सामना करना पड़ा। वक्त ने उनके साथ दगा किया, मायावी महानगर में उनके एक-एक पैसे की मोहताजी सताने लगी। कामयाब दिनो वाले उनके ज्यादातर संगी-साथियों, परिचितों, सुपरिचितों ने एक-एक कर उनसे किनारा कर लिया लेकिन उस दुर्दिन में सी. रामचंद्र, ओम प्रकाश, राजिन्दर किशन जैसे गिनती के मित्रों ने उनका साथ नहीं छोड़ा। वह लगातार उनसे मिलते-जुलते और यथासंभव मदद भी करते रहे।
उनके लाजवाब अभिनय और नृत्य शैली से फिल्मी कॉमेडी को नई पहचान मिली। करीब साठ साल के लंबे फ़िल्मी करियर में भगवान दादा ने लगभग 48 फ़िल्मों का निर्माण अथवा निर्देशन किया, लेकिन बॉम्बे लैबोरेट्रीज में लगी आग के कारण 'अलबेला' और 'भागमभाग' छोड़कर सभी फ़िल्मों के निगेटिव स्वाहा हो गए। वह हारे-थके जुआरी की तरह फिर से चॉल में दिन बसर करने लगे। आखिरकार 4 फ़रवरी 2002 को वह 89 साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कह गए।
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