वो कवि जो पूरे देश के हिंदी कवि सम्मेलन के मंचों पर गूंजा करते थे
मैं हूँ बनफूल भला मेरा कैसा खिलना, क्या मुरझाना: भारत भूषण
एक जमाना था, जब शीर्ष गीतकार भारत भूषण पूरे देश के हिंदी कवि सम्मेलन के मंचों पर गूंजा करते थे। उस पीढ़ी के श्रेष्ठ-ख्यात रचनाकारों में हरिवंश राय बच्चन, गोपाल सिंह नेपाली, गोपालदास नीरज, सोम ठाकुर, उमाकांत मालवीय, शांति सुमन, माहेश्वर तिवारी, मुकुट बिहारी सरोज, किशन सरोज आदि कवि भी मंचों से उसी तन्मयता से सुने जाते थे। उस जमाने में मंचों पर साहित्यिक सम्मान के साथ कविता सुनाते ही नहीं थे, उन्हें सुनते-पढ़ते हुई आज कवि-साहित्यकारों की पूरी एक पीढ़ी यशस्वी हुई है। कवि भारत भूषण की आज (17 दिसंबर) पुण्यतिथि है।
एक शिक्षक के तौर पर करियर की शुरुआत करने वाले भारत भूषण बाद में काव्य की दुनिया में आए और छा गए। उनकी सैकड़ों कविताओं व गीतों में सबसे चर्चित 'राम की जलसमाधि' रही। उन्होंने तीन काव्य संग्रह लिखे।
भारत भूषण उन दिनो अपनी इच्छा से चाहे जो भी गीत सुनाएं, उनके तीन गीतों को सुनाने की मांग जरूर हुआ करती थी- 'बनफूल', 'ये असंगति जिंदगी के द्वार' और 'राम की जल समाधि'। कवि भारत भूषण का जन्म उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर में आठ जुलाई 1929 को हुआ था। वह उस जमाने में पैदा और जवान हुए, जब भारत अंग्रेजों का गुलाम था। भारत भूषण की रनचाओं को लेकर यह सवाल अक्सर बड़ा होता रहा है कि देश के कवि-साहित्यकार जब आजादी के आंदोलन में जूझ रहे थे, वह छायावादी शब्दों के झुंड में धुरी रमाए रहे। अपने आसपास से, देश-समाज की पीड़ा से बेखबर रह कर रचा जा रहा साहित्य कुछ उसी तरह महत्वहीन हो जाया करता है, जिस तरह समय के फेर में स्वांतः सुखाय रचा गया अन्य कोई भी साहित्य।
शायद यही वजह रही कि अपने समय में मंचों पर बराबर गूंजते रहे भारत भूषण को आधुनिक पीढ़ी ने उतनी गंभीरता से नहीं लिया। उन्हें मुक्तिबोध, नागार्जुन, त्रिलोचन, रामधारी सिंह दिनकर जैसी पहचान नहीं मिली। भारत भूषण की प्रमुख कृतियां हैं - 'सागर के सीप', 'ये असंगति तथा मेरे चुनिंदा गीत' आदि। इसके अतिरिक्त आकाशवाणी एवं दूरदर्शन के कार्यक्रमों में वह लगातार सक्रिय रहे। लगभग पचास वर्षों से भारतवर्ष के सुदूरतम स्थानों पर हुए कवि सम्मेलनों में उनकी मुखर भागीदारी रही। संवेदनात्मक, मधुर और साहित्यिक गीतों की रचना ही उनके जीवन का उद्देश्य रहा। भारत भूषण को उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने साहित्य भूषण से अलंकृत किया था। 17 दिसंबर 2011 को उनका निधन हो गया। भारत भूषण की प्रसिद्ध कविता 'बनफूल' -
मैं हूँ बनफूल भला मेरा कैसा खिलना, क्या मुरझाना
मैं भी उनमें ही हूँ जिनका, जैसा आना वैसा जाना
सिर पर अंबर की छत नीली, जिसकी सीमा का अंत नहीं
मैं जहाँ उगा हूँ वहाँ कभी भूले से खिला वसंत नहीं
ऐसा लगता है जैसे मैं ही बस एक अकेला आया हूँ
मेरी कोई कामिनी नहीं, मेरा कोई भी कंत नहीं
बस आसपास की गर्म धूल उड़ मुझे गोद में लेती है
है घेर रहा मुझको केवल सुनसान भयावह वीराना
सूरज आया कुछ जला गया, चंदा आया कुछ रुला गया
आंधी का झोंका मरने की सीमा तक झूला झुला गया
छह ऋतुओं में कोई भी तो मेरी न कभी होकर आई
जब रात हुई सो गया यहीं, जब भोर हुई कुलमुला गया
मोती लेने वाले सब हैं, ऑंसू का गाहक नहीं मिला
जिनका कोई भी नहीं उन्हें सीखा न किसी ने अपनाना
सुनता हूँ दूर कहीं मन्दिर, हैं पत्थर के भगवान जहाँ
सब फूल गर्व अनुभव करते, बन एक रात मेहमान वहाँ
मेरा भी मन अकुलाता है, उस मन्दिर का आंगन देखूँ
बिन मांगे जिसकी धूल परस मिल जाते हैं वरदान जहाँ
लेकिन जाऊँ भी तो कैसे, कितनी मेरी मजबूरी है
उड़ने को पंख नहीं मेरे, सारा पथ दुर्गम अनजाना
काली रूखी गदबदा बदन, कांसे की पायल झमकाती
सिर पर फूलों की डलिया ले, हर रोज़ सुबह मालिन आती
ले गई हज़ारों हार निठुर, पर मुझको अब तक नहीं छुआ
मेरी दो पंखुरियों से ही, क्या डलिया भारी हो जाती
मैं मन को समझाता कहकर, कल को ज़रूर ले जाएगी
कोई पूरबला पाप उगा, शायद यूँ ही हो कुम्हलाना
उस रोज़ इधर दुल्हा-दुल्हन को लिए पालकी आई थी
अनगिनती कलियों-फूलों से, ज्यों अच्छी तरह सजाई थी
मैं रहा सोचता गुमसुम ही, ये भी हैं फूल और मैं भी
सच कहता हूँ उस रात, सिसकियों में ही भोर जगाई थी
तन कहता मैं दुनिया में हूँ, मन को होता विश्वास नहीं
इसमें मेरा अपराध नहीं, यदि मैं भी चाहूँ मुसकाना
पूजा में चढ़ना होता तो, उगता माली की क्यारी में
सुख सेज भाग्य में होती तो, खिलता तेरी फुलवारी में
ऐसे कुछ पुण्य नहीं मेरे, जो हाथ बढ़ा दे ख़ुद कोई
ऐसे भी हैं जिनको जीना ही पड़ता है लाचारी में
कुछ घड़ियाँ और बितानी हैं, इस कठिन उपेक्षा में मुझको
मैं खिला पता किसको होगा, झर जाऊंगा बे-पहचाना
मेरठ में 1990 के दशक में एक दिन मेरी भी उनसे मुलाकात हुई। तब वह वयोवृद्ध हो चुके थे। चलने-फिरने में असमर्थ से लगे लेकिन जब अपने घर की छत से नीचे के दालान तक वह तेज-तेज चलते हुए बातें करने लगे, तो उनके अंदर की इच्छा शक्ति और जिजीविषा देखकर मैं हैरत से भर उठा। उस बातचीत में वह वर्तमान की मंचीय साहित्यिक की गिरावट से काफी आहत और क्षुब्ध नजर आए। उनका कहना था कि अब तो हमारे मंचीय युग का अवसान हो रहा है। कई लोग अच्छा लिख रहे हैं लेकिन उन्हें भी मंचों पर अब पहले की तरह आदर-सम्मान नहीं दिया जा रहा है। संस्थागत पुरस्कार भी अपनों को, सुपरिचितों को, लल्लो-चप्पो करने वालों को बांटे जा रहे हैं, न कि रचना के स्तर और महत्व को देखते हुए। 'फिर फिर बदल दिए कैलेंडर' गीत उनके उन्हें दिनो के आंतरिक असंतोष की उपज था -
फिर फिर बदल दिये कैलेंडर
तिथियों के संग संग प्राणों में
लगा रेंगने अजगर सा डर
सिमट रही साँसों की गिनती
सुइयों का क्रम जीत रहा है!
पढ़कर कामायनी बहुत दिन
मन वैराग्य शतक तक आया
उतने पंख थके जितनी भी
दूर दूर नभ में उड़ आया
अब ये जाने राम कि कैसा
अच्छा बुरा अतीत रहा है!
संस्मरण हो गई जिन्दगी
कथा कहानी सी घटनाएँ
कुछ मनबीती कहनी हो तो
अब किसको आवाज लगाएँ
कहने सुनने सहने दहने
को केवल बस गीत रहा है!
कवि कृष्ण मित्र के शब्दों में उनकी लिखी कविता जय सोमनाथ उनका सबसे बेहतरीन सृजन था। ये कविता साहित्य प्रेमियों को सदैव याद रहेगी। कवि डा. कुंवर बेचैन कहते हैं कि कवि सम्मेलन के मंचों पर उनकी गंभीर रचनाएं सुनने के लिए लोग बहुत उत्सुक रहते थे। राम की जल समाधि ने हिंदी साहित्य में एक अलग पहचान बनाई। उन्होंने जो भी गीत लिखे, वह दिल को छूते थे। उन्होंने अपने गीतों से लोगों का दिल जीत लिया। इन्होंने हिन्दी में स्नातकोत्तर शिक्षा अर्जित की और प्राध्यापन को जीविकावृत्ति के रूप में अपनाया। एक शिक्षक के तौर पर करियर की शुरुआत करने वाले भारत भूषण बाद में काव्य की दुनिया में आए और छा गए। उनकी सैकड़ों कविताओं व गीतों में सबसे चर्चित 'राम की जलसमाधि' रही। उन्होंने तीन काव्य संग्रह लिखे।
दिल्ली में जब हिन्दी भवन के नियमित कार्यक्रमों की शृंखला में एक नई कड़ी जुड़ी- 'काव्य-यात्रा : कवि के मुख से', तो इसके अंतर्गत यह निश्चय किया गया कि हिन्दी-काव्य की वाचिक परंपरा को संरक्षित करने और उसे सुदृढ़ बनाने के लिए वर्ष में एक या उससे अधिक बार हिन्दी के किसी एक वरिष्ठ कवि का एकल काव्य-पाठ सुधी श्रोताओं के सम्मुख कराया जाए। इस कार्यक्रम की शुरुआत वाचिक परंपरा के उन्नायक और हिन्दी भवन के संस्थापक पं.गोपालप्रसाद व्यास की दूसरी पुण्यतिथि 28 मई, 2007 से की गई, जिसमें पहली बार भारतभूषण ने अपना काव्य-पाठ किया। भारतभूषण ने हिन्दी भवन के धर्मवीर संगोष्ठी कक्ष में श्रोताओं के सम्मुख अपने चुनिंदा छह-सात गीत सुनाए। 'कवि के मुख से' कार्यक्रम का संचालन हिन्दी के वरिष्ठ गीतकार डॉ कुंवर बेचैन ने किया। ये कवि-सम्मेलन उर्दू मुशायरों के समानांतर शुरू हुए।
हिन्दी के पुराने कवियों ने सोचा कि हिन्दी को जन-जन तक पहुंचाने के लिए जगह-जगह कवि-सम्मेलन आयोजित किए जाएं। इससे काव्य की वाचिक परंपरा पुनर्जीवित हुई। निराला, रामकुमार वर्मा, हरिवंशराय बच्चन, श्रीनारायण चतुर्वेदी, श्यामनारायण पाण्डे, गोपालप्रसाद व्यास, गोपालसिंह नेपाली तथा गोपालदास नीरज आदि ने काव्य की वाचिक परंपरा को आगे बढ़ाया। इसी परंपरा की एक कड़ी रहे थे भारतभूषण। वे हिन्दी गीत-विधा के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर थे। उस आयोजन में जब भारतभूषण ने अपने इस गीत का सस्वर पाठ किया, हाल तालियों से अनवरत गूंजता रहा-
मैं रात-रात भर दहूं और तू काजल आजं-आजं सोए,
मुझको क्या फिर शबनम रोए, मैं रोऊं या सरगम रोए।
तेरे घर केवल दिया जले, मेरे घर दीपक भी मैं भी,
भटकूं तेरी राहें बांधे, पैरों में भी पलकों में भी।
मैं आंसू-आंसू बहूं और तू बादल ओढ़-ओढ़ सोए।
उस दिन भारतभूषण ने काव्य-पाठ से पूर्व हिन्दी भवन और सुधी श्रोताओं का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि दिल्ली ने मुझे बहुत जल्दी अपना लिया। सन् 54 या 55 में लाल किले में पहली बार काव्य-पाठ करने आया था। उसके कुछ समय बाद ही मुझसे स्नेह रखने वाले चाचाजी, यानि पं. गोपालप्रसाद व्यास ने राष्ट्रपति भवन में डॉ राजेन्द्रप्रसाद के सम्मुख काव्य-पाठ करने के लिए बुलाया। अपने देहांत से 4-5 वर्ष पूर्व महादेवी वर्मा के सान्निध्य में इलाहाबाद में एक गोष्ठी हुई, जिसमें सिर्फ 10-15 लोग ही थे। वहां मैंने 'राम की जल समाधि' गीत पढ़ा। गीत समाप्त होने पर महादेवीजी ने स्नेह से मेरे कंधे पर हाथ रखा और बोलीं -भाई, तुमने आज तक राम पर लगे सभी आक्षेपों को इस गीत से धो दिया है। उस दिन भारतभूषण ने अपने काव्य-पाठ का समापन 'राम की जल समाधि' गीत से किया। उनका यह गीत गीति-काव्य में मील का पत्थर माना जाता है। इस गीत को सुनकर 'राम की जल समाधि' का करुण और मार्मिक चित्र आखों के सामने उपस्थित हो जाता है-
पश्चिम में ढलका सूर्य उठा वंशज सरयू की रेती से,
हारा-हारा, रीता-रीता, निःशब्द धरा, निःशब्द व्योम,
निःशब्द अधर पर रोम-रोम था टेर रहा सीता-सीता।
किसलिए रहे अब ये शरीर, ये अनाथमन किसलिए रहे,
धरती को मैं किसलिए सहूँ, धरती मुझको किसलिए सहे।
तू कहाँ खो गई वैदेही, वैदेही तू खो गई कहाँ,
मुरझे राजीव नयन बोले, काँपी सरयू, सरयू काँपी,
देवत्व हुआ लो पूर्णकाम, नीली माटी निष्काम हुई,
इस स्नेहहीन देह के लिए, अब साँस-साँस संग्राम हुई।
ये राजमुकुट, ये सिंहासन, ये दिग्विजयी वैभव अपार,
ये प्रियाहीन जीवन मेरा, सामने नदी की अगम धार,
माँग रे भिखारी, लोक माँग, कुछ और माँग अंतिम बेला,
इन अंचलहीन आँसुओं में नहला बूढ़ी मर्यादाएँ,
आदर्शों के जल महल बना, फिर राम मिले न मिले तुझको,
फिर ऐसी शाम ढले न ढले।
ओ खंडित प्रणयबंध मेरे, किस ठौर कहाँ तुझको जोडूँ,
कब तक पहनूँ ये मौन धैर्य, बोलूँ भी तो किससे बोलूँ,
सिमटे अब ये लीला सिमटे, भीतर-भीतर गूँजा भर था,
छप से पानी में पाँव पड़ा, कमलों से लिपट गई सरयू,
फिर लहरों पर वाटिका खिली, रतिमुख सखियाँ, नतमुख सीता,
सम्मोहित मेघबरन तड़पे, पानी घुटनों-घुटनों आया,
आया घुटनों-घुटनों पानी। फिर धुआँ-धुआँ फिर अँधियारा,
लहरों-लहरों, धारा-धारा, व्याकुलता फिर पारा-पारा।
फिर एक हिरन-सी किरन देह, दौड़ती चली आगे-आगे,
आँखों में जैसे बान सधा, दो पाँव उड़े जल में आगे,
पानी लो नाभि-नाभि आया, आया लो नाभि-नाभि पानी,
जल में तम, तम में जल बहता, ठहरो बस और नहीं कहता,
जल में कोई जीवित दहता, फिर एक तपस्विनी शांत सौम्य,
धक् धक् लपटों में निर्विकार, सशरीर सत्य-सी सम्मुख थी,
उन्माद नीर चीरने लगा, पानी छाती-छाती आया,
आया छाती-छाती पानी।
आगे लहरें बाहर लहरें, आगे जल था, पीछे जल था,
केवल जल था, वक्षस्थल था, वक्षस्थल तक केवल जल था।
जल पर तिरता था नीलकमल, बिखरा-बिखरा सा नीलकमल,
कुछ और-और सा नीलकमल, फिर फूटा जैसे ज्योति प्रहर,
धरती से नभ तक जगर-मगर, दो टुकड़े धनुष पड़ा नीचे,
जैसे सूरज के हस्ताक्षर, बाहों के चंदन घेरे से,
दीपित जयमाल उठी ऊपर सर्वस्व सौंपता शीश झुका,
लो शून्य राम लो राम लहर, फिर लहर-लहर, सरयू-सरयू,
लहरें-लहरें, लहरें- लहरें, केवल तम ही तम, तम ही तम,
जल, जल ही जल केवल, हे राम-राम, हे राम-राम
हे राम-राम, हे राम-राम।
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