110 साल पुराने लखनऊ के टुंडे कबाब की स्वादिष्ट दास्तां
असल में टुंडे उसे कहा जाता है जिसका हाथ न हो। रईस अहमद के वालिद हाजी मुराद अली पतंग उड़ाने के बहुत शौकीन थे। एक बार पतंग के चक्कर में उनका हाथ टूट गया। जिसे बाद में काटना पड़ा। पतंग का शौक गया तो मुराद अली पिता के साथ दुकान पर ही बैठने लगे। टुंडे होने की वजह से जो यहां कबाब खाने आते वे टुंडे के कबाब बोलने लगे और यहीं से नाम पड़ गया टुंडे कबाब।
हाल ही में अवैध बूचड़खाने बंदी के बाद टुंडे कबाब की दुकान बंद होने की खबर ने पूरे देश में मीडिया की सुर्खियां बटोरीं, लोग हैरत में थे कि एक पकवान की दुकान बंद होने की खबर मीडिया में कैसे इतनी चर्चा पा गई। असल में ये असर उस 110 साल पुराने स्वाद का था, जिसके सामने देश भर के बड़े-बड़े खानसामे और फाइव स्टार होटलों के पकवान भी फीके हैं। यहां लोग दूर-दूर से टुंडे खाने तो आते ही हैं, साथ ही वे ये भी देखना चाहते हैं कि आखिर ऐसा क्या खास है इन टुंडे कबाबों में। आइए हम आपको रूबरू कराते हैं लखनऊ के उस टुंडे कबाब से जो एक दिन में ही खबरों की सुर्खियां बन गये।
नॉनवेज खाने के शौकीनों में जितनी शोहरत लखनऊ के टुंडे कबाब ने पाई है उतनी हैदराबादी बिरयानी या किसी और अन्य व्यंजन ने नहीं।लखनऊ के टुंडे कबाब की कहानी बीती सदी की शुरूआत से ही शुरू होती है, जब 1905 में पहली बार यहां अकबरी गेट में एक छोटी सी दुकान खोली गई।
मुगलिया जायके की पहचान लखनऊ के टुंडे कबाब यूं तो पूरी दुनिया में मशहूर हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश की नई योगी सरकार की आमद टुंडे कबाब के लिये खुशगवार नहीं रही। नई सरकार ने अवैध बूचडख़ानों पर सख्ती क्या की, कि शहरे लखनऊ की खास टुंडे कबाब की दुकान 110 सालों में पहली बार बंद हुई। दरअसल, टुंडे कबाब बनाने में भैंस के गोश्त का इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन यूपी में बंद हुए अवैध स्लॉटरहाउस की वजह से पूरे प्रदेश में गोश्त की आपूर्ति प्रभावित हुई है। यही वजह है कि इस खास व्यंजन में अब चिकन का इस्तेमाल किया जा रहा है। दीगर है कि टुुंडे कबाब की दुकान बंद होने की खबर ने पूरे देश में मीडिया की सुर्खियां बटोरी थी, लोग हैरत में थे कि एक पकवान की दुकान बंद होने की खबर मीडिया में कैसे इतनी चर्चा पा गई। असल में ये असर उस स्वाद का था जिसके सामने देश भर के बड़े-बड़े खानसामे और फाइव स्टार होटलों के पकवान भी फीके हैं। नॉनवेज खाने के शौकीनों में जितनी शोहरत लखनऊ के टुंडे कबाबों ने पाई है उतनी हैदराबादी बिरयानी या किसी और अन्य व्यंजन ने नहीं। 110 साल पुरानी दुकान पर लोग दूर-दूर से टुंडे खाने तो आते ही हैं, साथ ही वे ये भी देखना चाहते हैं, कि आखिर ऐसा क्या खास है इन टुंडे कबाबों में।
हाजी परिवार कई बरस पहले भोपाल से लखनऊ आ गया और अकबरी गेट के पास गली में छोटी सी दुकान शुरू कर दी। हाजी के इन कबाबों की शोहरत इतनी तेजी से फैली कि पूरे शहर-भर के लोग यहां कबाबों का स्वाद लेने आने लगे। इस शोहरत का ही असर था कि जल्द ही इन कबाबों को 'अवध के शाही कबाब' का दर्जा मिल गया।
बड़ी स्वादिष्ट है टुंडे कबाब की कहानी
लखनऊ के टुंडे कबाब की कहानी बीती सदी के शुरूआत से ही शुरू होती है, जब 1905 में पहली बार यहां अकबरी गेट में एक छोटी सी दुकान खोली गई। हालांकि टुंडे कबाब का किस्सा तो इससे भी एक सदी पुराना है। दुकान के मालिक 70 वर्षीय रईस अहमद के मुताबिक उनके पुरखे भोपाल के नवाब के यहां खानसामा हुआ करते थे। दरअसल नवाब खाने-पीने के बहुत शौकीन थे, लेकिन बढ़ती उम्र के साथ-साथ उनके दांतों ने उनका साथ छोड़ दिया। ऐसे में उन्हें खाने-पीने में दिक्कत होने लगी। लेकिन बढ़ती उम्र और दांतों के साथ छोडने पर भी नवाब और उनकी बेगम की खाने-पीने की आदत पर कोई खास असर नहीं हुआ। ऐसी स्थिति में उनके लिए ऐसे कबाब बनाने का विचार किया गया, जिन्हें बिना दांत के भी आसानी से खाया जा सके। इसके लिए गोश्त को बेहद बारीक पीसकर और उसमें पपीते मिलाकर ऐसा कबाब बनाया गया जो मुंह में डालते ही घुल जाए। पेट दुरुस्त रखने और स्वाद के लिए उसमें चुन-चुन कर मसाले मिलाए गए। इसके बाद हाजी परिवार भोपाल से लखनऊ आ गया और अकबरी गेट के पास गली में छोटी सी दुकान शुरू कर दी। हाजी के इन कबाबों की शोहरत इतनी तेजी से फैली कि पूरे शहर-भर के लोग यहां कबाबों का स्वाद लेने आने लगे। इस शोहरत का ही असर था कि जल्द ही इन कबाबों को 'अवध के शाही कबाब' का दर्जा मिल गया।
कबाब बनाने में पूरे दो से ढाई घंटे लगते हैं। इन कबाबों की खासियत को नीम हकीम भी मानते हैं क्योंकि यह पेट के लिए फायदेमंद होता है।
गौरतलब है कि बॉलीवुड स्टार शाहरूख खान अक्सर टुंडे बनाने वाली इस टीम को मुंबई स्थित अपने घर 'मन्नत' में विभिन्न आयोजनों के दौरान बुलाते रहते हैं। ट्रेजडी किंग दिलीप कुमार, अनुपम खेर, आशा भौंसले, सुरेश रैना जावेद अख्तर और शबाना आजमी भी इनके बड़े प्रशंसकों में शामिल हैं।
कैसे पड़ा टुंडे कबाब नाम
इन कबाबों के टुंडे नाम पड़ने के पीछे भी दिलचस्प किस्सा है। असल में टुंडे उसे कहा जाता है जिसका हाथ न हो। रईस अहमद के वालिद हाजी मुराद अली पतंग उड़ाने के बहुत शौकीन थे। एक बार पतंग के चक्कर में उनका हाथ टूट गया। जिसे बाद में काटना पड़ा। पतंग का शौक गया तो मुराद अली पिता के साथ दुकान पर ही बैठने लगे। टुंडे होने की वजह से जो यहां कबाब खाने आते वो टुंडे के कबाब बोलने लगे और यहीं से नाम पड़ गया टुंडे कबाब। हाजी रईस का कहना है कि यहां के कबाब में आज भी उन्हीं मसालों का प्रयोग किया जाता है, जो सौ साल पहले किया जाता था। कहा जाता है कोई इसकी रेसीपी न जान सके इसलिए उन्हें अलग-अलग दुकानों से खरीदा जाता है और फिर घर में ही एक बंद कमरे में पुरुष सदस्य उन्हें कूट छानकर तैयार करते हैं। इन मसालों में से कुछ तो ईरान और दूसरे देशों से भी मंगाए जाते हैं। हाजी परिवार ने इस गुप्त ज्ञान को आज तक किसी को भी नहीं बताया यहां तक की अपने परिवार की बेटियों को भी नहीं।
कबाब बनाने में पूरे दो से ढाई घंटे लगते हैं। इन कबाबों की खासियत को नीम हकीम भी मानते हैं क्योंकि ये पेट के लिए फायदेमंद होता है। इन कबाबों को परांठों के साथ ही खाया जाता है। परांठे भी ऐसे वैसे नहीं मैदा में घी, दूध, बादाम और अंडा मिलाकर तैयार किए जाते हैं। जो एक बार खाए वो ही इसका दीवाना हो जाए। गौरतलब है कि बॉलीवुड स्टार शाहरूख खान अक्सर टुंडे बनाने वाली इस टीम को मुंबई स्थित अपने घर 'मन्नत' में विभिन्न आयोजनों के दौरान बुलाते रहते हैं। ट्रेजडी किंग दिलीप कुमार, अनुपम खेर, आशा भोंसले, सुरेश रैना जावेद अख्तर और शबाना आज़मी भी इनके बड़े प्रशंसकों में शामिल हैं।
खास बात ये है कि टुंडे कबाबों की प्रसिद्धी बेशक पूरी दुनिया में हो, लेकिन हाजी परिवार ने इनकी कीमतें आज भी ऐसी रखी हैं, कि आम या खास किसी की जेब पर ज्यादा असर नहीं पड़ता। परिवार का ध्यान दौलत से ज्यादा शोहरत कमाने पर रहा। एक समय ऐसा भी था, जब एक पैसे में दस कबाब मिलते थे। फिर कीमतें बढ़ने लगीं तो लोगों को दस रुपये में भर पेट खिलाते थे।
अवैध बूचडख़ानों पर सख्ती से बदला वातावरण
टुंडे कबाबी के मोहम्मद उस्मान बताते हैं, कि बड़े का गोश्त न मिलने की वजह से मटन और चिकन के कबाब ही बेचे जा रहे हैं। उन्होंने बताया कि एक तो बड़े के कबाब का जायका अलग ही होता था। दूसरा बड़े जानवर का गोश्त सस्ता होने की वजह से गरीब लोग आसानी से भर पेट खाना खा लेते थे। मटन के कबाब 80 रुपये के चार है जबकि बड़े के कबाब चालीस रुपये के चार होते हैं। वहीं पुराने लखनऊ में बड़े के कबाब बीस रूपये के चार बिकते थे। इससे गरीब आदमी 40 से 50 रूपये में पेट भर कर खाना खा लेते था। उन्होंने बताया की अमीनाबाद स्थित होटल में रोजाना 40 किलो मटन और इतने ही बीफ के कबाब बनते थे। मुबीन होटल के शोएब बताते है कि 50 रुपये में बड़े की नहारी और कुलचे का जायका हर कोई ले लेता था।
बेटियों को भी नहीं बताया मसालों का राज
खास बात ये है कि दुकान चलाने वाले रईस अहमद यानि हाजी जी के परिवार के अलावा और कोई दूसरा शख्स इसे बनाने की खास विधि और इसमें मिलाए जाने वाले मसालों के बारे में नहीं जानता है। यही कारण है, कि जो कबाब का जो स्वाद यहां मिलता है वो पूरे देश में और कहीं नहीं। कबाब में सौ से ज्यादा मसाले मिलाये जाते हैं।