11 वर्ष की उम्र में प्रथमा परीक्षा प्रथम श्रेणी में और 16 वर्ष की आयु में शास्त्री की उपाधि लेने वाले साहित्यकार
साहित्यकार जानकी वल्लभ शास्त्री की जिंदगी की कहानी रही अनकही...
बिहार के गाँव मैगरा में पैदा हुए छायावादोत्तर शीर्ष साहित्यकारों में एक जानकीवल्लभ शास्त्री का आज 5 फरवरी को जन्मदिन है। उनसे अस्सी के दशक में बिहार के मुजफ्फरपुर में उनके अजीबोगरीब आवास पर एक संक्षिप्त मुलाकात हुई थी। वह उन गिने-चुने कवियों में से रहे हैं, जिन्हें हिंदी काव्यप्रेमियों से बहुत मान मिला।
उन्हें प्रसाद, निराला, पंत और महादेवी के बाद पांचवां छायावादी कवि कहा जाता है लेकिन वह भारतेंदु और श्रीधर पाठक द्वारा प्रवर्तित और विकसित उस स्वच्छंद धारा के अंतिम कवि थे, जो छायावादी अतिशय लाक्षणिकता और भावात्मक रहस्यात्मकता से मुक्त थी।
जानकी वल्लभ शास्त्री का रचना संसार अत्यंत विविधतापूर्ण और काफी व्यापक है। प्रारंभ में उन्होंने संस्कृत में कविताएँ लिखीं। फिर महाकवि निराला की प्रेरणा से हिंदी साहित्य में रम गए। उनके पिता रामानुग्रह शर्मा भी बड़े विद्वान थे। पिता से संस्कारित शास्त्री जी ने जिन परिस्थितियों में जितना अनथक, विराट लेखन किया, हर किसी के वश की बात नहीं है। मात्र ग्यारह वर्ष की उम्र में प्रथमा परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर ली। सोलह वर्ष की आयु में शास्त्री की उपाधि ले ली। उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में भी कुछ वक्त गुजारा। उनकी विधिवत शिक्षा-दीक्षा तो संस्कृत में ही हुई थी, लेकिन अपने श्रम से उन्होंने अंग्रेज़ी और बांग्ला भी सीख ली। वह रवींद्रनाथ टैगोर के गीत गाते-सुनाते रहते थे।
उन्होंने लाहौर में अध्यापन भी किया, रायगढ़ (म.प्र.) में राजकवि रहे, उसके बाद लगभग नौ वर्षों तक मुजफ्फरपुर के गवर्नमेंट संस्कृत कॉलेज में हिंदी के प्राध्यापक, फिर वहीं के रामदयालु सिंह कॉलेज में हिन्दी के प्राध्यापक रहे। उनका पहला गीत 'किसने बांसुरी बजाई' काफी लोकप्रिय हुआ था। उन्हें प्रसाद, निराला, पंत और महादेवी के बाद पांचवां छायावादी कवि कहा जाता है लेकिन वह भारतेंदु और श्रीधर पाठक द्वारा प्रवर्तित और विकसित उस स्वच्छंद धारा के अंतिम कवि थे, जो छायावादी अतिशय लाक्षणिकता और भावात्मक रहस्यात्मकता से मुक्त थी। शास्त्री जी ने अपने शब्दों में अपनी जिंदगी की कहानी कुछ इस तरह लिखी है -
जिंदगी की कहानी रही अनकही,
दिन गुजरते रहे, सांस चलती रही!
अर्थ क्या? शब्द ही अनमने रह गए,
कोष से जो खिंचे तो तने रह गए,
वेदना अश्रु, पानी बनी, बह गई,
धूप ढलती रही, छांह छलती रही!
बांसुरी जब बजी कल्पना-कुंज में
चांदनी थरथराई तिमिर पुंज में
पूछिए मत कि तब प्राण का क्या हुआ,
आग बुझती रही, आग जलती रही!
जो जला सो जला, ख़ाक खोदे बला,
मन न कुंदन बना, तन तपा, तन गला,
कब झुका आसमां, कब रुका कारवां,
द्वंद्व चलता रहा, पीर पलती रही!
बात ईमान की या कहो मान की,
चाहता गान में मैं झलक प्राण की,
साज़ सजता नहीं, बीन बजती नहीं,
उंगलियां तार पर यों मचलती रहीं!
और तो और, वह भी न अपना बना,
आँख मूंदे रहा, वह न सपना बना!
चाँद मदहोश प्याला लिए व्योम का,
रात ढलती रही, रात ढलती रही!
यह नहीं, जानता मैं किनारा नहीं,
यह नहीं, थम गई वारिधारा कहीं!
जुस्तजू में किसी मौज की, सिंधु के-
थाहने की घड़ी किन्तु टलती रही!
उन्नीस सौ अस्सी के दशक में उनसे मेरी मुलाकात का प्रयोजन उल्लेखनीय नहीं, यद्यपि इतना गौरतलब है कि एक कविसम्मेलन के सिलसिले में पंडित श्यामनारायण पांडेय का पत्र लेकर मैं उस समय के दो ख्यात कवि-कवयित्री शास्त्रीजी एवं डॉ शांति सुमन से मुलाकात के लिए उस दिन मुजफ्फरपुर गया था। शहर से बाहर होने के कारण डॉ शांति सुमन से मुलाकात न हो सकी तो सीधे शास्त्री जी के ठिकाने पर पहुंच गया। बड़े से तीन मंजिला मकान की निचली दो मंजिलों के सारे कमरे स्थायी रूप से पशु-पक्षियों से अटे पड़े थे। उनका अपार रचना संसार और अदभुत पशु-पक्षी प्रेम दोनो सुर्खियों में रहे हैं। उन्हें पशुओं का पालन करना बहुत पसंद था।
उनके यहाँ दर्जनों गाएं, सांड़, बछड़े, बिल्लियाँ, कुत्ते और तरह-तरह पक्षी मकान के निचले दो तलों पर मुक्त विचरण करते थे। अलग-अलग प्रजाति के होने के कारण उनके लिए सुरक्षा की दृष्टि से भी अलग-अलग व्यवस्थाएं की गई थीं। पशुओं से उन्हें इतना प्रेम था कि गाय क्या, बछड़ों को भी बेचते नहीं थे और उनके मरने पर उन्हें अपने आवास के परिसर में दफ़न करते थे। उनका दाना-पानी जुटाने में उनका परेशान रहना स्वाभाविक था- 'फूले चमन से रूठकर, बैठी विजन में ठूंठ पर, है एक बुलबुल गा रही, कैसी उदासी छा रही।' उन्होंने अपने घर वातावरण खुद ऐसा रचा-बसा लिया था कि प्राकृतिक परस्परता के लिए उन्हें चौखट से बाहर जाने की जरूरत भी नहीं थी। उन्हें अपने घर में ही कविता के दृश्य मिल जाते थे -
गुलशन न रहा, गुलचीं न रहा, रह गई कहानी फूलों की।
महमह करती-सी वीरानी आखिरी निशानी फूलों की।
जब थे बहार पर, तब भी क्या हंस-हंस न टंगे थे काँटों पर?
हों क़त्ल मजार सजाने को, यह क्या कुर्बानी फूलों की।
क्यों आग आशियाँ में लगती, बागबां संगदिल होता क्यों?
कांटे भी दास्ताँ बुलबुल की सुनते जो जुबानी फूलों की।
गुंचों की हंसी का क्या रोना जो इक लम्हे का तसव्वुर था;
है याद सरापा आरज़ू-सी वह अह्देजवानी फूलों की।
जीने की दुआएं क्यों मांगी? सौगंध गंध की खाई क्यों?
मरहूम तमन्नाएँ तड़पीं फानी तूफानी फूलों की।
केसर की क्यारियां लहक उठीं, लो, दाहक उठे टेसू के वन,
आतिशी बगूले मधु-ऋतु में, यह क्या नादानी फूलों की।
रंगीन फिजाओं की खातिर हम हर दरख़्त सुलगायेंगे,
यह तो बुलबुल से बगावत है गुमराह गुमानी फूलों की।
‘सर चढ़े बुतों के’– बहुत हुआ; इंसां ने इरादे बदल दिए;
वह कहता: दिल हो पत्थर का, जो हो पेशानी फूलों की।
थे गुनहगार, चुप थे जब तक, कांटे, सुइयां, सब सहते थे;
मुँह खोल हुए बदनाम बहुत, हर शै बेमानी फूलों की।
सौ बार परेवे उड़ा चुके, इस चमनज़ार में यार, कभी-
ख़ुदकुशी बुलबुलों की देखी? गर्दिश रमजानी फूलों की?
जानकी वल्लभ शास्त्री ने कहानियाँ, काव्य-नाटक, आत्मकथा, संस्मरण, उपन्यास और आलोचनात्मक पुस्तकें भी लिखी हैं। उनका उपन्यास 'कालिदास' भी काफी चर्चित रहा। उन्होंने पहली रचना 'गोविन्दगानम' सोलह-सत्रह की अवस्था में ही लिखना प्रारंभ किया था। इनकी प्रथम रचना ‘गोविन्दगानम्’ है जिसकी पदशय्या को कवि जयदेव से अबोध स्पर्द्धा की विपरिणति मानते हैं। ‘रूप-अरूप’ और ‘तीन-तरंग’ के गीतों के पश्चात् ‘कालन’, ‘अपर्णा’, ‘लीलाकमल’ और ‘बांसों का झुरमुट’- चार कथा संग्रह कमशः प्रकाशित हुए। इनके द्वारा लिखित चार समीक्षात्मक ग्रंथ-’साहित्यदर्शन’, ‘चिंताधारा,’ ‘त्रयी’ , और ‘प्राच्य साहित्य’ हिन्दी में भावात्मक समीक्षा के सर्जनात्मक रूप के कारण समादृत हुआ। सन 1950 तक उनके चार गीति काव्य प्रकाशित हो चुके थे- शिप्रा, अवन्तिका, मेघगीत और संगम। कथाकाव्य ‘गाथा’ उनका क्रांतिकारी सृजन माना जाता है।
‘राधा’, ‘हंस बलाका’, ‘निराला के पत्र’ के अलावा संस्कृत में ’काकली’, ‘बंदीमंदिरम’, ‘लीलापद्मम्’, हिन्दी में ‘रूप-अरूप’, ‘कानन’, ‘अपर्णा’, ‘साहित्यदर्शन’, ‘गाथा’, ‘तीर-तरंग’, ‘शिप्रा’, ‘अवन्तिका’, ‘मेघगीत’, ‘चिंताधारा’, ‘प्राच्यसाहित्य’, ‘त्रयी’, ‘पाषाणी’, ‘तमसा’, ‘एक किरण सौ झाइयां’, ‘स्मृति के वातायन’, ‘मन की बात’, ‘हंस बलाका’, ‘राधा’ आदि उनकी अन्य उल्लेखनीय कृतियां हैं। जानकी वल्लभ शास्त्री जितने प्रखर-प्रतापी कवि थे, उतने ही उन्मुक्त और स्वाभिमानी भी। वे जीवन पर्यत जिन मूल्यों के लिए रचनाधर्मिता से जुड़े रहे, उसके साथ कोई समझौता नहीं किया।
आत्म-गौरव के प्रति वे इतने दृढ़ रहते थे कि दो बार सन् 1994 और सन् 2010 में उन्होंने भारत सरकार का पद्मश्री सम्मान लेने से मना कर दिया। अपने वक्त के परजीवियों को ललकारते हुए वह लिखते हैं - 'जनता जमीन पर बैठी है, नभ में मंच खड़ा है, जो जितना दूर मही से वह उतना ही बड़ा है, कंटीले कांटों को फूलों का हार बना दो तो जानूं, तुम इस चुप-चुप सन्नाटे को झंकार बना दो तो जानूं।' शास्त्रीजी लिखते हैं - 'मेरे दूध के दाँत के साथ गीता उगी थी, धम्मपर निकला था, जीभ अब भी इकबालिया बयान दे सकती है।' उन्होंने संस्कृत में भी ग़ज़ल रचना की। और तो और उन्होंने निराला जी की प्रसिद्ध कविता ’जुही की कली‘ का भावानुवाद संस्कृत में कर डाला -
अधि-विजन-नव-वल्लरी/मान-मधुरिममयि,
स्नेह-स्वप्न-वासना-विमीलित-विलोचना
सोम-कल-कोमल-तर-तरुणी शयनाऽसीत्
काऽपि यूथिकाकलिका/ मसृणपर्णपर्य्यड्के।
प्रो.देवशंकर नवीन लिखते हैं कि बहुभाषा-ज्ञान एवं विलक्षण आलोचना-दृष्टि के साथ-साथ सबद्ध साहित्य-धाराओं की सूक्ष्मता से भी जानकीवल्लभ का गहन परिचय था। आलोचना-दृष्टि में हासिल महारत के कारण उन्होंने कभी किसी रूढ़ हो गई विचारधारा की लीक नहीं पीटी। साहित्य-सृजन हेतु उनकी अपनी जीवन-दृष्टि थी, जिसका किसी राजनीतिक धारणा से कोई करार न था। उनका जीवन-दर्शन अनुभूत-सत्य और नागरिक-जीवन की तर्कपूर्ण व्यवस्था से निर्धारित था। रचनात्मक सन्धान हेतु वे सतत लय, रस, आनन्द और ज्ञान-दर्शन को प्रश्रय देते थे। सम्भवत: यही कारण हो कि उनकी रचनाएँ भावकों को कोलाहल से दूर ले जाकर शान्ति और थिरता देती हैं।
जीवनानन्द के बाधक तत्त्वों पर सहजतम किन्तु घातक व्यंग्य उनके यहाँ ठौर-ठौर दिखता है। आनन्द उनके यहाँ पाने की वस्तु है, छीनने की नहीं। किन्तु जानकीवल्लभ शास्त्री की आलोचना-दृष्टि पर विचार करने से पूर्व एक नजर हिन्दी की आरम्भिक आलोचना के विकास-क्रम पर डालते हैं। जानकी वल्लभ शास्त्री ने अपनी आलोचना-दृष्टि स्पष्ट करते हुए लिखा है कि 'आदर्श आलोचना में यही देखा जाएगा कि आलोच्य विषय के साथ स्वयं तन्मय होकर वह कहाँ तक पाठक के संशय-सन्देह, जिज्ञासा-कुतूहल को शान्त कर सकती है; उसे परितृप्त तथा तन्मय कर सकती है; अपने में घुला-मिला ले सकती है। उसे परमार्थ सत्य प्रदान करने का दम्भ तो करना ही नहीं चाहिए।
उसका काम पाठक के किसी भावविशेष, सौन्दर्यविशेष की अनुभूति के अयोग्य, अलस-निमीलित हृदय, स्वप्निल-तन्द्रिल सहृदयता तथा सहानुभूति को आवश्यकतानुसार उन्मिषित, विकसित कर देना ही है। कृतिकार के कलातत्त्व को उसने जैसा समझा उसे पाठक के हृदय में स्वच्छतया अंकित कर देना, कलाकार ने जो कल्पना की पाठक को उसकी अनुभूति करा देना, यही आदर्श आलोचना है।...आलोचक की सबसे बड़ी सफलता यही है कि वह भ्रम से भी पाठक को यह सोचने का अवसर न दे कि वे विचार निश्चित रूप से मूल कृतिकार के नहीं, अपितु उसी आलोचक के हैं। और ऐसा तभी हो सकता है, जब वह आलोच्य विषय के अन्तरंग में प्रविष्ट होकर, उसका मर्म मालूम करने के लिए अहर्निश साधना करता है, उससे एकतान होकर उसका अनाहत नाद सुन लेता है।' आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री की काव्य-प्रतिभा से प्रभावित होकर निराला जी ने उन्हें काकली की रचना करने के कारण ’बालपिक‘ के रूप में संबोधित किया था।
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