लड़कियों की रोल मॉडल विद्रोही कवयित्री अमृता प्रीतम
अमृता प्रीतम का नाम याद आते ही नमूदार हो आती हैं प्रेम में डूबी हुई कविताएँ। काग़ज़ के ऊपर उभर आती हैं केसर की लकीरें....अपना खुरदरा जिंदगीनामा 'रसीदी टिकट' में विद्रोही शब्दों के गुच्छे उकेरती हुई वह लिखती हैं - 'मेरी सेज हाज़िर है पर जूते और कमीज़ की तरह, तू अपना बदन भी उतार दे, उधर मूढ़े पर रख दे, कोई खास बात नहीं, बस अपने-अपने देश का रिवाज़ है..।' आज (31 अगस्त) अमृता प्रीतम का जन्मदिन है।
'रसीदी टिकट' के पन्ने पलटते हुए किसी को भी बखूबी अहसास हो जाता है कि प्रेम में सिर से पांव तक डूबी रहने वाली अमृता कितनी आजाद खयाल, खुद्दारी से कितनी लबरेज, सारे बंधन तोड़कर खुली हवा में सांस लेने की किस कदर आदती हो चली थीं।
पुरातनपंथी समाज के गलत उसूलों के विरुद्ध आजीवन अपनी राह चलती रहीं प्रसिद्ध कवयित्री एवं लेखिका अमृता प्रीतम किसी जमाने में खुले दिमाग की लड़कियों, चाहे वह कहीं की भी, कोई भी भाषाभासी हों, उनके लिए रोल मॉडल रही हैं। अमृता प्रीतम का आज (31 अगस्त) जन्मदिन है। उन्हें जीवन को सुख से भर देने वाले शब्दों के प्रति कितना गहरा लगाव रहा, उनकी जिंदगी और तजुर्बे में 'प्यार' के क्या मायने रहे, वह लिखती हैं - ‘मेरी सारी रचनाएं, क्या कविता, क्या कहानी, क्या उपन्यास, सब एक नाजायज बच्चे की तरह हैं। मेरी दुनिया की हकीकत ने मेरे मन के सपने से इश्क किया और उसके वर्जित मेल से ये रचनाएं पैदा हुईं। एक नाजायज बच्चे की किस्मत इनकी किस्मत है और इन्होंने सारी उम्र साहित्यिक समाज के माथे के बल भुगते हैं। मन का सपना क्या था, इसकी व्याख्या में जाने की आवश्यकता नहीं है। यह कम्बख्त बहुत हसीन होगा, निजी जिन्दगी से लेकर कुल आलम की बेहतरी तक की बातें करता होगा, तब भी हकीकत अपनी औकात को भूलकर उससे इश्क कर बैठी और उससे जो रचनाएं पैदा हुईं, हमेशा कुछ कागजों में लावारिस भटकती रहीं’ ये शब्द हैं, उनकी बेहद लोकप्रिय कृति (आत्मकथा) 'रसीदी टिकट' के। उनके एक-एक शब्द जैसे शहद से तर लेकिन विद्रोह से आगबबूला।
अमृता की आत्मा के शब्द पढ़ने हों, उनकी विद्रोही जिंदगी के एक-एक मासूम पल से गुजरना हो, 'रसीदी टिकट' की अतल गहराइयों में उतर जाइए, उनकी भावनाओं, उनके शब्दों के सारे पते-ठिकाने पन्ना-पन्ना खुलते चले जाते हैं। वह लिखती हैं - 'सबसे पहला विद्रोह मैंने नानी के राज में किया था। देखा करती थी कि रसोई की एक परछत्ती पर तीन गिलास, अन्य बर्तनों से हटाए हुए, सदा एक कोने में पड़े रहते थे। ये गिलास सिर्फ तब परछत्ती से उतारे जाते थे, जब पिताजी के मुस्लिम दोस्त आते थे और उन्हें चाय या लस्सी पिलानी होती थी और उसके बाद मांज – धोकर फिर वहीं रख दिए जाते थे। ...... एक सपना था कि एक बहुत बड़ा किला है और लोग मुझे उसमें बंद कर देते हैं। बाहर पहरा होता है। भीतर कोई दरवाजा नहीं मिलता। मैं किले की दीवारों को उंगलियों से टटोलती रहती हूं, पर पत्थर की दीवारों का कोई हिस्सा भी नहीं पिघलता। सारा किला टटोल-टटोल कर जब कोई दरवाजा नहीं मिलता, तो मैं सारा जोर लगाकर उड़ने की कोशिश करने लगती हूं। मेरी बांहों का इतना जोर लगता है कि मेरी सांस चढ़ जाती है। फिर मैं देखती हूं कि मेरे पैर धरती से ऊपर उठने लगते हैं। मैं ऊपर होती जाती हूं, और ऊपर, और फिर किले की दीवार से भी ऊपर हो जाती हूं। सामने आसमान आ जाता है। ऊपर से मैं नीचे निगाह डालती हूं। किले का पहरा देने वाले घबराए हुए हैं, गुस्से में बांहें फैलाए हुए, पर मुझ तक किसी का हाथ नहीं पहुंचता।'
बेतहाशा सी प्रेम-पथिका अमृता प्रीतम अपने आसपास के, अपने जमाने के दोरंगे साहित्यिक समाज के प्रति भी विक्षोभ और दुख से पूरी उम्र भरी रहीं। मशहूर शायर साहिर लुधियानवी का याराना उन्हें आखिरी दम तक रिझाता-खिझाता रहा। प्रेम-स्मृतियों के शब्द उनके अंदर के शोलों को हर वक्त हवा देते रहे - 'वह चुपचाप सिर्फ सिगरेट पीता रहता था, कोई आधी सिगरेट पीकर राखदानी में बुझा देता था, फिर नई सिगरेट सुलगा लेता था और उसके जाने के बाद केवल सिगरेटों के बड़े-बड़े टुकड़े कमरे में रह जाते थे। कभी…एक बार उसके हाथ को छूना चाहती थी, पर मेरे सामने मेरे ही संस्कारों की एक वह दूरी थी, जो तय नहीं होती थी। उसके जाने के बाद, मैं उसके छोड़े हुए सिगरेटों के टुकड़ों को सम्भाल कर अलमारी में रख लेती थी, और फिर एक-एक टुकड़े को अकेले बैठकर जलाती थी। और जब अंगुलियों के बीच पकड़ती थी, तो लगता था, जैसे उसका हाथ छू रही हूं।.....सोच रही हूं, हवा कोई भी फासला तय कर सकती है, वह आगे भी शहरों का फासला तय किया करती थी। अब इस दुनिया और उस दुनिया का फासला भी जरूर तय कर लेगी…।'
'रसीदी टिकट' के पन्ने पलटते हुए किसी को भी बखूबी अहसास हो जाता है कि प्रेम में सिर से पांव तक डूबी रहने वाली अमृता कितनी आजाद खयाल, खुद्दारी से कितनी लबरेज, सारे बंधन तोड़कर खुली हवा में सांस लेने की किस कदर आदती हो चली थीं। एक स्त्री, एक मां, एक प्रेमिका और एक लेखिका-कवयित्री रूप में उनके शब्द-शब्द बेतकल्लुफ उनके पूरे होशो-हवाश को नुमाया करते जाते हैं। एक जमाने में पढ़ी-लिखी लड़कियों के सिरहाने अमृता की किताब 'रसीदी टिकट' हर वक्त रखा हुआ था। जैसेकि इतनी बड़ी दुनिया में वही एक अदद उन लड़कियों की रोल मॉडल हों।
वह लिखती हैं - 'मेरे मां-बाप दोनों पंचखंड भसोड़ के स्कूल में पढ़ाते थे। वहां के मुखिया बाबू तेजासिंह की बेटियां उनके विद्यार्थियों में थीं। इन बच्चियों को एक दिन न जाने क्या सूझी, दोनों ने मिलकर गुरुद्वारे में कीर्तन किया, प्रार्थना की, और प्रार्थना के अन्त में कह दिया, ‘दो जहानों के मालिक ! हमारे मास्टरजी के घर एक बच्ची बख्श दो।’ भरी सभा में पिताजी ने प्रार्थना के ये शब्द सुने, तो उन्हें मेरी होनेवाली मां पर गुस्सा आ गया। उन्होंने समझा कि उन बच्चियों ने उसकी रज़ामन्दी से यह प्रार्थना की है, पर मां को कुछ मालूम नहीं था। उन्हीं बच्चियों ने ही बाद में बताया कि हम राज बीवी से पूछतीं, तो वह शायद पुत्र की कामना करतीं, पर वे अपने मास्टरजी के घर लड़की चाहती हैं, अपनी ही तरह एक लड़की। यह पल अभी तक उसी तरह चुप है- कुदरत के भेद को होठों में बन्द करके हौले से मुस्कराता, पर कराहता, पर कहता कुछ नहीं। उन बच्चियों ने यह प्रार्थना क्यों की ? उनके किस विश्वास ने सुन ली ? मुझे कुछ मालूम, पर यह सच है कि साल के अन्दर राज बीवी ‘राज मां’ बन गईं।'
अमृता लिखती हैं कि 'परछाइयां बहुत बड़ी हक़ीकत होती हैं। चेहरे भी हक़ीकत होते हैं। पर कितनी देर? परछाइयां, जितनी देर तक आप चाहें.....। चाहें तो सारी उम्र। बरस आते हैं, गुज़र जाते हैं, रुकते नहीं, पर कई परछाइयां, जहां कभी रुकती हैं, वहीं रुकी रहती हैं.....।' अपने विद्रोही शब्दों में अमृता रोती गिड़गिड़ाती भी नहीं, आम स्त्री की तरह शिकवे-शिकायत भी नहीं करतीं। अपनी जिंदगी के सुनसान और उदास दिनों के अकेलेपन से चुपचाप गुजरती जाती हैं। जब उनको नर्वस ब्रेक डाउन हुआ, उससे भी बामुश्किल उबर गईं। जिन्दगी की सबसे उदास प्रेम कविताएं उन्होंने उसी दौर में लिखीं -
रात ऊँघ रही है...
किसी ने इन्सान की
छाती में सेंध लगाई है
हर चोरी से भयानक
यह सपनों की चोरी है।
चोरों के निशान —
हर देश के हर शहर की
हर सड़क पर बैठे हैं
पर कोई आँख देखती नहीं,
न चौंकती है।
सिर्फ़ एक कुत्ते की तरह
एक ज़ंजीर से बँधी
किसी वक़्त किसी की
कोई नज़्म भौंकती है।
कहा जाता है कि प्रेम में डूबी हर स्त्री अमृता प्रीतम होती है या फिर होना चाहती है मगर सबके हिस्से कोई इमरोज, कोई साहिर लुधियानवी नहीं होता, शायद इसलिए भी कि इमरोज होना आसान नहीं है। अपनी कविता 'जब मैं तेरा गीत लिखने लगी' में अमृता लिखती हैं -
मेरे शहर ने जब तेरे कदम छुए
सितारों की मुठियाँ भरकर
आसमान ने निछावर कर दीं
दिल के घाट पर मेला जुड़ा,
ज्यूँ रातें रेशम की परियां
पाँत बाँध कर आईं......
जब मैं तेरा गीत लिखने लगी
काग़ज़ के ऊपर उभर आईं
केसर की लकीरें
सूरज ने आज मेहंदी घोली
हथेलियों पर रंग गई,
हमारी दोनों की तकदीरें
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