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43 की उम्र में दुनिया को अलविदा कह देने वाला बॉलिवुड का वो मशहूर गीतकार

कविराज ने राज कपूर से कहा, 'कविता बिकाऊ नहीं होती!'

43 की उम्र में दुनिया को अलविदा कह देने वाला बॉलिवुड का वो मशहूर गीतकार

Thursday August 30, 2018 , 8 min Read

मुंबई की हसीन दुनिया में अपनी फटेहाल घर-गृहस्थी चलाने के लिए मशहूर गीतकार शैलेंद्र को चाहे जितने भी पापड़ बेलने पड़े, उन्होंने अपने सृजन के स्वाभिमान से कभी समझौता नहीं किया। सबसे पहले राज कपूर ने उनकी प्रतिभा को पहचाना, उसके बाद से तो लगातार सत्रह वर्षों तक आजीवन दोनों की दोस्ती बरकरार रही।

राजकपूर के साथ बातचीत में मशगूल शैलेंद्र

राजकपूर के साथ बातचीत में मशगूल शैलेंद्र


फिल्म नगरी में अपनी घर-गृहस्थी के पांव जमाने के लिए शैलेंद्र को लंबा स्ट्रगल करना पड़ा। हिंदुस्तान विभाजित हो चुका था। तब फिल्मी गीतों पर कवियों को आज की तरह उतना पैसा भी नहीं मिलता था। 

करोड़ों सिने प्रेमियों को अपने लोकप्रिय गीतों से रिझाने वाले अमर गीतकार शैलेंद्र का आज (30 अगस्त) जन्मदिन है। शैलेंद्र फिल्म जगत के उन चुनिंदा गीतकारों में रहे हैं, जिन्हे एक तो वहां स्थापित होने में तमाम मुश्किलों से दो-चार होना पड़ा, दूसरे उनके शब्द जितना पर्दे पर सुख देते हैं, उतनी ही गंभीर पठनीयता का स्वाद पढ़ते समय मिलता है। दुखद ये रहा कि वह मात्र 43 वर्ष की उम्र में ही दुनिया छोड़ गए। शैलेंद्र के बारे में कई एक सुखद-दास्तानें आज भी उनके चाहने वालों को उनकी यादों में खो जाने के लिए विवश करती हैं। उनके दुनिया छोड़ जाने के कई दशक बाद भी उनके गाने लोगों की ज़ुबान पर तैरते रहते हैं। सरल और सहज शब्दों से जादूगरी करने वाले शैलेंद्र का जन्म 30 अगस्त, 1923 को रावलपिंडी में हुआ था। मूल रूप से उनका परिवार बिहार के भोजपुर का था लेकिन फ़ौजी पिता की तैनाती रावलपिंडी में हुई तो घर बार छूट गया। रिटायरमेंट के बाद उनके पिता अपने एक दोस्त के कहने पर मथुरा (उ.प्र.) में जा बसे थे।

उन दिनों शैलेंद्र का छात्र जीवन था। देश में स्वतंत्रता संग्राम चल रहा था। शैलेंद्र भी कवि सम्मेलनों में हिस्सा लेकर आजादी का तुमुलनाद करने लगे। साथ ही हंस, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी पत्रिकाओं में उनकी कविताएं छपने भी लगीं थीं। उसी वक्त में 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान वह अपने छात्र दोस्तों के साथ गिरफ्तार होकर जेल पहुंच गए। छूटने के बाद रोजी-रोटी की जुगाड़ में निकल पड़े।

शैलेंद्र को बाबा कहने वाली उनकी बेटी अमला शैलेंद्र बताती हैं - 'बाबा को कम उम्र में ही मालूम चल गया था कि घर चलाने के लिए काम-धंधा करना होगा। ऐसी स्थिति में वे साहित्य प्रेम छोड़कर रेलवे की परीक्षा पास करके काम पर लग गए। पहले झांसी और बाद में उनकी पोस्टिंग मुंबई हो गई। उन्होंने बताया था कि जब वह रेलवे के कारखाने में जाते थे, काम में मन नहीं लगता था। किसी पेड़ के नीचे बैठकर कविताएं लिखते रहते थे। उनके साथी कहते थे, अरे काम करो, इससे घर चलेगा, कविता से नहीं लेकिन बाबा को उनकी लिखाई ही आगे लेकर आई। राज अंकल (राज कपूर) ने बाबा से 'जलता है पंजाब साथियों...' गीत मांगा था। बाबा ने कह दिया कि वे पैसे के लिए नहीं लिखते। राज कपूर उनको कविराज कहते थे। जब मेरी मां गर्भवती हुईं, शैली भइया होने वाले थे। बाबा की आर्थिक ज़रूरतें बढ़ रही थीं, तब वे राज अंकल के पास गए। उन दिनों वे फिल्म बरसात बना रहे थे। फ़िल्म लगभग पूरी हो चुकी थी लेकिन उन्होंने कहा कि दो गानों की गुंजाइश है, आप लिखो। बाबा ने तब दो गीत लिखे थे- 'बरसात में हमसे मिल तुम सजन, तुमसे मिले हम' और 'पतली कमर है, तिरछी नज़र है'। गौरतलब है कि राज कपूर से निकटता बन जाने के बाद शैलेंद्र सत्रह वर्षों तक उनकी ज्यादातर फिल्मों में गीत लिखते रहे।

फिल्म नगरी में अपनी घर-गृहस्थी के पांव जमाने के लिए शैलेंद्र को लंबा स्ट्रगल करना पड़ा। हिंदुस्तान विभाजित हो चुका था। तब फिल्मी गीतों पर कवियों को आज की तरह उतना पैसा भी नहीं मिलता था। आखिरकार उन्हें राह मिली। जुहू बीच की लंबी-सूनी सड़कों ने बड़े पर्दे पर बेमिसाल शोहरत बटोरने में उनकी मदद की। दरअसल, रोजाना जब शैलेंद्र मॉर्निंग वॉक पर निकलते, सन्नाटे में डूबे जुहू बीच का खामोश पथ उनका मन शब्दों से लबरेज कर देता। शैलेंद्र अपने अधिकतर गीतों को इस सैर के दौरान ही तराशा करते। एक बार राजकपूर ने उनसे पूछा कि 'वे जीवन के हर रंग और जिंदगी के हर फलसफे पर इतनी आसानी से गीत कैसे लिख लेते हैं?' शैलेंद्र कहते- 'अगर सुबह न होती तो बॉम्बे में ये सूनी सड़कें न होतीं। ये सूनी सड़कें न होतीं तो मैं अपनी तन्हाई में डूब न पाता और मेरे दोस्त, तुम्हें ये गीत न मिलते।' दरअसल, शैलेंद्र के गीतों की खासियत है कि हर कोई उनमें खुद को समाया हुआ सा महसूस करता है। ऐसा लगता है, मानो उनके गीत उसी के लिए लिखे गए हों। वक्त हो या मौसम, बचपन हो या जवानी, गम हो या खुशी, जीवन के हर रंग में शैलेंद्र के शब्द आज भी लोग गुनगुनाते रहते हैं:

तू ज़िन्दा है तो ज़िन्दगी की जीत में यकीन कर।

अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!

सुबह औ' शाम के रंगे हुए गगन को चूमकर,

तू सुन ज़मीन गा रही है कब से झूम-झूमकर,

तू आ मेरा सिंगार कर, तू आ मुझे हसीन कर!

ये ग़म के और चार दिन, सितम के और चार दिन,

ये दिन भी जाएंगे गुज़र, गुज़र गए हज़ार दिन,

कभी तो होगी इस चमन पर भी बहार की नज़र!

हमारे कारवां का मंज़िलों को इन्तज़ार है,

यह आंधियों, ये बिजलियों की, पीठ पर सवार है,

जिधर पड़ेंगे ये क़दम बनेगी एक नई डगर

अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!.... तू ज़िन्दा है

हज़ार भेष धर के आई मौत तेरे द्वार पर

मगर तुझे न छल सकी चली गई वो हार कर

नई सुबह के संग सदा तुझे मिली नई उमर

ज़मीं के पेट में पली अगन, पले हैं ज़लज़ले,

टिके न टिक सकेंगे भूख रोग के स्वराज ये,

मुसीबतों के सर कुचल, बढ़ेंगे एक साथ हम,

बुरी है आग पेट की, बुरे हैं दिल के दाग़ ये,

न दब सकेंगे, एक दिन बनेंगे इन्क़लाब ये,

गिरेंगे जुल्म के महल, बनेंगे फिर नवीन घर!

अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!.... तू ज़िन्दा है

शैलेंद्र के गीतों के बोल जिस भी व्यक्ति की जुबान पर एक बार चढ़ गए, फिर कभी नहीं भूलते हैं। राजकपूर ने एक कार्यक्रम में ही उनकी कविता सुनकर उसे अपनी फिल्म के लिए खरीदने की पेशकश की, जिस पर शैलेंद्र ने बेधड़क कह दिया था कि 'कविता बिकाऊ नहीं होती है।' बताते हैं कि शैलेंद्र अपने घर-परिवार के लिए रेलवे की नौकरी तो करने लगे थे लेकिन उनके भीतर का गीतकार उन्हें दिन-रात शब्दों के साथ रहने के लिए उकसाता रहता था। आखिर उसी राह वह चल पड़े, जिधर चलने का उनका मन था। वह जब रेलवे की ड्यूटी पर होते, काम करने की बजाए कविताएं लिखते रहते और इसके लिए कमोबेश रोजाना ही उन्हें अपने सीनियर रेलवे अफसरों की झिड़कियां झेलनी पड़ती थीं।

उन्हीं दिनो राज कपूर ने उनका ‘जलता है पंजाब’ गीत अपनी फिल्म ‘आग’ में लेने की पेशकश की थी। तब इनकार कर देने पर राजकपूर ने मुस्कराते हुए शैलेंद्र से कहा था - ‘आप कुछ भी कहें लेकिन पता नहीं क्यों मुझे आप के अंदर सिनेमा का एक सितारा नजर आता है।' उन्होंने शैलेंद्र के हाथ में एक पर्ची पकड़ाते हुए कहा था- ‘जब जी चाहे, इस पते पर चले आना।’ आखिरकार, एक दिन जब शैलेंद्र गर्भवती पत्नी के लिए दवा के पैसे न होने पर वह पर्ची लेकर राजकपूर से आरके स्टूडियो पहुंचे और फिर आगे के पूरे फिल्मी करियर के लिए दोनों एक हो गए। अपनी जिंदगी से उधार लिए हालात ने ही उन्हें ऐसे खूबसूरत गीत लिखने के लिए मजबूर किया होगा -

सबकुछ सीखा हमने, ना सीखी होशियारी।

सच है दुनियावालों के हम हैं अनाड़ी।

दुनिया ने कितना समझाया

कौन है अपना कौन पराया

फिर भी दिल की चोट छुपाकर

हमने आपका दिल बहलाया

ख़ुद ही मर मिटने की ये ज़िद है हमारी।

दिल का चमन उजडते देखा

प्यार का रँग उतरते देखा

हमने हर जीनेवाले को

धन-दौलत पे मरते देखा

दिल पे मरनेवाले मरेंगे भिखारी।

असली नक़ली चेहरे देखे

दिल पे सौ-सौ पहरे देखे

मेरे दुखते दिल से पूछो

क्या-क्या ख़्वाब सुनहरे देखे

टूटा जिस तारे पे नज़र थी हमारी।

कविराज शैलेंद्र ने यदि उर्दू शायरों और कवियों के वर्चस्व वाले उस दौर में अपना ऊंचा मोकाम हासिल किया तो उसकी वजह सिर्फ एक थी, उन्होंने अपने गीतों में हमेशा आम लोगों की भावनाओं को शामिल किया। वैसे तो करोड़ों फिल्म प्रेमियों के मन पर आज भी तमाम गीत राज करते हैं लेकिन उनके ये गीत तो जैसे हमेशा के लिए अमर हो गए - किसी की मुस्कराहटों पे हो निसार, घर आया मेरा परदेसी, तू प्यार का सागर है, तेरा जाना दिल के अरमानों का लुट जाना, दिल अपना और प्रीत पराई, दिल का हाल सुने दिलवाला, नन्हें मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है, प्यार हुआ इकरार हुआ, बरसात में हमसे मिले तुम सजन, बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना, भैया मेरे, राखी के बंधन को निभाना, मुड़-मुड़ के न देख मुड़-मुड़ के, मेरा जूता है जापानी, मेरा नाम राजू घराना अनाम, मैं गाऊँ, तुम सो जाओ, ये रात भीगी-भीगी, ये मस्त फ़िजाएँ, ये शाम की तनहाइयाँ, ऐसे में तेरा ग़म, रमय्या वस्तावय्या, मैंने दिल तुझको दिया, राजा की आएगी बारात, रुक जा ओ जाने वाली रुक जा, सजनवा बैरी हो गए हमार, होठों पे सच्चाई रहती है, नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए।

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