इंटलैक्चुअल चौपाल में बजी 'पद्मावत' की पिपिहरी
कहानी थोड़ी फिल्मी है...
'पद्मावत' की रिलीज को हरी झंडी देने के बाद ये सब बातें तो कल की हो चुकीं कि अब सुप्रीम कोर्ट की डबल बेंच में जाएगी करणी सेना, बिहार के मुजफ्फरपुर में 'पद्मावत' के खिलाफ सिनेमा हॉल में तोड़फोड़, पोस्टर फाड़े, 'पद्मावत' रिलीज हुई तो करणी सेना लगाएगी जनता कर्फ्यू, आदि-आदि बातें। कुछ बातें ऐसी भी हैं, जो गहरे छनती हैं सोशल मीडिया की बेबाक, मुंहफट शब्दों की धमा-चौकड़ी में। पूछिए तो क्या-क्या नहीं चल रहा, क्या-क्या नहीं कहा जा रहा इन दिनो आभासी दुनिया में 'पद्मावत' से इंटलेक्चुअल-चौपाल तक...
मलिक मोहम्मद जायसी का 'पद्मावत' तो एक साहित्य का हिस्सा है। उसे इतिहास नहीं माना जा सकता है। अलाउद्दीन खिलजी के चित्तौड़ पर विजय हासिल करने के 250 वर्षों बाद मलिक मुहम्मद जायसी के महाकाव्य 'पद्मावत' में रानी पद्मावत के किरदार का जिक्र मिलता है। अगर ऐसा कुछ था तो सरकारी इतिहासकार शयामल दास ने कभी पद्मावत का जिक्र क्यों नहीं किया है, क्यों उन्होंने भी जायसी के 'पद्मावत' का ही जिक्र किया है।'
चिड़ियाघर के पिंजरे में बंद जानवर को चिढ़ाना कभी-कभी दर्शक को भारी पड़ जाता है। सच पूछिए तो भंसाली, प्रकाश झा और उनके जैसे फिल्म निर्माता-निर्देशक इस देश के करोड़ो-करोड़ फिल्म दर्शकों की मासूमियत से खेल रहे हैं। और वह खेल सत्ता नायकों को भी अपने काम का लगता है, तो सियासी फसल काटने के लिए लगे हाथ वे भी मुट्ठियां लहराने लगते हैं। तो बात 'पद्मावत' की हो रही है, सिर्फ फिल्म 'पद्मावत' की नहीं। 'पद्मावत' पर देश के ख्यात इतिहासकारों के खोजी बयान सामने आने लगे हैं। प्रसिद्ध इतिहासकार प्रोफेसर इरफान हबीब ने कहा है कि 'पद्मावती नाम का चरित्र काल्पनिक है। ऐसा कोई किरदार कभी इतिहास में दर्ज ही नहीं हुआ है। ये सब किस्से-कहानियों की तरह से दर्ज हैं।
मलिक मोहम्मद जायसी का 'पद्मावत' तो एक साहित्य का हिस्सा है। उसे इतिहास नहीं माना जा सकता है। अलाउद्दीन खिलजी के चित्तौड़ पर विजय हासिल करने के 250 वर्षों बाद मलिक मुहम्मद जायसी के महाकाव्य 'पद्मावत' में रानी पद्मावत के किरदार का जिक्र मिलता है। अगर ऐसा कुछ था तो सरकारी इतिहासकार शयामल दास ने कभी पद्मावत का जिक्र क्यों नहीं किया है, क्यों उन्होंने भी जायसी के 'पद्मावत' का ही जिक्र किया है।' इतिहासविद् लोकेश सिंह चुंडावत कहते हैं - 'मुस्लिम इतिहासकार पद्मावत को काल्पनिक मानते हैं, जबकि पद्मावत के होने के कई प्रमाण मौजूद हैं। इतना फर्क जरूर है कि उस रानी का नाम पद्मावती नहीं पद्मिनी था।
ये बात गलत है कि खिलजी ने पद्मिनि को हासिल करने के लिए मेवाड़ पर हमला किया था। पद्मिनी को शीशे में देखने का किस्सा भी झूठ का एक हिस्सा है। 1303 में शक्ल देखने वाला शीशा था ही नहीं। शीशा तो 1710 में महाराणा संग्राम सिंह द्वीतीय बेल्जियम से लेकर आए थे। साथ ही ये बात भी साफ है कि खिलजी कभी किले में दाखिल हो ही नहीं पाया था। इस बीच जाने-माने फिल्म डायरेक्टर श्याम बेनेगल का कहना है कि धमकियों पर सरकार कोई एक्शन क्यों नहीं ले रही है। लोग खुलेआम सिर काटने की बात करते हैं, उसके बदले पैसे का ऑफर दे रहे हैं। राजस्थान सरकार इस पर चुप है। धमकियां देने वालों में करणी सेना के लोग ही नहीं, कई राज्यों में भाजपा के जिम्मेदार पदाधिकारी भी हैं।
यह भी गौरतलब होगा कि जिस रानी 'पद्मावत' पर बनी फिल्म को लेकर आज पूरे देश में विरोध और समर्थन का कोहराम मच रहा है, उस काल्पनिक पात्र को मलिक मोहम्मद जायसी के बाद, श्याम नारायण पांडेय ही ऐसे महाकवि रहे, जिन्होंने हिंदी कविसम्मेलनों के बहाने जन-जन तक पहुंचाया। मंचों पर वह रानी का 'जौहर' बांचते हुए आंखें किंचित नम कर लिया करते थे- 'जल गई रानी रुई सी, स्मृति सुई सी गड़ रही है।'
तो अब आइए, किंचित मौजू प्राक्कथन के बाद इसी प्रसंग वश उपजी एक गंभीर बहस की ओर रुख करते हैं। यद्यपि 'रघुवीर सहाय की छाया में पले-बढ़े कवि असद ज़ैदी पर उनकी पुस्तक 'सामान की तलाश' की समीक्षा के बहाने गैर-साहित्यिक सक्रियता के साथ पहले भी बहुत-कुछ प्रिय-अप्रिय कहा जा चुका है, उनकी एक ताजा टिप्पणी से पहले उनकी 'इस्लामाबाद' कविता पढ़ते हैं-
'मौसम ख़ुशनुमा था धूप में
तेज़ी न थी हवा धीरे धीरे
चलती थी, पैदल चलता आदमी
चलता चला जा सकता था कई मील
बड़े मज़े से
यह भी एक ख़ुशफ़हमी थी हालाँकि
मेरे साथ चलते शुक्ल जी से जब रहा न गया
तो बोले -
मेरे विचार से तो अब हमें इस्लामाबाद पर
परमाणु बम गिरा ही देना चाहिए।'
अब पढ़ते हैं, असद ज़ैदी की वह ताजा टिप्पणी, जो पिछले दिनो पहले आभासी दुनिया की बहस के केंद्र में आ गई- 'मुसलमान और मनुष्य : पिछली सदी के पूर्वार्द्ध में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कुतुबन नाम के मध्यकालीन प्रेमधारा के कवि और उनकी कृति 'मिरगावती' से प्रसन्न होकर कहा था कि कुतुबन मुसलमान होते हुए भी मनुष्य हैं। यह अन्तर्दृष्टिपूर्ण वक्तव्य आचार्य जी की 'जायसी' नामक पुस्तक की भूमिका में दर्ज है। अब 'पद्मावत' के हवाले से जायसी फिर से समाचारों के केन्द्र में हैं। इस बार शुक्ल-रीति का अनुसरण करने वाले एक ‘अत्यंत प्रगतिशील’ आलोचक ने जायसी की तारीफ़ इस तरह शुरू की है - 'पंद्रहवीं (?) शताब्दी के कवि मलिक मोहम्मद जायसी कहने को तो मुसलमान थे लेकिन उन्हें सनातन धर्म और समाज की इतनी जानकारी थी कि वे उसमें डूब चुके थे।' अहा! जायसी, और पता नहीं क्या-क्या दिन दिखाएँगे!'
इसे पढ़ने के बाद आशुतोष कुमार ने लिखा- 'रामचन्द्र शुक्ल से हमारी विराट असहमतियां हैं, विशेष कर उनकी इतिहास दृष्टि से, लेकिन मुझे लगता है कि यह बेहद बदनाम उद्धरण कुछ गलत समझ लिया गया है। वे मुसलमान होने और मनुष्य होने में अंतर जरूर करते हैं, लेकिन हिंदू होने और मनुष्य होने भी अंतर करते हैं। उनके लिए मनुष्यता मुसलमानपन और हिन्दूपन से बड़ी चीज है....। वह उद्धरण पूरा पढ़ा जाए -"एक ओर तो कट्टर और अन्यायी सिकंदर लोदी मथुरा के मंदिरों को गिरा कर मसजिदें खड़ी कर रहा था और हिंदुओं पर अनेक प्रकार के अत्याचार कर रहा था, दूसरी ओर पूरब में बंगाल के शासक हुसैनशाह के अनुरोध से, जिसने 'सत्य पीर' की कथा चलाई थी, कुतबन मियाँ एक ऐसी कहानी ले कर जनता के सामने आए, जिसके द्वारा उन्होंने मुसलमान होते हुए भी अपने मनुष्य होने का परिचय दिया।
इसी मनुष्यत्व को ऊपर करने से हिंदूपन, मुसलमानपन, ईसाईपन आदि के उस स्वरूप का प्रतिरोध होता है, जो विरोध की ओर ले जाता है। हिंदुओं और मुसलमानों को एक साथ रहते अब इतने दिन हो गए थे कि दोनों का ध्यान मनुष्यता के सामान्य स्वरूप की ओर स्वभावत: जाय।' असद ज़ैदी के कथन पर रवि रंजन लिखते हैं- 'जार्ज लुकाच ने लिखा है कि 'एक बड़ा रचनाकार अपनी प्रतिगामी विचारधारा के बावजूद यथार्थ का कलात्मक चित्रण करने में समर्थ होता है।' इसी प्रकार शुक्ल जी और उन जैसे अनेक लेखक-आलोचक ऐतिहासिक-सामाजिक कारणों से उत्पन्न अपने पूर्वग्रहों के बावजूद एक बड़ी लकीर खींचने में समर्थ रहे हैं।
जायसी का शुक्ल जी ने जैसा मूल्यांकन किया है और उन्हें जितना महत्त्व दिया है, वह सामासिक संस्कृति का नारा लगानेवाले बहुत से तथाकथित प्रगतिशील साहित्यिकों के बूते के बाहर है। ऐसा लगता है कि आप (असद ज़ैदी) की 'इस्लामाबाद' कविता में आए 'शुक्ल जी' के पीछे रामचंद्र शुक्ल के कुछ वक्तव्यों के कारण कवि मन में स्वभावत: पैदा हो गई कोई मनोग्रंथि है। कहने की ज़रूरत नहीं कि भारत के तमाम रक्षा वैज्ञानिक एवं विशेषज्ञ अच्छी तरह जानते हैं कि चीन से संभावित खतरे से बचाव के लिए बाध्यतावश निर्मित परमाणु बम का इस्तेमाल इस पूरे खित्ते को ही दुनिया के नक़्शे से मिटा देगा और आजतक किसी राजनीतिक दल की सरकार ने कभी ऐसी धमकी नहीं दी है।
अलबत्ता पाकिस्तान से भारत को परमाणु बम की धमकियाँ मिलती रही हैं। इसलिए यह प्रश्न अनुत्तरित रह जाता है कि संभवत: एक-डेढ़ दशक पूर्व रचित 'इस्लामाबाद' कविता में 'शुक्ल जी' के माध्यम से कवि ने भारत के किस तबके के सामूहिक अवचेतन को व्यक्त करना चाहा है।' इस पर चंद्रभूषण लिखते हैं- 'जल्दबाजी में कुछ कहने से पहले कृपया 1998 के पोखरण विस्फोट के तीसरे दिन अटल जी के संसदीय कार्यमंत्री मदनलाल खुराना का जम्मू में दिया गया वक्तव्य याद करें। एटम बम श्रद्धावश नहीं, किसी को धमकी देने के लिए ही बनाए जाते हैं।'
अब आगे चलते हैं। आशुतोष कुमार के इस कथन पर बहस आगे बढ़ती है।
कृष्ण कल्पित लिखते हैं- 'इससे तो यह लगता है कि शुक्लजी कहना चाहते हैं कि धर्मों के जाल से निकलकर ही कोई मनुष्य हो सकता है। धर्म मनुष्य होने में बाधा है। बहस में इस तथ्य पर भी ध्यान रखा जाए कि 'हिंदी साहित्य का इतिहास' में रामचन्द्र शुक्ल ने जायसी से लेकर रसखान से लेकर कुतुबन से लेकर अमीर ख़ुसरो इत्यादि जितने मुसलमान कवियों पर लिखा है, उतना किसी ने नहीं लिखा। आचार्य शुक्ल जायसी को तुलसी से बेहतर कवि मानते थे।'
आशुतोष कुमार कहते हैं- 'यह वस्तुतः साम्प्रदायिक नज़रिए के विरोध में है। हिन्दूपन, मुसलमानपन आदि का। शुक्ल जी धर्म विरोधी नहीं थे, लेकिन उनका नज़रिया धार्मिक न होकर भौतिकवादी था। मगर उनके साथ समस्या यह थी कि वे मध्यकाल को हिंदू-मुस्लिम संघर्ष का काल मानते थे, जोकि वह नहीं था। यह औपनिवेशिक इतिहास दृष्टि का प्रभाव था।'
इस प्रति-संवाद में असद ज़ैदी हस्तक्षेप करते हैं- 'पूरे उद्धरण में और भी कई तरह के ज़हर भरे हैं। औपनिवेशिक-साम्प्रदायिक इतिहास लेखन के सारे tropes इसमें मौजूद हैं। लोदी संबंधी विवरण तथ्य सम्मत नहीं है। पूरा विमर्श साम्प्रदायिक रंग में रंगा हुआ है।'
आशुतोष कुमार कहते हैं- 'जो है सो है, लेकिन जो उन्होंने नहीं लिखा, उसे नहीं पढ़ा जाना चाहिए। प्रतिमा खण्डन और महिमा मंडन से बचते हुए अंतर्विरोधों और जटिलताओं को समझने की कोशिश सही मूल्यांकन के लिए जरूरी है।'
असद ज़ैदी पूछते हैं- 'अब जो है सो है' का तो जवाब क्या? आप बख़ुशी शुक्ल रेखा के अंदर रहें और अपना पाठ बनाए रखें।'
आशुतोष कुमार कहते हैं- 'सर, काले सफ़ेद में बाँटकर चीजों को न देख पाने वालों की यही मुसीबत है। आप हमें शुक्ल रेखा के भीतर धकेल देंगे और 'शुक्ल-पक्षी' सामान की तलाश का मुरीद होने के कारण हमें असद घेरे में पटक देंगे। फिर भी जो है सो है!... कोई नापसंद हो, तो भी उसे उस ज़ुर्म के लिए फांसी नहीं दी जानी चाहिए, जो उसने किया ही नहीं। सजा उन्ही गुनाहों की मिले, जो उसने किए हों।'
बीच-बहस में सुपरिचित हिंदी आलोचक वीरेंद्र यादव आ जाते हैं- 'बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी। तो आचार्य शुक्ल जी ने इसी भूमिका में यह भी लिखा था- 'यदि मुसलमान हिंदी और हिन्दू साहित्य से दूर न भागते, इनके अध्ययन का क्रम जारी रखते, तो उनमें हिंदुओं के प्रति सद्भाव की वह कमी न रह जाती, जो कभी कभी दिखाई पड़ती है।'
सूरज बी थापा लिखते हैं- 'शुक्ल जी में जबरदस्त अंतर्विरोध हैं। इसका कारण यह है कि पाश्चात्य विद्वानों को पढ़कर वे अपना वस्तुनिष्ठ भौतिकवादी आलोचकीय मानस एक सीमा तक गढ़ते तो हैं पर उसका श्रेय उसे नहीं देना चाहते, सब कुछ को भारतीयता के आवरण में प्रस्तुत करना चाहते हैं। भारतीयता मतलब प्राचीन हिन्दू ज्ञान की परम्परा। जैसे-'विश्व प्रपंच' की भूमिका को प्रस्तुत करने का नजरिया। होता यह है कि उनके भौतिकवादी मानस पर अंतत: उनका अपना तथाकथित भारतीय संस्कार भारी पड़ जाता है। उनके लेखन में बीच-बीच में अनेक प्रगतिशील उद्धरण मिलते हैं पर अंत में उनका फाइनल स्टैंड ब्राह्मणवादी ही होता है। उनका 'लोकमंगल' बड़े ही सरलीकृत किस्म का है, एक हद तक स्पष्ट नहीं कि उसमें गैर हिंदुओं और गैर सवर्णों का क्या स्थान है, उस मॉडल में ये कहाँ और कैसे फिट होंगे। उनका 'लोकमंगल' आधुनिक लोकतंत्र पर आधारित न होकर परंपरागत उदारवादी हिन्दू समाज व्यवस्था टाइप का है, जिसे लोकतांत्रिक तो नहीं ही कहा जा सकता।'
इसी क्रम में आलोक बाजपेयी का अभिमत आता है- 'रामचन्द्र शुक्ल की हिंदी आलोचना पर जो प्रश्न हैं, उन्हें खारिज नही किया जा सकता। हिंदी आलोचकों की यह अलग समस्या आज भी है कि उन्होंने इतिहासकारों की अन्तर्दृष्टियों का उपयोग कम से कम करके मान्यताओं आदि को ही आलोचना की पृष्ठभूमि में वरीयता दी।'
इस बीच शशि शर्मा लिखते हैं- 'असद जी, माफ़ कीजिए, प्रसंग से काटकर कोई भी वाक्य उद्धृत नहीं करना चाहिए। दूसरी बात, अगर अपनी सामाजिक ऐतिहासिक सीमाओं में किसी लेखक ने इस प्रकार की एकाध ग़लती कर भी दी हो तो उसकी बिनाह पर उसके सारे प्रदाय पर पानी नहीं फेर देना चाहिए। कम से कम आप जैसे पढ़े-लिखे समाज के प्रति सकारात्मक उत्तरदायित्व निभाने वाले विद्वान को यह शोभा नहीं देता। हमें अपनी समृद्ध विरासत में कमियाँ नहीं ढूँढनी हैं, उसे विकसित करना है। सार-सार को गहि लहै, थोथा देह उड़ाय। अपनी परंपराओं में ऐसे तो कुछ नहीं बचेगा। क्या रहेगा हमारे पास। जो हो चुका, उसमें कमियाँ निकालने के बजाय यह सोचें कि आगे कैसे सुधारा जाए।'
अब बहस के आदि-अंत पर सुषमा नैथानी का रुख जानते हैं- हिंदी समाज में अगर intellectual rigor रहा होता और भक्तिभाव नहीं होता तो बिना विद्वेष के उनके समकालीन तभी यह ध्यान दिला देते तो अच्छा होता। इस तरह के एक नहीं, हज़ारों उदाहरण हम देखते हैं और सिर्फ़ शुक्ल जी के ही नहीं, सर्वत्र। मार्टिन लूथर किंग के लिए भी 'अमेरिकी दलित भाई ' का सम्बोधन उतना ही हास्यास्पद है और यदि यह कहने वाले के पास जातिवाद का संदर्भ नहीं होता तो शायद कभी यह विशेषण इस्तेमाल नहीं होता। किसी अफ़सर महिला को भी 'सर' और विशेषकर 'जय हिंद सर' आप कभी भी सुन सकते हैं। मुझे रोज़ एक इंटरनेशनल साइंस जनरल के सम्पादक होने के नाते जितने पत्र पांडुलिपि के साथ मिलते हैं, 90% 'सर' के सम्बोधन के साथ ही मिलते हैं।
भाषा के political correctness की आज हम जिस दुनिया में खड़े हैं, वो भी पिछले कुछ दशकों के नए विमर्शों और आंदोलनों के बाद बनी है। यह माना जा सकता है कि हमारे कई पूर्ववर्ती लोगों के पास वह दृष्टि नहीं थी। यह उनकी सीमा थी। उनके इस लिखे से हमें उस समय की समझ की सीमा का अहसास होता है। इससे ज़्यादा और क्या? हमारी सभ्यता की बुनियाद में, सब धर्मों में और सब विमर्शों की नींव इन्ही ग़लतियों से खड़ी हुई है। उन्ही के रेफ़्रेंस में नई और बेहतर दुनिया को गढ़ा जा सकता है।
बहस-मुबाहसे के दौरान सैयद मोहम्मद इरफान लिखते हैं- 'इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के 100 साला जश्न में डॉक्टर मूनिस रज़ा ने बताया था कि आठवीं कक्षा की इतिहास की पुस्तक में पढ़ाया जाता है - ''अलाउद्दीन खिलजी मुसलमान था परन्तु दयालु था।'' लगभग 30 साल पहले उनके इस उद्धरण से मैं चौंक गया था। मुझे तब तक एनसीआरटी की किताबें कभी देखने तक को नहीं मिली थीं। बाद में देखा कि राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसन्धान परिषद में अनेक प्रगतिशील लोग पाठ्य पुस्तक समितियों में थे और एक हद तक आज भी हैं। तब आज जैसा 'भक्तिकाल' नहीं था लेकिन अब संशय होता है कि आज के संकटों को हमने ही अपनी बेगानगियों, सुविधापरस्ती और आत्मसंतोष से आमंत्रित किया है।'
सुषमा नैथानी हस्तक्षेप करती हैं- 'इस तरह के कई उदाहरण गुणाकर मूले ने गणित की किताबों के संदर्भ में भी दिए हैं, कि मामूली सवालों की भाषा में भी किस क़दर जेंडर और धार्मिक विद्वेष भरा पड़ा है। भाषा की किताब में तो सर्वत्र है ही- राम किताब पढ़ / गीता पानी लाई / नानी खीर पकाई / पिता दफ़्तर / माँ घर। यह भाषा सचेत तरीक़े से वही लोग बदलेंगे, जिनकी आँख में आगे के लिए बेहतर सपना होगा, नहीं तो जो समाज के स्टेरियोटाइप हैं, वही सब जगह दिखते हैं। आगे बढ़ने के लिए बहुत सी पुरानी चीज़ों पर सवाल उठाने होंगे और उन्हें बदलना होगा ही, बिना किसी पुरखे के योगदान को कूड़े में डाले बिना। परेशानी भारतीय चिंतन में यह है कि सवाल उठाना अपमान मान लिया जाता है और सवाल पर बहस की बजाय व्यक्ति के बचाव में फ़ौज आ जाती है। हाँ, विद्वान की अपनी ऐतिहासिक सीमाएं होंगी ही। डार्विन का विकासवाद सही साबित हुआ लेकिन बहुत सी बातें और अनुमान ग़लत भी साबित हुए हैं। उससे उनका सम्मान और योगदान कम नहीं हुआ।'
अनायास मुड़े इस प्रसंग में अंततः असद ज़ैदी भी शामिल हो जाते हैं- 'पाठ्य पुस्तकों में रची बसी साम्प्रदायिकता का मसला पुराना है। नेहरू युग में भी इस पर चिंता प्रकट की जाती थी। आज़ादी के बाद से ही शिक्षा, ख़ासकर स्कूली शिक्षा तंत्र, ज्यादातर सूबों में पुरातनपंथी और साम्प्रदायिक तत्वों के हाथ में रहा है। मेरी सारी स्कूली शिक्षा सरकारी विद्यालयों में हुई। साहित्य और सामाजिक अध्ययन की किताबों में काफ़ी ऐसी सामग्री भरी होती थी, जो प्रच्छन्न रूप से साम्प्रदायिक होती थी। दक्षिणपंथी विभूतियों और पुनरुत्थानवादी आन्दोलनों का गुणगान भी ख़ासा रहता था। हिन्दी का पाठ्यक्रम तो शुक्ल संहिता की रौशनी ही में तय होता था। स्कूली शिक्षा ही क्यों, आज उच्च शिक्षा के स्तर पर भी हिन्दी के विद्यार्थियों को ज्ञानात्मक दृष्टि से पिछड़ा बनाए रखने, उन्हें आलोचनात्मक विवेक से वंचित रखने, में पूरी व्यवस्था लगी रहती है।
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