केरल के एक गांव में शतरंज ने कैसे छुड़ा दी हजारों की शराब और जुए की लत
करीब पचास साल पहले केरल के ज़िले 'त्रिशूर' की पहाड़ियों में बसा छोटा सा गांव मरोत्तिचल शराब और जुए की लपेट में जकड़ा हुआ था। कभी नशे का ऐसा बोलबाला था कि यहां आने-जाने वालों को शाम 7 बजे के बाद न तो बस मिलती थी और न ही रिक्शा। शाम होती नहीं थी कि लोग सड़कों पर लुढ़कते दिखने लगते थे। शराब, बेरोजगारी और जुए की लत ने कई घरों की रोशनी बुझा दी थी।
गांव के सी. उन्नीकृष्णन को ये बात खटक रही थी। वे नहीं चाहते थे कि उनका गांव नशे की जद में बर्बाद हो जाए। उस वक्त उन्नीकृष्णन दसवीं में पढ़ रहे थे। उन्होंने अमेरिका के 16 वर्षीय चेस ग्रैंडमास्टर बॉबी फिचर से प्रभावित होकर चेस सीखने का मन बनाया। पड़ोस के गांव में जाकर वे चेस सीखते और गांव वालों को सिखाते। देखते-देखते चेस उनके गांव का सबसे पसंदीदा खेल बन गया।
उन्नीकृष्णन मरोत्तिचल गांव में एक छोटी सी चाय की दुकान चलाते हैं। उनकी दुकान पर गांव भर के शतरंज खिलाड़ी जुटे रहते हैं। इस गांव में शतरंज के खिलाड़ी आठ साल के छोटे से बच्चे लेकर अस्सी साल के बूढ़े भी हैं।
शतरंज के खेल से दिमाग की कसरत होती है। शह और मात के इस खेल में अगर आपके सामने तेज दिमाग वाला बैठ गया तो आप गेम जीतने के लिए सुबह से शाम सिर खपाए रहेंगे, न भूख लगेगी और न प्यास। खेल के इसी मिजाज को समझते हुए एक शख्स ने केरल के एक गांव से नशे को खदेड़ बाहर कर दिया। खेल के जरिए नशे की लत को दूर करना आसान बात नहीं होती। नशा न केवल इंसान के दिल और दिमाग को खोखला बनाती है, बल्कि नशा एक ऐसा नासूर है जो कि परिवार और समाज को भी बर्बाद कर देता है। इस बात को समझा मरोत्तिचल के लोगों ने। करीब पचास साल पहले केरल के जिले 'त्रिशूर' की पहाड़ियों में बसा छोटा सा गांव मरोत्तिचल शराब और जुए की लपेट में जकड़ा हुआ था। कभी नशे का ऐसा बोलबाला था कि यहां आन-जाने वालों को शाम 7 बजे के बाद न तो बस मिलती थी और न ही रिक्शा।
शाम होती नहीं थी कि लोग सड़कों पर लुढ़कते दिखने लगते थे। शराब, बेरोजगारी और जुए की लत ने कई घरों की रोशनी बुझा दी थी। दो वक्त की रोटी वहां की महिलायें सुकून से नहीं खा सकती थीं, क्योंकि शाम होते ही वहां के पुरुष हिंसा पर उतर आते थे। महिलाएं पिटती थीं, लेकिन उन्हें बचाने कोई नहीं आता था। नशे में धुत इंसान जब खुद को नहीं बचा पाता तो कोई और उससे उम्मीद भी क्या करता। 1970 से 80 के दशक में नशे ने इस गांव को तबाह कर दिया था। बच्चे-बूढ़े और जवान सब नशे के आदी हो चुके थे। गांव तबाह हो रहा था। लेकिन ये सब अब इतिहास हो गया है। गांव के सी उन्नीकृष्णन लोगों को नशे के जाल से निकालने के लिए चेस खेलने की शुरुआत की। आज इस गांव में लड़के शाम 7 बजे के बाद गली-मोहल्ले, नुक्कड़-चौराहे और घर-आंगन में चेस खेलते नजर आते हैं। इस गांव के हर घर से कम से कम एक सदस्य तो चेस जरूर खेलता है।
घनघोर के अंधकार में रोशनी की एक किरण-
उन्नीकृष्णन बताते हैं कि आज से लगभग 40 साल पहले गांव के लोग शराब की गिरफ्त में कैद थे, 24 घंटे लोग शराब के नशे में मारपीट और झगड़ा करते रहते थे। उस समय उन्नीकृष्णन की उम्र महज 14 साल थी। उन्नीकृष्णन ने गांव वालों की इस शराब की लत को छुड़ाने की ठान ली और इसके लिए उन्होंने चुना चेस को। उनकी शुरुआत तो काफी चुनौतीपूर्ण रही, मगर उनकी मेहनत रंग लाई। उन्नीकृष्णन को ये बात खटक रही थी। वे नहीं चाहते थे कि उनका गांव नशे की जद में बर्बाद हो जाए। उस वक्त उन्नीकृष्णन दसवीं में पढ़ रहे थे। उन्होंने अमेरिका के 16 वर्षीय चेस ग्रैंडमास्टर बॉबी फिचर से प्रभावित होकर चेस सीखने का मन बनाया। पड़ोस के गांव में जाकर वे चेस सीखते और गांव वालों को सिखाते। देखते-देखते चेस उनके गांव का सबसे पसंदीदा खेल बन गया।धीरे-धीरे गांव वाले शराब से दूर और चेस के करीब हो गये। उसके बाद इस गांव के 1000 लोगों ने एक साथ चैस खेलकर एशियन रिकॉर्ड भी बनाया।
उन्नीकृष्णन अब गांव के बच्चों को चेस सिखाकर स्टेट और नेशनल चैंपियन तैयार करना चाहते हैं। अब इन लोगों के सिर पर शराब, नहीं शतरंज का नशा चढ़ा रहता है। यहां के बच्चे जैसे ही 10 से 15 साल की उम्र में पहुंचते हैं शतरंज में महारत हासिल कर लेते हैं। अब यहां के लोग इस खेल में इतने व्यस्त रहते हैं कि उनके पास शराब पीने का वक्त ही नहीं होता। लोगों पर शतरंज का नशा ऐसा चढ़ा कि शराब का नशा भूल गए। अब उन्नीकृष्णन 59 बरस के हैं। उन्होंने 600 से ज्यादा लोगों को चेस खेलना सिखाया है, उनमें से कुछ तो ऐसे भी हैं, जिन्होंने राज्यस्तरीय प्रतियोगिताओं में खूब मेडल झटके हैं। उनमें से कुछ तो ऐसे भी हैं, जिन्होंने राज्यस्तरीय प्रतियोगिताओं में खूब मेडल झटके हैं। उन्नीकृष्णन मरोत्तिचल गांव में एक छोटी सी चाय की दुकान चलाते हैं। उनकी दुकान पर गांव भर के शतरंज खिलाड़ी जुटे रहते हैं। इस गांव में शतरंज के खिलाड़ी आठ साल के छोटे से बच्चे लेकर अस्सी साल के बूढ़े भी हैं।
मरोचित्तल गांव बन गया है एक मिसाल-
जनवरी 2016 में चेस असोशिएशन ऑफ मरोत्तिचल से 700 सदस्य जुड़े। इसी के साथ इस गांव के नाम एक समय में हजार से ज्यादा खिलाड़ियों के शतरंज खेलने का एशियन रिकॉर्ड भी हो गया। नशे की गिरफ्त में जकड़ा ये गांव नशे को हरा चुका है। इस गांव ने नशे को हमेशा के लिए चेकमेट दे दिया है। उन्नीकृष्णन के मुताबिक, मैंने अपने बचपन में गांव वालों को शराब के नशें में धुत होकर परस्पर लड़ते हुए देखा है। लेकिन मै यह सोचने लगा कि कैसे गांव वालो को इस खराह आदत से छुटकारा दिलाऊं। काफी सोचने के बाद शतरंज खेल के माध्यम से ही इस आदत को खत्म करने का रास्ता मिला। हालांकि प्रारंभ में तो बहुत चुनौतियों का सामना करना पड़ा। लेकिन धीरे धीरे लोग इस खेल से जुड़ते गए। आज यह हालत है कि गांव के हर घर का एक सदस्य शतरंज जरूर खेलता है। जहां पहले शाम के समय किसी आदमी का गांव में आना मुश्किल था वहीं अब शाम होते ही लोग एक साथ शतरंज खेलने इकठ्ठा हो जाते है।
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