सीखेंगे! सिखाएंगे! कमाएंगे!
कोई भी लोकतंत्र सही मायने में तभी गणतंत्र होता है, जब वहां की सबसे छोटी इकाई मजबूत हो और किसी भी देश की सबसे छोटी इकाई होती है वहां के बच्चे। ऐसे बच्चे जो गरीबी रेखा से नीचे हैं, गांव के हैं और जिनके पास शहरी बच्चों की तरह महंगी-महंगी सुविधाएं नहीं है। उन्हीं खास बच्चों के लिए चंचल ने समता घर जैसा एक अनोखा स्कूल खोला है, जहां बच्चे सिर्फ पढ़ते ही नहीं, बल्कि ज़िंदगी को बेहतर तरीके से जीने के साथ-साथ बेहतरीन इंसान बनना भी सीखते हैं।
क्या आपने किसी ऐसे स्कूल के बारे में सुना है, जहां बच्चों को मोटी-मोटी किताबों से नहीं, बल्कि उनके अनुभवों से सिखाया-पढ़ाया जाता हो? नहीं, तो आईये मैं ले चलती हूं आपको एक ऐसे स्कूल में जहां बच्चों की पाठशाला बड़े अनोखे ढंग से चल रही है। एक ऐसा स्कूल जहां पढ़ने आने वाले बच्चों के कंधों पर न तो भारी बस्तों का बोझ है और न ही परीक्षाएं उनकी काबिलियत की पहचान हैं, एक ऐसा स्कूल जहां दूर-दूर तक मोटर-गाड़ियों का शोर नहीं सिर्फ खेत-खलिहान हैं, एक ऐसा स्कूल जहां न तो ऊंच-नीच काले-गोरे का भेद है और न ही यहां शिक्षा को बेचा जाता है। जहां के बच्चे एक सुर में गाते हैं,
"खेल-खेल में समझें सबको, ऐसी पाठशाला चाहिए हमको"
"आज के बच्चे पूरी तरह से मशीन में तब्दील हो रहे हैं। अंग्रेजी में बात करते हैं, महंगे स्कूल में पढ़ते हैं, गुडमॉर्निंग-गुडइवनिंग-गुडनाइट बोलते हैं, लेकिन भैंस को देख कर ऐसे चीखते-चिल्लाते हैं, मानो अजायबघर से छूटा हुआ कोई डायनासोर देख लिया हो।"
दुनिया भर के मां-बाप बच्चों को शहर के नंबर वन स्कूल में डालने के लिए परेशान हैं। बच्चा सुबह-सवेरे दस किलो का बस्ता अपने कंधों पर डाल कर स्कूल निकल जाता है और घर लौटते तक उस बस्ते के बोझ से उसका बचपन इतना दब चुका होता है, कि वो सात बजते ही आंखें मूंद कर सो जाने को बेचैन हो उठता है। आज के अभिभावकों की कॉम्पटेटिव प्रवृत्ति ने बच्चों के बचपन को उनसे छीन लिया है। बच्चे एग्ज़ाम्स और रिज़ल्ट्स में ही उलझ कर रह गये हैं। महानगरीय सभ्यता और शहरी स्कूलों ने बच्चों का बचपन पूरी तरह से बदल दिया है। बच्चे अंग्रेजी में बात करते हैं, महंगे स्कूल में पढ़ते हैं, गुडमॉर्निंग-गुडइवनिंग-गुडनाइट बोलते हैं, लेकिन भैंस को देख कर ऐसे चीखते-चिल्लाते हैं मानो अजायबघर से छूटा हुआ कोई डायनासोर देख लिया हो। बच्चे नदियां, नहरें, पोखर, तालाब, खेत, खलिहान, पगडंडियां और बगीचे छुट्टी के दिनों में देखते हैं वो भी उसे दिखाने के लिए अभिभावकों को हवाई जहाज का टिकिट लेना पड़ता है। क्योंकि ये सबकुछ शहरों में अब बाकी नहीं रहा। गांव शहर बन गये और शहर महानगर। झीलें पाट कर उन पर गगनचुंबी इमारतें खड़ी कर दी गईं। जंगलों को काट कर कंपनियां आ गईं। स्कूलों में हाई-जंप लो-जंप मैदानी मिट्टी में करवाने की बजाय आर्टिफिशियल घास उगे कालीनों पर करवाई जाने लगी और खो-खो, लंगड़ी टांग, गिल्ली-डंडा जैसे खेल कहीं लुप्त हो गये।
जहां एक ओर अधिकांश लोग अपने बच्चों के एडमिशन के लिए पांच लाख रूपये डोनेशन दे रहे हैं, शहर के सबसे महंगे स्कूल में फॉर्म भरने के लिए लाईन में लगे हुए हैं या फिर तीन साल से फेल होने के बाद चौथी बार भी एडमिशन की कोशिश में जुटे पड़े हैं, वहीं दूसरी ओर जौनपुर के चंचल समता घर के माध्यम से बच्चों का निर्माण बड़े अनोखे ढंग से कर रहे हैं। समता घर एक ऐसी जगह है, जहां बच्चे कला और प्रकृति से ज़िंदगी को पढ़ना और समझना सीख रहे हैं। आईये एक नज़र डालते हैं प्रकृति की गोद में चल रहे इस स्कूल के निर्माण और उद्देश्य पर...
"समता घर गांधी के एक छोटे से सपने को टटोलने का उपक्रम भर है। बुनियादी तालीम और कुटीर उद्योग की पुनरावृत्ति है समता घर। डॉ लोहिया की रचना के जरिये समाज को समता की ओर ले जाने का अहिंसक प्रयोग है समता घर। पंडित जवाहर लाल नेहरू के वैज्ञानिक सोच पर खड़े समाज को उत्तरोत्तर गति देने का प्रयास है समता घर। समता घर की नींव इसी बुनियाद पर आज से कई साल पहले रखी गई थी: चंचल"
भारत के मानचित्र पर एक प्रदेश है उत्तर प्रदेश और उसी प्रदेश का एक जिला है जौनपुर। चंचल इसी जिले में रहते हैं और यहीं पर रह कर समता घर का संचानल करते हैं। चंचल युवा सोच के धनी हैं और बच्चों के विकास को लेकर उनका नज़रिया बहुत साफ और ट्रांसपेरेंट है। अपनी इसी सोच के चलते चंचल ने समता घर की शुरुआत की। समता घर एक नॉन गवर्नमेंटल अॉर्गनाइजेशन (एनजीओ) है, इसलिए किसी भी तरह की सरकारी मदद नहीं लेता। लगभगग पांच सालों से यह स्कूल दो-चार रूपया महीना फीस से चल रहा है। ये फीस भी अभिवाकों से सिर्फ इसलिए ली जाती है, कि उनकी खुद्दारी का सम्मान किया जा सके। उन्हें ये महसूस न होने दिया जाये कि कोई उन पर दया करके उनके बच्चों को मुफ्त शिक्षा दे रहा है। समता घर आठवीं कक्षा तक है। यहां कोई परीक्षा नहीं होता। यहां से पढ़कर निकलने वाले बच्चे इतने परिपक्व हो जाते हैं, कि उन्हें किसी नये स्कूल की नौवीं कक्षा में आसानी से दाखिला मिल जाता है। आज की तारीख में समता घर में पचास बच्चे एक साथ पढ़ रहे हैं, जिसमें लड़के-लड़कियां बराबर संख्या में हैं।
समता घर उन स्कूलों जैसा बिल्कुल नहीं है, जैसे स्कूल हम अपने आस-पास देखते हैं और न ही ये उन स्कूलों जैसा है, जो कि आमतौर पर गाँवों में देखने को मिलते हैं। यहां शिक्षक स्लेट और चॉक पर एक एकम एक, दो दूनी चार सिखाने की बजाय बच्चों को उनके अनुभवों से सीखाते और समझाते हैं। समता घर के बच्चे अपने स्कूल को खुद ही साफ करते हैं। यहां बच्चों को अपने आप को साफ-सुथरा रखने के साथ-साथ उस जगह को साफ-सुथरा रखना भी सिखाया जाता है, जो उनके आसपास है। बच्चों को यहां बताया जाता है, कि अपने विद्यालय और अपने घर को खुद साफ करेंगे। क्योंकि ये आपकी जिम्मेदारी हैं। इसलिए यहां आने वाले बच्चे सुबह-शाम अपना स्कूल साफ करते हैं। किताबों को सही जगह पर रखते हैं। यहां आने वाले बच्चे हर शनिवार/रविवार अपने कपड़े खुद धोते हैं।
"चंचल का मानना है, कि बच्चे जब पढ़ते हैं, तो वे सिर्फ पढ़ते ही नहीं है, बल्कि उन्हें अपनी जिम्मेदारियों और अपनी असल ज़िंदगी से भी जुड़े रहना चाहिए। उन्हें अपना काम खुद करना आना चाहिए। चंचल का सपना है कि समता घर के माध्यम से बच्चे एक मुक्कमल इंसान बनें। क्योंकि जो शिक्षा आजकल स्कूलों में दी जा रही है, वो बच्चों को घर से, परिवार से, सोसाईटी से दूर ले जा रही है। उनकी संवेदनाओं को खतम कर रही है। समता घर महात्मा गांधी की बुनियादी तालीम पर बना है, जिसका एक ही उद्देश्य है "इंसान बनो।"
"समता घर कोई रेज़िडेंशियल स्कूल नहीं है। यहां बच्चों को पढ़ाई के साथ-साथ कई तरह की चीज़ें सिखाई जाती हैं, जैसे मिट्टी के खिलौने बनाना, मिट्टी के गहने बनाना, लकड़ी की डलिया बनाना और साथ ही सिलाई-कढ़ाई करना। बहुत जल्दी समता घर में चरखा सेंटर भी शुरू होने की संभावना है।"
मिट्टी के गहने बनाने से पहले बच्चे गहने के लिए मिट्टी पोखर-तालाबों के किनारे से खुद ही लेकर आते हैं। कुम्हार के निर्देशानुसार खुद ही भट्टी तैयार करते हैं। उसमें मिट्टी पकाते हैं, फिर उस पकी हुए मिट्टी से सुंदर-सुंदर गहने बनाते हैं। भारत सरकार बहुत जल्दी समता घर के बच्चों को चरखा सेंटर भी दे देगी, जिससे बच्चे और भी नये काम सीखेंगे। समता घर में सिलाई मशीनों की व्यवस्था है, यहां बच्चे सिलाई करना भी इसी महीने से शुरू करने वाले हैं, जिसमें वे शर्ट में बटन लगाना, तुरपाई करना और कपड़ों को तह लगाना जैसे काम सीखेंगे। साथ ही बच्चों को कपड़ों पर टाई ऐंड डाई करना सिखाया जायेगा। चंचल बहुत जल्दी यहां के बच्चों के हाथों से बने गहनों, खिलौनों और सामानों को बाज़ार में उतारने की योजना बना रहे हैं। कई शहरों में इनकी प्रदर्शियों की भी योजना है। आने वाले दिनों में आप देख पायेंगे, कि दुकानों में मिलने वाले सामानों के नीचे समता घर का टैग होगा।
"समता घर में बच्चों को स्कूटर, साईकिल या रिक्शा से आने पर प्रतिबंध है। जो बच्चा स्कूल आयेगा वो पैदल चलकर आयेगा, जिसके पीछे की वजह बड़ी खूबसूरत है। बच्चे यदि पैदल स्कूल आयेंगे, तो घर से स्कूल तक रास्ते में पड़ने वाली चीज़ को देखते, समझते और छू कर महसूस करते हुए आयेंगे। रास्ते में पड़ने वाले पोखर-तालाब, खेत-खलिहानों को देखते हुए, पड़ोस के चाचा से दुआ सलाम करते हुए स्कूल पहुंचेंगे। ऐसे में उन्हें अपने आस-पास के माहौल को साफ तरह से समझने का अवसर मिलेगा। समता घर के बच्चों को गणित किताब से नहीं बल्कि प्रेक्टिकल करके सीखाई जाती है, जो कि इंटरनेशनल स्कूल में भी सिखाई जाती है, लेकिन उसकी फीस?"
चंचल का मानना है, कि "महंगे शहरी स्कूल (अभिभावकों से मोटी फीस ऐंठने वाले स्कूल) मां-बाप को सिर्फ ठगने का काम कर रहे हैं और यह बात अभिभावकों को तब समझ आयेगी जब बहुत देर हो चुकी होगी। समता घर जैसा स्कूल हर शहर में होना चाहिए, जिसकी फीस शहर में काम करने वाले लोगों की आमदनी पर नहीं बल्कि मुफ्त हो या फिर 2-4 रूपये।" आज की पढ़ाई और शिक्षा व्यवस्था पर बात करते हुए चंचल कहते हैं, कि "सामाजिक तौर पर बच्चों को पूरी तरह से काट दिया जा रहा है। बच्चों के पास बचपन के अलावा बाकी सबकुछ है। यह आधुनिक शिक्षा उनके बचपन को खतम कर रही है। सुबह उठ कर स्कूल के लिए तैयार होना, गर्मी के मौसम में जूते और टाई पहनना अजीब है। बच्चों की कोई स्कूल यूनिफॉर्म नहीं होनी चाहिए। बच्चे तो बगीचे के उन फूलों जैसे हैं, जो अलग-अलग रंगों में मुस्कुराते हैं। उन्हें स्कूल यूनिफॉर्म पहना कर एक रंग में रंग देना सही नहीं है।"
दिल्ली की सुनीता चक्रवर्ती भी समता घर से जुड़ी हुई हैं, जो कि काफी प्रसिद्ध आर्टिस्ट हैं। चंचल जी की दोनों बेटियां भी समता घर में अपना भरपूर योगदान दे रही हैं।
"चंचल एक बेहतरीन आर्टिस्ट हैं, लेकिन अपनी कला का प्रदर्शन करने से बचते हैं। लोग इन्हें प्यार से चंचल दद्दा भी कहते हैं।"
चंचल बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में फ़ाईन आर्ट के विद्यार्थी और छात्र संघ के अध्यक्ष रहे हैं। एक निष्पक्ष पत्रकार, बेहतरीन कार्टूनिस्ट, शानदार आर्टिस्ट, जोरदार लेखक, समाजवादी चिंतक और प्रखर वक्ता हैं। चंचल लंबे समय तक थियेटर ग्रुप से जुड़े रहे और उनके लिखे नाटक आज भी कई थियेटर्स में चलते हैं। चंचल का लिखा वे ही समझ सकते हैं, जो उन्हें पहचानते हैं।
समसामयिक और ऐतिहासिक विषयों पर तार्किक और तथ्यात्मक विश्लेषण और चंचल की व्यंग्यात्म शैली इनके लिखे पर गंभीरता से सोचने को मजबूर करती है। चंचल देश की कई पत्र-पत्रिकाओं में पत्रकार, स्तंभकार, कार्टूनिस्ट और रेल मंत्रालय में सलाहकार के रूप में अपनी सेवाएं दे चुके हैं। लाखों दिलों पर राज करने वाले सुपर स्टार राजेश खन्ना और जॉर्ज फर्नांडीस इनके प्रशंसक और खास मित्रों में रहे।
"काका (सुपरस्टार राजेश खन्ना) ने हमारी संजीदगी को भांप लिया और बोल उठे, छोड़िए साहिब! कोइ तीसरा रास्ता खोजा जाये और एक ठहाके के साथ शुरुआत हुई तीसरे रास्ते की और वो तीसरा रास्ता था समता घर की नींव: चंचल"
समता घर की शुरूआत के नाम पर चंचल काका (राजेश खन्ना) और अपनी दोस्ती में खो जाते हैं। वे कहते हैं, "समता घर की नींव की खुदाई बेहद दिलचस्प है। तारीख याद नहीं, लेकिन जगह याद है। आज से करीब पंद्रह साल पहले 81 लोधी रोड, राजेश खन्ना के सरकारी आवास पर हम लोग बैठे थे। सुमित मित्रा (पत्रकार) उन दिनों जनसत्ता में थे, वे भी वहां मौजूद थे। साथ ही नरेश जुनेजा, यश बारी, रूपेश कुमार (फिल्मी दुनिया वाले) भी हमारे साथ ही बैठे थे। सुमित मिश्रा ने अचानक हमसे एक सवाल पूछा- चंचल जी, आगे क्या इरादा है? पॉलिटिक्स में जाने का या पत्रकारिता में फिर से लौट आने का? हम सन्नाटे में आ गये। कभी और विशेष कर अपने बारे में हमने एेसे सवालों को हल करने अलहदी रहे। यदमत जीवेत, सुखम जीवेत, के दर्शन पर जाने-अनजाने चारवाक के करीबी रहे हैं। उस समय तो मैं कोई उत्तर नहीं दे पाया, लेकिन ये सवाल मुझे सालता रहा। सुमित को दफ्तर जाना था, चले गये, लेकिन सवाल सालता रहा। और हम? आशक्ति और अनाशक्ति में कृष्ण हमारे गुरु हैं, जहां रहो, वही के रहो, हटो तो पलटकर मत जाओ। हम चुप हो गए। काका यानी राजेश खन्ना ने हमारी संजीदगी को भांप लिया और बोल उठे, छोड़िए साहिब! कोइ तीसरा रास्ता खोजा जाये और एक ठहाके के साथ शुरुआत हुई तीसरे रास्ते की और वो तीसरा रास्ता था समता घर की नींव।"
दुनिया बदल रही है, देश बदल रहा है, इंसान बदल रहा है, लेकिन कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनकी मिट्टी की खुशबू उनकी रूह में समाई होती है और वे अपनी उसी मिट्टी में अपने पांव फंसाये नई फसलें तैयार करते हैं। सबकुछ पा लेने की काबिलियत होने के बावजूद अपनी इच्छाओं को अपनी ज़रूरतों पर हावी नहीं होने देने का दूसरा नाम हैं चंचल। चंचल यदि चाहते तो कुछ भी कर सकते थे, लेकिन उन्होंने वो किया जो उनके दिल ने कहा। दिमाग की तो सब सुनते हैं, जो दिल की सुनते हैं, वे ही अपनी ज़िंदगी के राजा होते हैं। ख्वाहिशों की वैसे भी कोई सीमा नहीं, इसलिए इंसान को खुद तय करनी पड़ती हैं अपनी ख्वाहिशें और उनकी सीमाएं। युवा सोच के धनी चंचल एक बेहतरीन व्यक्तित्व हैं, जिनके साथ रहते हुए आप ज़िंदगी का वो रूप देख पायेंगे, जिसमें प्रदूषण की धुंध का नामो-निशान नहीं। फिर चाहे वो प्रदूषण मानसिक हो या फिर प्राकृतिक हो।
कितना अच्छा हो, समता घर के नन्हें-मुन्ने आपकी दी हुई कॉपियों में लिखना सीखें, आपकी दी हुई किताबों से कहानियां पढ़ना सीखें, अंग्रेजी के नये शब्द सींखे... हिन्दी के अनोखे शब्द गढ़ें और आपके भेजे गये रंगों को कोरे कागज़ों में भर दें...
इस गणतंत्र दिवस पर आप भी देश की तरक्की में hindi.yourstory.com, चंचल और मेरे साथ जुड़ कर अपना योगदान दें। मैं ये नहीं कहती की आप सौ-पचास-हज़ार किताबें, कॉपियां, रंग, कूचियां भेज दें... सिर्फ दस से ही शुरुआत करें। आपकी दस चीज़ें दस बच्चों तक पहुंचेंगी और उनके विकास में अपनी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायेंगी। रंगों का एक डिब्बा 50 रूपये का आता है, दस डिब्बे 500/- के। एक कॉपी 50 रूपये की, 10 कॉपियां 500/- रूपये की। कहानी की किताबें तो आपके घरों में ही होंगी, जो किताबें आपके बच्चों ने पढ़कर रद्दी में जाने के लिए रख दी होंगी। सोसाईटी गेट के पास बने डोनेशन बॉक्स में आप कितनी ही किताबें ये सोच कर डाल देते हैं, कि ये किताबें किसी अनाथ आश्रम में जायेंगी, लेकिन अक्सर ऐसा भी होता है कि वे सारी किताबें रद्दी में दो रूपये किलो के दाम से बेच दी जाती हैं। तो क्यों न उन किताबों को समता घर भेज दिया जाये। वहां के बच्चे पढ़ेंगे, सीखेंगे, गढ़ेंगे और अच्छे इंसान बनेंगे। वहां आने वाले बच्चे ऐसे घरों से आते हैं, जिनके पास किताबों, कॉपियों, रंगों, बस्तों के लिए पैसे नहीं होते और समता घर एक नॉन गवर्नमेंटल अॉर्गनाइजेशन है, इसलिए किसी भी तरह की सरकारी मदद नहीं लेता। तो देर किस बात की, आप भी आगे आयें और इन नन्हें-मुन्नों की बेहतरी में एक छोटी-सी भूमिका निभायें। अपनी खुशी से सामान इस पते पर भेजें,
"समता घर, गांव पूरालाल, पोस्ट अॉफिस- धेमा, जिला-जौनपुर, उत्तर प्रदेश- 222125"
याद रहे, इस पते पर कोई कुरियर नहीं जाता, इसलिए जो भी भेजें पोस्ट के द्वारा भेजें।
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