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सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं: दुष्यंत कुमार

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं: दुष्यंत कुमार

Saturday December 30, 2017 , 6 min Read

कालजयी हिंदी ग़ज़लकार दुष्यंत कुमार ने कविता, गीत, गज़ल, काव्य नाटक, कथा आदि सभी विधाओं में लेखन किया लेकिन गज़लों की अपार लोकप्रियता ने उनकी अन्य विधाओं के सृजन-संसार को नेपथ्य में डाल दिया। वह उत्तर प्रदेश के जनपद बिजनौर के रहने वाले थे। 30 दिसंबर को उनकी पुण्यतिथि होती है...

रामधारी सिंह दिनकर के साथ दुष्यंत कुमार

रामधारी सिंह दिनकर के साथ दुष्यंत कुमार


उस समय आम आदमी के लिए नागार्जुन तथा धूमिल जैसे कुछ कवि ही बच गए थे। ऐसे वक्त में दुष्यंत कुमार अपनी बेजोड़ गजलकारी से पूरे देश में मशहूर हुए।

समकालीन हिन्दी कविता विशेषकर हिन्दी गज़ल के क्षेत्र में जो लोकप्रियता दुष्यन्त कुमार को मिली, वैसी दशकों बाद विरले किसी कवि को नसीब हो पाती है। 

दुष्यन्त का पूरा नाम दुष्यन्त कुमार त्यागी था। प्रारम्भ में दुष्यन्त कुमार परदेशी के नाम से लेखन करते थे। जिस समय दुष्यंत कुमार ने साहित्य की दुनिया में अपने कदम रखे, उस समय भोपाल के दो तरक्कीपसंद शायरों ताज भोपाली और क़ैफ़ भोपाली का ग़ज़लों की दुनिया पर राज था। हिन्दी में भी उस समय अज्ञेय तथा गजानन माधव मुक्तिबोध की कठिन कविताओं का बोलबाला था। उस समय आम आदमी के लिए नागार्जुन तथा धूमिल जैसे कुछ कवि ही बच गए थे। ऐसे वक्त में दुष्यंत कुमार अपनी बेजोड़ गजलकारी से पूरे देश में मशहूर हुए। निदा फ़ाज़ली लिखते हैं- दुष्यंत की नज़र उनके युग की नई पीढ़ी के ग़ुस्से और नाराज़गी से सजी बनी है। यह ग़ुस्सा और नाराज़गी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मों के ख़िलाफ़ नए तेवरों की आवाज़ थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानंदगी करती है....

मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आयेंगे

इस बूढे पीपल की छाया में सुस्ताने आयेंगे।

हौले-हौले पाँव हिलाओ जल सोया है छेडो मत

हम सब अपने-अपने दीपक यहीं सिराने आयेंगे।

थोडी आँच बची रहने दो थोडा धुँआ निकलने दो

तुम देखोगी इसी बहाने कई मुसाफिर आयेंगे।

उनको क्या मालूम निरूपित इस सिकता पर क्या बीती

वे आये तो यहाँ शंख सीपियाँ उठाने आयेंगे।

फिर अतीत के चक्रवात में दृष्टि न उलझा लेना तुम

अनगिन झोंके उन घटनाओं को दोहराने आयेंगे।

रह-रह आँखों में चुभती है पथ की निर्जन दोपहरी

आगे और बढे तो शायद दृश्य सुहाने आयेंगे।

मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता

हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने आयेंगे।

हम क्यों बोलें इस आँधी में कई घरौंदे टूट गये

इन असफल निर्मितियों के शव कल पहचाने जायेंगे।

हम इतिहास नहीं रच पाये इस पीड़ा में दहते हैं

अब जो धारायें पकड़ेंगे इसी मुहाने आयेंगे।

दुष्यन्त कुमार इलाहबाद विश्व विद्यालय से शिक्षा प्राप्त करने के बाद कुछ दिन आकाशवाणी भोपाल में असिस्टेंट प्रोड्यूसर रहे। बाद में प्रोड्यूसर पद पर ज्वाइन करना था लेकिन तभी हिन्दी साहित्याकाश का यह सूर्य अस्त हो गया। इलाहबाद में कमलेश्वर, मार्कण्डेय और दुष्यन्त की दोस्ती बहुत लोकप्रिय थी। वास्तविक जीवन में दुष्यन्त बहुत सहज और मनमौजी व्यक्ति थे। कथाकार कमलेश्वर बाद में दुष्यन्त के समधी भी हुए। हिन्दी साहित्याकाश में दुष्यन्त सूर्य की तरह देदीप्यमान हैं। समकालीन हिन्दी कविता विशेषकर हिन्दी गज़ल के क्षेत्र में जो लोकप्रियता दुष्यन्त कुमार को मिली, वैसी दशकों बाद विरले किसी कवि को नसीब हो पाती है। अपने समय की युवा पीढ़ी को आवाज देते हुए दुष्यंत कुमार कहते हैं -

पक गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं।

कोई हंगामा करो ऐसे गुज़र होगी नहीं।

इन ठिठुरती उँगलियों को इस लपट पर सेंक लो

धूप अब घर की किसी दीवार पर होगी नहीं।

बूँद टपकी थी मगर वो बूँदो-बारिश और है

ऐसी बारिश की कभी उनको ख़बर होगी नहीं।

आज मेरा साथ दो वैसे मुझे मालूम है

पत्थरों में चीख़ हर्गिज़ कारगर होगी नहीं।

आपके टुकड़ों के टुकड़े कर दिये जायेंगे पर

आपकी ताज़ीम में कोई कसर होगी नहीं।

सिर्फ़ शायर देखता है क़हक़हों की अस्लियत

हर किसी के पास तो ऐसी नज़र होगी नहीं।

दुष्यंत कुमार गज़लें सिर्फ लिखते नहीं हैं, गज़ल लिखना सिखाते भी हैं, साथ ही हमे सावधान भी करते हैं कि अपने वक्त को पहले गौर से देख, फिर उसे अपने शब्दों के आईने में उतारते हुए जमाने को बता कि वह तुझसे क्या सीख रहा है, और सीखने के बाद उसे शब्दों को अपने जिंदगीनामे में किस तरह शामिल कर लेना है -

आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख,

पर अन्धेरा देख तू आकाश के तारे न देख ।

एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ,

आज अपने बाज़ुओं को देख पतवारें न देख ।

अब यकीनन ठोस है धरती हक़ीक़त की तरह,

यह हक़ीक़त देख लेकिन ख़ौफ़ के मारे न देख ।

वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे,

कट चुके जो हाथ उन हाथों में तलवारें न देख ।

ये धुन्धलका है नज़र का तू महज़ मायूस है,

रोजनों को देख दीवारों में दीवारें न देख ।

राख़ कितनी राख़ है, चारों तरफ बिख़री हुई,

राख़ में चिनगारियाँ ही देख अंगारे न देख ।

दुष्यंत कुमार ने 'एक कंठ विषपायी', 'सूर्य का स्वागत', 'आवाज़ों के घेरे', 'जलते हुए वन का बसंत', 'छोटे-छोटे सवाल' और दूसरी गद्य तथा कविता की किताबों का सृजन किया। दिनेश ग्रोवर लिखते हैं कि दुष्यन्त अपने जीवनकाल में ही एक किंवदंती बन गए थे। उनकी लोकप्रियता का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि पिछले चुनावों में आमने -सामने दो विरोधी पार्टियां एक ही तख्ती लगाये चल रही थीं; सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं / मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए, हम फख्र से कह सकते हैं कि हिंदी ने मीर, ग़ालिब भले न पैदा किये हों मगर दुष्यन्त कुमार को पैदा किया है और यही हमारी हिंदी की जातीय अस्मिता की एक बहुत बड़ी विजय है।

लोकप्रिय कवि यश मालवीय का कहना है कि दुष्यन्त की कविता ज़िन्दगी का बयान है। ज़िन्दगी के सुख- दुःख में उनकी कविता अनायास याद आ जाती है। विडम्बनायें उनकी कविता में इस तरह व्यक्त होती हैं कि आम आदमी को वे अपनी आवाज़ लगने लगती हैं। समय को समझने और उससे लड़ने की ताकत देती ये कवितायें हमारे समाज में हर संघर्ष में सर्वाधिक उद्धरणीय कविताएँ हैं। सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं / मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए यह मात्र एक शेर नहीं ज़िन्दगी का एक दर्शन है फलसफा है। चूँकि दुष्यन्त की कविताएँ जनता के जुबान पर चढ़ी हुई हैं इसलिए मीडिया के लोग भी विशेष मौकों पर अपनी बात जन तक पहुँचाने के लिए, उनके दिलों में उतार देने के लिए दुष्यन्त की शायरी का इस्तेमाल करते हैं। दुष्यन्त की ग़ज़लें कठिन समय को समझने के लिए शास्त्र और उनसे जूझने के लिए शस्त्र की तरह हैं-

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए

इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी

शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में

हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं

मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही

हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

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