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'चंद हसीनों के खतूत' लिख गए पांडेय बेचन शर्मा उग्र

'चंद हसीनों के खतूत' लिख गए पांडेय बेचन शर्मा उग्र

Friday December 29, 2017 , 5 min Read

 वह अभिनय में भी कुशाग्र थे। बाद में काशी के सेंट्रल हिंदू स्कूल से आठवीं कक्षा तक आधी-अधूरी पढाई कर पाए। साहित्य के प्रति उनका प्रगाढ़ अनुराग लाला भगवानदीन के सान्निध्य में प्रस्फुटित हुआ। 

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 उनकी कितनी ही रचनाएँ ब्रिटिश सरकार ने जब्त कर ली थीं, जिनका कालांतर में पुनर्प्रकाशन हुआ। उग्रजी के लिए यह सबसे सुखद बात रही कि उनकी सारी कृतियां उनके रहते येन केन प्रकारेण प्रकाशित हो गई थीं।

उन्होंने साहित्य की विभिन्न विधाओं का गहरा अध्यवसाय किया। उनकी मित्र-मंडली में सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', जयशंकर प्रसाद, शिवपूजन सहाय, विनोदशंकर व्यास जैसे यशस्वी कवि-साहित्यकार रहे।

उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद के समकालीन, अक्खड़, अलमस्त, ख्यात कथाकार पांडेय बेचन शर्मा उग्र की आज (29 दिसंबर) 117वीं जयंती है। आज के आपाधापी वाले अर्धपगलापे के दौर में ऐसे साहित्यकारों, शख्सियतों को भूल जाना कितना सहज हो चुका है। दिल-दिमाग पर दुनिया भर का कचरा लादे आज की युवा पीढ़ी के लिए तो मोबाइल और इंटरनेट ने कुंए में भांग घोल दी है। ऐसे में बहुतों को याद नहीं होंगे चुनार (मिर्जापुर-उ.प्र.) के गांव सद्दूपुर की बभनटोली के रहने वाले उग्र जी, जो श्मशान घाट पर काले पत्थरों से अपना मकान बनाने का सपना देखते-देखते चले गए।

बचपन में राम-लीला में काम किया, बड़े होकर 'आज' अखबार के पत्रकार बने, मुंबई जाकर सिनेमाई भी हुए, लिखने लगे तो कहानी को ‘उग्र शैली’ दी, 'बुधुआ की बेटी', 'दिल्ली का दलाल', 'चंद हसीनों के खतूत' आदि उनके लोकप्रिय उपन्यासों के साथ कई चर्चित कहानी संग्रह भी हैं। उनकी कितनी ही रचनाएँ ब्रिटिश सरकार ने जब्त कर ली थीं, जिनका कालांतर में पुनर्प्रकाशन हुआ। उग्रजी के लिए यह सबसे सुखद बात रही कि उनकी सारी कृतियां उनके रहते येन केन प्रकारेण प्रकाशित हो गई थीं।

उग्रजी की कहानियों की भाषा सरल, अलंकृत और व्यावहारिक होती थी, जिसमें उर्दू के व्यावहारिक शब्द भी अनायास ही आते रहे। उनके प्रमुख उपन्यास थे चंद हसीनों के खतूत, दिल्ली का दलाल, बुधुवा की बेटी, शराबी, घंटा, सरकार तुम्हारी आँखों में, कढ़ी में कोयला, जीजीजी, फागुन के दिन चार, जूहू आदि। उन्होंने महात्मा ईसा, चुंबन, गंगा का बेटा, आवास, अन्नदाता माधव महाराज महान आदि नाटकों की भी रचना की। इसके अलावा ध्रुवचरित पुस्तक में कविताएं लिखीं, तुलसीदास आदि अनेक आलोचनात्मक निबंध लिखे।

अपनी खबर नाम से उन्होंने आत्मकथा लिखी। पत्रकार के रूप में उन्होंने भूत, उग्र (मासिक पत्रिका), मतवाला, संग्राम, हिंदी पंच, वीणा, विक्रम आदि कई पत्रिकाओं का संपादन किया। वह बचपन से ही कविताएं लिखने लगे थे। किशोर वय में उन्होंने प्रियप्रवास की शैली में 'ध्रुवचरित्' नामक प्रबंध काव्य रच डाला था। उग्रजी के पिता का नाम वैद्यनाथ पांडेय था। वह सरयूपारीण ब्राह्मण थे। अत्यंत अभावग्रस्त परिवार में उनका जन्म हुआ। स्कूली पठन-पाठन बाधित रहा। अभावों के चलते ही उनको बचपन में राम-लीला में काम करना पड़ा।

 वह अभिनय में भी कुशाग्र थे। बाद में काशी के सेंट्रल हिंदू स्कूल से आठवीं कक्षा तक आधी-अधूरी पढाई कर पाए। साहित्य के प्रति उनका प्रगाढ़ अनुराग लाला भगवानदीन के सान्निध्य में प्रस्फुटित हुआ। उन्होंने साहित्य की विभिन्न विधाओं का गहरा अध्यवसाय किया। उनकी मित्र-मंडली में सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', जयशंकर प्रसाद, शिवपूजन सहाय, विनोदशंकर व्यास जैसे यशस्वी कवि-साहित्यकार रहे। गोस्वामी तुलसीदास तथा उर्दू के प्रसिद्ध शायर असदुल्ला खाँ गालिब, उनके दो सबसे प्रिय रचनाकार थे।

उग्रजी आजीवन मौलिक साहित्य साधना में लगे रहे। उन्होंने काव्य, कहानी, नाटक, उपन्यास आदि हिंदी की लगभग सभी विधाओं में समान अधिकार के साथ श्रेष्ठ कृतियों का सृजन किया। पत्रकारिता में भी उन्होंने आदर्श प्रस्तुत किया। असत्य से कभी डरे नहीं, सत्य का साथ आखिरी सांस तक निभाया। इसके लिए उनहें काफी कीमत चुकानी पड़ी। वह दैनिक 'आज' में अष्टावक्र नाम से 'ऊटपटाँग' शीर्षक से व्यंग्य लिखा करते थे। फिर हास्य-व्यंग्य-प्रधान 'भूत' नाम से पत्र निकाला। गोरखपुर से प्रकाशित होनेवाले 'स्वदेश' के 'दशहरा' अंक का संपादन किया। इसके बाद कलकत्ता से प्रकाशित 'मतवाला' से जुड़ गए। वहीं से उनकी यशस्वी साहित्यिक यात्रा को गति मिली।

फरवरी, 1938 में उन्होंने काशी से 'उग्र' नाम से साप्ताहिक पत्र निकाला। इसके कुल सात अंक ही प्रकाशित हो सके। कुछ समय तक उन्होंने इंदौर से निकलनेवाली 'वीणा' मासिक पत्रिका में उन्होंने संपादन किया। इसके बाद सूर्यनारायण व्यास के सहयोग से 'विक्रम' मासिक पत्र निकालने लगे। इसके भी पाँच अंकों तक ही वहां जुड़े रहे। अपने उग्र स्वभाव के कारण वह कहीं भी अधिक दिनों तक टिक नहीं सके। वह सफल पत्रकार तो थे ही, आजीवन हालात से संघर्ष करते रहे। सन् 1967 में उनका दिल्ली में देहावसान हो गया। उग्रजी की विशेषता थी कि वह कहानी, कविता, उपन्यास, निबंध, आत्मकथा, आलोचना, नाटक आदि हर विधा पर बेलौस कलम चलाते रहे।

उग्रजी अपनी कहानियों में किस तरह के कथानक बुनते थे, उसकी एक छोटी सी बानगी, उनकी कहानी 'उसकी माँ' की शुरुआत इस तरह होती है........'दोपहर को ज़रा आराम करके उठा था। अपने पढ़ने-लिखने के कमरे में खड़ा-खड़ा धीरे-धीरे सिगार पी रहा था और बड़ी-बड़ी अलमारियों में सजे पुस्तकालय की ओर निहार रहा था। किसी महान लेखक की कोई कृति उनमें से निकालकर देखने की बात सोच रहा था। मगर, पुस्तकालय के एक सिरे से लेकर दूसरे तक मुझे महान ही महान नज़र आए।

कहीं गेटे, कहीं रूसो, कहीं मेज़िनी, कहीं नीत्शे, कहीं शेक्सपीयर, कहीं टॉलस्टाय, कहीं ह्यूगो, कहीं मोपासाँ, कहीं डिकेंस, सपेंसर, मैकाले, मिल्टन, मोलियर---उफ़! इधर से उधर तक एक-से-एक महान ही तो थे! आखिर मैं किसके साथ चंद मिनट मनबहलाव करूँ, यह निश्चय ही न हो सका, महानों के नाम ही पढ़ते-पढ़ते परेशान सा हो गया। इतने में मोटर की पों-पों सुनाई पड़ी। खिड़की से झाँका तो सुरमई रंग की कोई 'फिएट' गाड़ी दिखाई पड़ी। मैं सोचने लगा - शायद कोई मित्र पधारे हैं, अच्छा ही है। महानों से जान बची!.....'

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