हैंडलूम और हाथ से की जाने वाली ब्लाॅक प्रिंटिंग की इस मृतप्राय कला को बचाये रखने के लिये रोहित और आरती की जोड़ी ने "आशा" नामक संस्थान की नींव रखी।
हाथों से होने वाली ब्लाॅक प्रिटिंग और हथकरघे के काम को पुर्नजीवित करने, अधिक से अधिक कलाकारों का साथ देते हुए उन्हें प्रशिक्षित करते हुए महिलाओं को सशक्त करने का काम करते हुए, रोहित और आरती रूसिया ने मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले में आशा की नींव रखी।
आज के आधुनिकीकरण के युग में हैंडलूम ब्लाॅक प्रिंटिंग की समृद्ध और पारंपरिक कला अपनी अंतिम सांस ले रही है और लुप्त होने की कगार पर है. मौजूदा समय में एक तरफ जहां मशीन से बने कपड़े और स्क्रीन प्रिंटिंग लोकप्रियता के चरम पर हैं वहीं दूसरी तरफ हाथ से कपड़ा बुनने के भरोसे अपना जीवन यापन करने वालों के पास बेहद कम विकल्प बचे हैं. सैंकड़ों साल पहले मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले में रहने वाले चिप्पा समुदाय के करीब 300 परिवार इस हाथ से की जाने वाली ब्लाॅक प्रिंटिंग की कला के विशेषज्ञ थे. आज, कला के इस स्वरूप को केवल एक ही परिवार ने, कई संघर्षों का सामना करते हुए, किसी तरह जिंदा रखा है, जिसका नेतृत्व कर रहे हैं 70 वर्षीय दुर्गालाल.
हैंडलूम और हाथ से की जाने वाली ब्लाॅक प्रिंटिंग की इस मृतप्राय कला को बचाये रखने के लिये रोहित और आरती रूसिया की पति-पत्नी की जोड़ी ने आशा (ऐड एंड सर्वाइवल आॅफ हैंडिक्राफ्ट्स आर्टिसन्स) नामक संस्थान की नींव रखी.
मृतप्राय होता कला का यह स्वरूप
हाथ से होने वाली ब्लाॅक प्रिंटिंग की इस कला के समाप्त होने के कगार पर पहुंचने के कई कारण हैं. कला के इस पारंपरिक स्वरूप में, कारीगर लकड़ी के बने खांचे (मोल्ड) का उपयोग कर कपड़े पर डिजाइन को उत्कीर्ण करते हैं. आशा के सह-संस्थापक रोहित रूसिया बताते हैं कि सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह एक बेहद थकाऊ और समय लेने वाली प्रक्रिया है. रोहित आगे कहते हैं, ‘‘इसके वाले होने वाला लाभ तुलनात्मक रूप से काफी कम होता है क्योंकि उत्पादन की लागत कलाकार को मिलने वाले पारिश्रमिक से काफी अधिक होती है.’’
इसके अलावा इस क्षेत्र में कारखानांें और कोयला खदानों के पांव जमाने के चलते कलाकारों और आरपास के शहरी और ग्रामीण परिवारों पर काफी फर्क पड़ा. एक तरफ जहां बिजली से चलने वाले कारखानों ने बेहद कम दाम पर वैसा ही कपड़ा उपलब्ध करवाया वहीं दूसरी तरफ कोयला खदानों ने स्थानीय निवासियों के लिये रोजगार के नए अवसर प्रदान किये. समय के साथ कलाकारों ने कारीगरी के काम के बजाय मजदूरी को प्राथमिकता देनी शुरू कर दी क्योंकि कारखानों से मिलने वाला पारिश्रमिक उसके मुकाबले बेहद अधिक था. चूंकी युवा भी हथकरघे की इस विरासत से दूर होते गए, जिसके चलते यह परंपरा धीरे-धीरे लुप्त होने के कगार पर पहुंच गई.
‘‘हाथ से होने वाली ब्लाॅक प्रिटिंग की विरासत का एक हिस्सा होने के चलते मुझे ऐसा लगा कि मुझे इस परंपरा और संस्कृति को पुर्नजीवित करने के लिये कुछ करने की जरूरत है; अपनी जड़ों के और करीब आने की.’’
हालांकि रोहित के पास फार्मास्यूटिकल में डिग्री है, लेकिन ब्लाॅक प्रिटिंग हमेशा से ही अन्हें अपनी तरफ आकर्षित करती थी. उनकी स्नातक पत्नी, आरती ने उन्हें उनके जुनून के प्रति कुछ करने के लिये हमेशा प्रोत्साहित किया और समर्थन भी दिया. आखिरकार 2014 में, रोहित और आरती ने ब्लाॅक प्रिंटिंग, हथकरघा, हस्तशिल्प और कला के अन्य स्वरूपों के संरक्षण और प्रचार के क्षेत्र में कुछ करने और साथ ही साथ नए और अधिक कारीगरों को प्रशिक्षित करने के लिये एक मंच को तैयार करने का फैसला किया.
ग्रामीण जनजातीय महिलाओं की आशा
काॅटन फैब्स ब्रांड नाम के अंतर्गत बेचे जाने वाली आशा, एक ऐसा स्थान है जहां हाथ से ब्लाॅक प्रिंट किये हुए कपड़ों और डिजाइनों के विनिर्माण और बिक्री का काम होता है.
छिंदवाड़ा जिले में स्थित उत्पादन इकाई से लेकर हाथ से बुने हुए कपड़े तक, सभी काम सिर्फ महिलाओं द्वारा ही किये जाते हैं. आशा ने प्रमुख रूप से मध्य प्रदेश की ग्रामीण जनजातीय महिलाओं को रोजगार के अवसर प्रदान करवाने का एक सचेत प्रयास किया है. इसके अलावा इस टीम ने महिलाओं को कला के इस स्वरूप में प्रशिक्षित करने और उन्हें घर से ही काम करने े लिये प्रेरित करने के प्रयास किये हैं. रोहित बेहद गर्व से कहते हैं,
‘‘कटाई से लेकर सिलाई से लेकर डिजाइनिंग तक का सारा काम गोंड तनजातीय महिलाओं कद्वारा ही किया जाता है. हमारा मुख्य उद्देश्य अपने कारीगरों और इन महिलाओं को मुख्यधारा में लाना है. महिला सशक्तीकरण हमारे एजेंडे के शीर्ष में है. यहां तक कि इस संगठन की संस्थापक भी एक महिला ही हैं.’’
काॅटन फैब्स द्वारा तैयार किये गए कपड़े और डिजाइन न सिर्फ पूरी तरह से पारंपरिक हैं बल्कि यह स्थानीय स्वाद, कला और संस्कृति के साथ विरासत का एक विशिष्ट मिश्रण भी प्रदान करवाते हैं.
भ्रष्टाचार और कलाकारों का बड़े पैमाने पर होने वाला शोषण इस कला और पेशे के पतन के प्रमुख कारण थे. एक तरफ जहां हाथ से कपड़ा बुनने के काम में लगने वाली मेहनत काफी कड़ी होती हैं वहीं दूसरी तरफ इसके बदले मिलने वाला पारिश्रमिक उस मेहनत के मुकाबले बेहद कम होता है. इसके अलावा बिचैलियों की मौजूदगी ने परिस्थितियों को और अधिक कठिन बना दिया था. रोहित बताते हैं कि कोई उत्पाद चाहे तीन रुपये का बिके या फिर पांच रुपये का, कारीगर को मिलता था सिर्फ एक रुपया.
ऐसे में, आशा का सूत्र है ‘‘कला-कलाकार-उपभोक्ता’’ और इसी के चलते यह व्यवस्था से बिचैलियों के मकड़जाल को खत्म करने में सफल रही है. काॅटन फैब्स उपभोक्ताओं को सीधे बिक्री करती है जिसके चलते मुनाफे का एक बड़ा हिस्सा सीधे ग्रामीण कारीगरों के परिवारों के पास जाता है. वर्तमान में आशा 30 परिवारों को रोजगार प्रदान कर रही है.
बिक्री को बढ़ाने और वैश्विक बाजार में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने के उद्देश्य से रोहित ने सोशल मीडिया को विपणन के प्रमुख तरीके के रूप में अपनाया है. इनकी उपस्थिति मध्य और दक्षित भारत में है.
इस लुप्तप्राय कला के पुनरुद्धार का चुनौतीपूर्ण रास्ता
हालांकि चिप्पा समुदाय का एक बड़ा हिस्सा अभी भी इस पेशे से दूरी बनाए रखता है लेकिन फिर भी यह संगठन धीरे-धीरे ही सही राज्य में पहचान और सम्मान प्राप्त करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है. बिक्री और मांग में कमी के चलते कई युवा हथकरघा और हस्तशिल्प के मुकाबले शहरी नौकरियों को प्राथमिकता दे रहे हैं. चूंकि मध्य प्रदेश राजस्थान की तरह पर्यटन का केंद्र नहीं है इसलिये बिक्री उतनी अधिक नहीं है. स्क्रीन प्रिंटिड कपड़े और बढ़ती माॅल संस्कृति ने पारंपरिक उपभोक्ता आधार को तोड़ लिया है लेकिन इसके बावजूद ब्लाॅक प्रिंटिंग के विशेषज्ञ हाथ से बुने हुए कपड़े और डिजाइनों के मोल को पहचानते हैं और लगातार इस संगठन के संपर्क में रहते हैं.
रोहित को इस बात का अहसास हुआ कि शहरों में रहने वाले कई लोग ग्रामीण आजीविका में अपना योगदान देना चाहते हैं और बदले में प्रमाणिक उत्पाद खरीदने को तैयार हैं. प्रदर्शनी और ट्रेड शो अक्सर महानगरों और शहरी उपभोक्ताओं से जुड़ने का एक माध्यम साबित होते हैं. हालांकि इस संबंध में फंडिग यानी पैसे की व्यवस्था एक प्रमुख समस्या है. चूंकि आशा के पास कोई मूल संगठन नहीं है और यह फिलहाल पूरी तरह से संस्थपकों पर निर्भर है, ऐसे में काॅटन फैब्स की कुछ बजट संबंधी सीमाएं हैं. इसके बावजूद रोहित दिल न छोटा करते हुए कहते हैं, ‘अगर 70 वर्ष की आयु में दुर्गालाल इस कला को जीवित देखना चाहते हैं और कोई कलाकार बिना किसी वित्तीय सहायता के इस परंपरा और संस्कृति के पुनरुत्थान को होते हुए देखना चाहता है, तो यह अपने आप में एक बड़ी बात है और यही हमारे लिये आगे बढ़ने की सबसे बड़ी प्रेरणा है।’
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