कविता के तपस्वी आनंद परमानंद
वाराणसी के उम्रदराज कवि आनंद परमानंद ऐसे रचनाकार हैं, जिन पर कवि त्रिलोचन ने भी कविता लिखी है। उनकी संगत में ऐसी विराटता का बोध होता है, जो हमारे समय में विरले ही कवि-साहित्यकारों के साथ संभव हो पाता है।
बुजुर्ग कवि आनंद परमानंद दशकों तक आदिवासी क्षेत्रों में अध्यापक रहे हैं। उन्होंने आदिवासियों, घुमंतू कबीलों, नट-कंजड़ और मुसहरों के जीवन को नजदीक से देखा है। इसलिए जब भी उन्होंने उन पर शेर कहे हैं, उनके तेवर फूट पड़ते हैं- "चलो जिंदगी से मैं परिचय करा दूं, हैं पेड़ों तले इन मुसहरों को देखो, दही-दूध क्या, रोटियां तक नहीं हैं, गरीबों के खाली सिकहरों को देखो...."
आनंद परमानंद दुष्यंत परंपरा के सशक्त ग़ज़लकार हैं। एक जमाने में इनकी ग़ज़लें प्रायः मंचों पर अपना प्रभाव स्थापित करती रही हैं। परमानंद की प्रकांडता का एक आश्चर्यजनक पक्ष है, उनमें संचित जीवंत अथाह स्मृतियां।
आनंद परमानंद की ग़ज़लों के विषय भूख, गरीबी, बेरोजगारी, दलित, मजदूर, आदिवासी और किसान हैं। दहेज, लड़कियां, नारी, दंगे-फसाद जैसी समस्याएं हैं। इस कवि में, जिसे, चिंतनशील फ्रिक्रोपन कहते हैं, ग़ज़लों में अंत्यानुप्रास की नवीनता प्रशंसनीय है, जहां हिंदी भाषा की सामर्थ्य और कहन की शिष्टता-शालीनता दिखाई पड़ती है।
वाराणसी के उम्रदराज कवि आनंद परमानंद ऐसे रचनाकार हैं, जिन पर कवि त्रिलोचन ने भी कविता लिखी है। उनकी संगत में ऐसी विराटता का बोध होता है, जो हमारे समय में विरले ही कवि-साहित्यकारों के साथ संभव हो पाता है। जाने कितने तरह के बोझ उनके मन पर लदे हुए हैं। उनके अंदर क्या-कुछ घट रहा होता है, जो उनकी चुप्पियों से शब्दभर भी फूट नहीं पाता है। जैसे सड़क की भीड़ के बीच कोई अनहद एकांतिक साधक। भीतर आग भरी हुई है और शब्दों से झरने फूटते हैं। वह कभी घंटों स्वयं में गुम, कभी अचानक धारा प्रवाह, राजनीति से साहित्य तक, डॉ.लोहिया से डॉ. शंभुनाथ सिंह तक, गीत-ग़ज़ल से नवगीत तक, अंतहीन, प्रसंगेतर-प्रसंगेतर। साथ का हरएक चुप्पी साधे, विमुग्ध श्रोताभर जैसे।
परमानंद की प्रकांडता का एक आश्चर्यजनक पक्ष है, उनमें संचित जीवंत अथाह स्मृतियां। जब तक साथ, सोचते रहिए कि ये आदमी है या कोई मास्टर कम्यूटर। भला किसी एक आदमी को इतनी बातें अक्षरशः कैसे याद रह सकती हैं, जबकि उम्र अस्सी के पार, स्मृतिभ्रंश की आशंकाओं से भरी रहती है। दरअसल, आनंद परमानंद दुष्यंत परंपरा के सशक्त ग़ज़लकार हैं। एक जमाने में इनकी ग़ज़लें प्रायः मंचों पर अपना प्रभाव स्थापित करती रही हैं। वह आदमी की तरह जिंदगी काटते हैं। आज तो यह आशंका जन्म लेने लगी है कि सही आदमी सड़क पर भी रह पाएगा अथवा नहीं! आखिर वह जाए भी तो कहां जाए! उनकी ग़ज़लें पढ़कर इस बात पर प्रसन्नता होती है कि कम से कम उन्होंने नकली और बनावटी बातें तो नहीं कही हैं।
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आनंद परमानंद की ग़ज़लों के विषय भूख, गरीबी, बेरोजगारी, दलित, मजदूर, आदिवासी और किसान हैं। दहेज, लड़कियां, नारी, दंगे-फसाद जैसी समस्याएं हैं। इस कवि में, जिसे, चिंतनशील फिक्रोपन कहते हैं, ग़ज़लों में अंत्यानुप्रास की नवीनता प्रशंसनीय है, जहां हिंदी भाषा की सामर्थ्य और कहन की शिष्टता-शालीनता दिखाई पड़ती है। जिंदगी की हद कहां तक है, जानते हुए, तनी रीढ़ से ललकारते आठ दशक पार कर गए ठाट के कद वाले इस कवि के शब्दों की लपट किसी भी कमजोर त्वचा वाले शब्द-बटोही को झुलसा सकती है।
'आनंद परमानंद' मन से तरल इतने कि गोष्ठियों से मंचों तक कुछ उसी तरह शब्दों के साथ-साथ आंखों से बूंदें अनायास छलकती रहती हैं, जैसेकि कभी कवि 'अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध' कक्षा में अपने छात्रों को पढ़ाते हुए भावुक हो जाया करते थे।
बुढ़ौती के कठिन-कठोर ठीये पर आज भी स्वभाव में बच्चों-सी हंसी-ठिठोली भरे अंदाज के आनंद परमानंद कहते हैं कि-
जिंदगी में जिस तरह हो, संतुलन रक्खा करो,
एक अच्छे आदमी का आचरण रक्खा करो,
हो अगर अच्छे तो अच्छा और होने के लिए,
गैर की अच्छाइयों का संकलन रक्खा करो।
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आनंद परमानंद की कविता ही नहीं, इतिहास और पुरातत्व में भी गहरी अभिरुचि है। 'सड़क पर ज़िन्दगी' उनका चर्चित ग़ज़ल संग्रह है। जब भी उनकी रगों पर उंगलियां रखिए, दर्द से तिलमिलाते हुए भी सन्नध शिकारी की तरह दुश्मन-लक्ष्य पर झपट पड़ते हैं, व्यवस्था की एक-एक बखिया उधेड़ते हुए स्वतंत्रता संग्राम के इतने दशक बाद भी देश के आम आदमी का दुख और आक्रोश उनके शब्दों में धधकने लगता है-
ज़िन्दगी रख सम्भाल कर साथी,
अब न कोई मलाल कर साथी,
जिनके घर रौशनी नहीं पहुँची,
उन ग़रीबों का ख्याल कर साथी।
वाराणसी के ग्राम धानापुर (परियरा), राजा तालाब में 01 मई सन 1939 को पुरुषोत्तम सिंह के घर जन्मे आनंद परमानंद आज भी गीत, ग़ज़लों के अपने रंग-ढंग के अनूठे कवि हैं। मिजाज में फक्कड़ी, बोल में विचारों के प्रति जितने कत्तई अडिग, कोमल भावों में मन-प्राण के उतने ही शहदीले। बेटियां उनके शब्दों में मुखर होती हैं, कई अध्यायों वाले घर-परिवारों के महाकाव्य की तरह, जिसमें अनुभवों की सघन पीड़ा भी है और वात्सल्य का अदभुत सामंजस्य भी-
पुत्र जिनके श्लोक जैसे, बेटियां होतीं ऋचा,
वे पिता-माता लगे वैदिक कथाओं की तरह,
प्यार तरुवर को धराशायी न करना आंधियों,
हम लिपटकर जिनसे रहते हैं लताओं की तरह।