103 साल की इस महिला ने अब तक लगाए 384 बरगद के पेड़
गरीब परिवार से ताल्लुक रखने वाली 103 साल की तिमक्का ने किया बेहतरीन काम...
उन्होंने न तो किसी किताब से पर्यावरण लगाने की प्रेरणा ली और न ही उन्होंने कभी स्कूल का मुंह देखा। एक गरीब मजदूर परिवार से ताल्लुक रखने वाली तिमक्का ने पर्यावरण के लिए वो किया है जो शायद किसी के बस का नहीं है।
उनके पति चिक्कय्या जानवरों को चराने का काम करते थे। लेकिन शादी के 25 साल बाद भी दोनों को संतान नहीं हुआ। इससे निराश होने की बजाय दोनों ने पेड़-पौधे लगाने के बारे में सोचा और अपने बच्चों की तरह उनका पालन-पोषण किया।
हालांकि तिमक्का को कोई नहीं जानता था, लेकिन 1996 में राष्ट्रीय नागरिक पुरस्कार से नवाजे जाने के बाद देशभर के अखबारों में उनकी कहानी छपी। उनके जीवन पर एक फिल्म भी बनाई गई है।
103 साल की तिमक्का ने अब तक सैकड़ों बरगद के पेड़ रोपित किये हैं। उन्होंने न तो किसी किताब से पर्यावरण लगाने की प्रेरणा ली और न ही उन्होंने कभी स्कूल का मुंह देखा। एक गरीब मजदूर परिवार से ताल्लुक रखने वाली तिमक्का ने पर्यावरण के लिए वो किया है जो शायद किसी के बस का नहीं है। कर्नाटक के बेंगलुरु ग्रामीण जिले में हुलिकल गांव में पैदा हुईं तिमक्का की शादी काफी कम उम्र में ही हो गई थी। उनके पति चिक्कय्या जानवरों को चराने का काम करते थे। लेकिन शादी के 25 साल बाद भी दोनों को संतान नहीं हुआ। इससे निराश होने की बजाय दोनों ने पेड़-पौधे लगाने के बारे में सोचा और अपने बच्चों की तरह उनका पालन-पोषण किया।
उनके गांव में बरगद के कुछ पेड़ थे। उन्हीं पेड़ों के बीज से उन्होंने बरगद के पौधे तैयार किए। पहले साल उन्होंने अपने गांव से 4 किलोमीटर की दूरी में दस पौधे लगाए। इसके बाद अगले साल 15 और फिर तीसरे साल 20 पौधे और लगाए। यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि तिमक्का ने पौधे लगाने के लिए न तो किसी से पैसे लिए और न ही किसी की मदद। दोनों दंपती चार किलोमीटर तक पैदल पानी लेकर जाते थे ताकि पौधे सूखने न पाएं। उन्होंने पौधे के किनारे झाड़ियां भी लगा रखी थीं ताकि बकरियां या अन्य जानवर उन्हें नुकसान न पहुंचा पाएं।
पेड़ लगाने का यह सिलसिला हर साल चलता ही रहा। लेकिन तिमक्का के जिंदगी में एक एक भूचाल तब आया जब उनके पति चिक्कय्या उन्हें हमेशा के लिए छोड़कर चले गए। उन्होंने लगभग 50 सालों तक सैकड़ों पौधे लगाए थे। इसका नतीजा ये हुआ कि उनके गांव कुडूर से हुलीकल की पांच किलोमीटर की दूरी तक छाया ही छाया हो गई। गांव और आसपास के लोगों की नजर में इस वृद्ध दंपती की अहमियत काफी बढ़ गई थी और हर कोई उन्हें सम्मान की नजरों से देखता था। गांव के लोग उन्हें 'सालुमरदा' कहने लगे जिसका कन्नड़ में मतलब होता है- पेड़ों की कतार।
हालांकि तिमक्का को कोई नहीं जानता था, लेकिन 1996 में राष्ट्रीय नागरिक पुरस्कार से नवाजे जाने के बाद देशभर के अखबारों में उनकी कहानी छपी। उनके जीवन पर एक फिल्म भी बनाई गई है। अल जजीरा के मुताबिक उन्हें ढेर सारे अवॉर्ड्स मिल चुके हैं। कर्नाटक के सीए कई बार उन्हें पुरस्कृत कर चुके हैं। 103 साल की उम्र में आकर भी तिमक्का का हौसला कम नहीं हुआ है। वह लगातार अपना काम करते जा रही हैं। वह अस्पताल खोलना चाहती हैं लेकिन उन्हें कहीं से भी मदद नहीं मिल पा रही है। लेकिन फिर भी वह लगातार अपने प्रयास में लगी हैं।
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