दिल्ली में अपनी पढ़ाई और राष्ट्रीयता की लड़ाई लड़ रही एक रोहिंग्या लड़की
भारत में शरण पाए हुए चालीस हजार रोहिंग्या शरणार्थियों में से एक बारहवीं कक्षा की पहली महिला उम्मीदवार तस्मिदा राजधानी दिल्ली से गुजर रही यमुना नदी के किनारे एक झुग्गी बस्ती में रहकर अपनी राष्ट्रीयता और अपनी पढ़ाई-लिखाई की लड़ाई लड़ रही हैं। तमाम मुश्किलों के बावजूद वह उम्मीदों से भरी हुई हैं।
राजधानी दिल्ली से गुजर रही यमुना नदी के किनारे एक झुग्गी बस्ती कंचन कुंज में अपनी टिन-बांस की झोपड़ी में रहते हुए बाईस वर्षीय रोहिंग्या शरणार्थी तस्मिदा, एक साथ, बड़ी शालीनता से अपनी राष्ट्रीयता और अपनी पढ़ाई-लिखाई की लड़ाई लड़ रही हैं। तस्मिदा का परिवार दोहरे आप्रवासन, म्यांमार से बांग्लादेश और फिर भारत की यात्रा में चौदह साल से वनवास काट रहा है। इस दौरान तस्मिदा को चार स्कूलों में अध्ययन और तीन भाषाओं को सीखने की चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा है।
भारत में शरण पाए हुए 40 हजार रोहिंग्या शरणार्थियों में से बारहवीं कक्षा की पहली महिला उम्मीदवार तस्मिदा अपनी एक हाल ही की आपबीती सुनाती हुई बताती हैं कि उन्होंने जामिया मिलिया इस्लामिया बोर्ड की सीनियर सेकंडरी एग्जाम के लिए अपने आवेदन पत्र पर 'राष्ट्रीयता' के कॉलम में 'म्यांमार' लिखा था लेकिन उनके रसीदी प्रिंट पर 'भारतीय' लिखा मिला। उन्होंने अपने शिक्षक को यह बात बताई तो उन्होंने फिर से उन्हे फॉर्म भरने के लिए कहा। दूसरी बार भी रसीद में 'इंडियन' लिखा मिला। उसके बाद उन्हे अपने सहपाठियों से सुनने को मिला कि वह अब एक भारतीय हैं। वह भारतीय दिखती भी हैं। वह भले ही म्यांमार की रहने वाली हों, अब वह हिंदुस्तानी जुबान बोलती हैं लेकिन तस्मिदा चाहती हैं कि उन्हे तो सिर्फ अपनी 'म्यांमार' राष्ट्रीयता चाहिए।
उम्मीदों से भरी तस्मिदा राजधानी की झुग्गी बस्ती में शरण पाने के बाद प्रसार माध्यमों से अपना दुख कुछ इस तरह साझा करती हैं- 'मुझे बचपन से डॉक्टर बनने का शौक था। मैं जब भारत आई तो 10वीं में एडमिशन के लिए आवेदन भरा लेकिन यहां मेरे पास आधार कार्ड नहीं था। स्कूलों में एडमिशन नहीं मिला। फिर मैंने ओपेन कैंपस से आर्ट्स का फॉर्म भरा। 10वीं पास करने के बाद मैंने 11वीं और 12वीं में राजनीति शास्त्र विषय चुना और जामिया के स्कूल में एडमिशन लिया। मैं बीए, एलएलबी, ऑनर्स करूंगी। मैं क़ानून की पढ़ाई करना चाहती हूं ताकि ख़ुद के अधिकार जान सकूं और लोगों के अधिकार उन्हें बता सकूं। मुझे मानवाधिकार कार्यकर्ता बनना है ताकि जब अपने देश वापस जाऊं तो अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ सकूं। मेरे दादा की पीढ़ी तक पुरखों के पास म्यांमार की नागरिकता रही है लेकिन शिक्षित न होने के कारण उन लोगों ने अपने अधिकार नहीं जाने और न ये सोचा कि उनकी आगे की पीढ़ियों को इसकी क्या कीमत चुकानी पड़ सकती है। अब हमारा परिवार दर-दर की ठोकर खा रहा है। उन्होंने जामिया मिल्लिया इस्लामिया में विदेशी छात्र कोटे के तहत फॉर्म भरा है।'
आज से पहले की जिंदगी पर प्रकाश डालती हुईं अपने छह भाइयों की अकेली बहन तस्मिदा बताती हैं कि वर्ष 2005 में वह छह साल की थीं। उनके पापा अमानउल्लाह कारोबारी रहे हैं। बाहर से सामान लाकर बर्मा (म्यांमार) में बेचा करते थे। एक दिन पुलिस घर से उनके पापा को उठा ले गई। पैसे लेकर छोड़ा लेकिन दो महीने बाद फिर उठा ले गई। लौटकर पापा ने कहा कि अब हम यहां नहीं रहेंगे। उस वक्त वह तीसरी क्लास में थीं, परिवार के साथ बांग्लादेश पहुंच गईं। उनके पास कोई रिफ्यूजी कार्ड नहीं था। वहां स्कूलों में उन्होंने बांग्ला सीखी। स्कूल में दाखिला लिया। पापा मज़दूरी करने लगे।
सन् 2012 में रोहिग्यां शरणार्थियों की जांच होने लगी। अपने भारतीय शरणार्थियों से बातचीत कर उनका परिवार भारत आ पहुंचा। उन्होंने 2013 से 2015 के बीच यहां दिल्ली में हिंदी और अंग्रेज़ी सीखी। आधार कार्ड न होने से उन्हे साइंस में एडमिशन नहीं मिला। इसी साल जून में पास का रिजल्ट मिला है। अब उन्होंने फॉरन स्टूडेंट कैटिगरी में दाखिले के लिए आवेदन किया है, जिसकी फीस सालाना 3600 डॉलर है। इतना पैसा हमारे पास नहीं तो वह ऑनलाइन फ़ंड रेज़िंग कर रही हैं। अब तक उन्होंने एक लाख 20 हज़ार रुपए जुटा लिए हैं।
अपनी राष्ट्रीयता के सवाल पर तस्मिदा कहती हैं कि जब वह छोटी थीं, उन्हे नहीं पता था कि 'राष्ट्रीयता' का क्या मतलब होता है। आज, वह जब सात लाख म्यांमार शरणार्थियों में शुमार हो चुकी हैं, उन्हें अपनी राष्ट्रीयता का अच्छी तरह से मतलब समझ में आने लगा है। पिछले साल तक भारत में शरणार्थियों के लिए संयुक्त राष्ट्र के उच्चायुक्त के साथ 17,500 पंजीकृत हो गए थे। भारत सरकार ने 2017 में राज्यसभा को बताया था कि अनुमानतः 40 हजार रोहिंग्या शरणार्थी भारत में रह रहे हैं।
रोहिंग्या साक्षरता कार्यक्रम भारत में केवल 40 रोहिंग्या बच्चों की गिनती करता है, जो वर्तमान में शैक्षणिक संस्थानों में नामांकित हैं। आज वह किसी तरह अपनी पढ़ाई तो जारी रखे हुए हैं लेकिन जैसे ही वह अपने बीते हुए कल को याद करती हैं, मन उदास हो जाता है, क्योंकि उनकी शिनाख्त सिर्फ एक रिफ्यूजी के रूप में की जाती है। इस पहचान के संकट से भी वह निजात पाना चाहती हैं। देखिए, आखिर कब तक वे दिन उन्हे नसीब हो पाते हैं।