जापान में कक्षा 5 के बच्चे भी कहते हैं कि लड़के बहादुर और लड़कियां कमजोर होती हैं
जेंडर पूर्वाग्रहों पर जापान की एक यूनिवर्सिटी द्वारा की गई यह स्टडी ‘साइंटिफिक रिपोर्ट्स’ जरनल में प्रकाशित हुई है.
दुनिया के हर देश, समाज और संस्कृति में जितना जेंडर भेदभाव और पूर्वाग्रह फैला हुआ है, उसका एक फीसदी दोष भी प्रकृति और बायलॉजी के सिर नहीं मढ़ा जा सकता. कोई लड़का और कोई लड़की इस बोध के साथ पैदा नहीं होता कि उसका जेंडर क्या है और इस हिसाब से उसे कैसे रहना और व्यवहार करना है. न लड़का जिद्दी, गुस्सैल, अहंकारी पैदा होता है, न लड़कियां शर्मीली और डरपोक. ये सब समाज सिखाता है और इस हद तक सिखाता है कि 5-6 साल की उम्र तक आते-आते ये सारे पूर्वाग्रह उनके दिमाग में जड़ जमा चुके होते हैं.
जापान की यह स्टडी कह रही है कि उनके देश में नर्सरी से निकलकर प्राइमरी स्कूल तक पहुंचते-पहुंचते बच्चों में जेंडर पूर्वाग्रह पूरी तरह घर चुके होते हैं. सारे पारंपरिक स्टीरियोटाइप, जिस पर दोनों ही भरोसा कर उसे सच मानने लगते हैं. जैसेकि लड़कियां दयालु और सहनशील होती हैं और लड़के ताकतवर और साहसी. सोचकर देखिए कि छह साल के एक लड़के को भी लगता है कि वो अपनी कक्षा की छह साल की लड़की से ज्यादा ताकतवर है.
जापान की एक यूनिवर्सिटी द्वारा की गई यह स्टडी ‘साइंटिफिक रिपोर्ट्स’ जरनल में प्रकाशित हुई है.
जापान के 565 स्कूलों में की गई इस स्टडी के नजीते हालांकि चौंकाने वाले तो नहीं हैं, लेकिन चिंतित करने वाले जरूर हैं. यह स्टडी करने वाले रिसर्चर इन परिणामों को एक चेतावनी की तरह देखते हैं. उनका मानना है कि दुनिया बहुत तेजी के साथ बदल रही है और जेंडर बराबरी इस सदी के सबसे महत्वपूर्ण सवालों में से एक है. बच्चों में जेंडर पूर्वाग्रह की जड़ें इतनी गहरी होने का अर्थ है कि बाकी दुनिया के मुकाबले बुनियादी बराबरी के लक्ष्य को हासिल करने का हमारा सपना अभी बहुत दूर की कौड़ी है.
शोधकर्ताओं का कहना है कि अगर पांच साल की किसी लड़की को इतनी कम उम्र से ही ये यकीन हो जाए कि वो लड़कों की तरह साहसी और हिम्मती नहीं है, दया और करुणा ही उसका प्राइमरी गुण है तो यह बात उसकी पूरी जिंदगी पर नकारात्मक असर डालने वाली है. एडल्ट लाइफ में बाहरी दुनिया में, शिक्षा में, प्रोफेशनल वर्ल्ड में उसका आत्मविश्वास, उसका परफॉर्मेंस हमेशा इस बात से तय होगा कि वह समकक्ष लड़कों के मुकाबले कम है.
यही बात लड़कों पर भी लागू होती है. अगर 5 से 7 साल की कच्ची उम्र में लड़कों को यह लगने लगे कि ताकतवर होना, हिम्मती होना, जीतना, कमजोर न पड़ना, दयालु और करुण न होना ही उनका मुख्य गुण है तो इसके नतीजे भविष्य की स्त्रियों और समाज दोनों के लिए बहुत डराने वाल हैं. सिर्फ ताकत को मर्दानगी का प्रतीक मानने और दया को स्त्रैण गुण की तरह देखने वाला पुरुष सिर्फ हिंसा को बढ़ावा दे सकता है.
वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की जेंडर गैप की 146 देशों की सूची में जापान 116वें नंबर पर है. शोधकर्ताओं का कहना है कि 116वें नंबर पर भी जापान इसलिए है क्योंकि यहां नौकरी और अर्थव्यवस्था में औरतों की ठीकठाक हिस्सेदारी है.
लेकिन आश्चर्यजनक रूप से बाकी दुनिया के उलट आर्थिक आजादी जापान की स्त्री को सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से आजाद करने में असफल रही है. औरतों की आर्थिक स्वतंत्रता के बावजूद पुरुष का श्रेष्ठ दर्जा और जेंडर को लेकर 200 साल पुराने पूर्वाग्रह जापान के समाज भी आज भी जड़ें जमाए बैठे हैं.
ताजा आंकड़ों के मुताबिक जापान में पर कैपिटा इनकम 38,883 डॉलर यानी 32,11,755 रुपए है. ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स में दुनिया के 188 देशों की सूची में जापान 22वें नंबर है, लेकिन इतना आर्थिक विकास के बावजूद जेंडर गैप के मामले में जापान तीसरी दुनिया के सबसे खराब देशों की बराबरी पर खड़ा है. पुरुष प्रभुत्व वाला पारंपरिक पारिवारिक ढांचा उस देश में आज भी इंटैक्ट है और राजनीति में औरतों का प्रतिनिधित्व अन्य विकसित देशों के मुकाबले बहुत कम है.
यह एक छोटी सी स्टडी है, लेकिन इसके मायने बड़े हैं. जापान अपनी बुनियादी जड़ों में मर्दवादी और पूर्वाग्रही समाज है. अर्थव्यवस्था और टेक्नोलॉजी के मामले में दुनिया के सबसे उन्नत देशों में शामिल हो जाने के बावजूद जेंडर बराबरी के लक्ष्य को हासिल करने में जापान आज भी बहुत पीछे है. और वजह साफ है- जापान में छोटे-छोटे बच्चे इस पूर्वाग्रह के साथ बड़े हो रहे हैं कि लड़के बहादुर और लड़कियां कमजोर होती हैं.
Edited by Manisha Pandey