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महिलाओं को शोषण से मुक्ति दिलाकर उनमें विश्वास की शक्ति भरने की साहसी कोशिश का नाम है सुनीता कृष्णन

सुनीता थीं बचपन से ही तेजस्वी और ओजस्वी ... आठ साल की उम्र में मानसिक रूप से मंद बच्चों को सिखाया डांस ... बारह साल की उम्र में झुग्गी-बस्ती के बच्चों के लिए खोला शिक्षा-केंद्र ... पंद्रह साल की उम्र में दलितों के उत्थान के लिए शुरू की पहल ... किशोरावस्था में हुईं सामूहिक बलात्कार का शिकार ... इस घटना के बाद लड़कियों और महिलाओं को शोषण और अत्याचार से मुक्त करवाने शुरू किया आंदोलन ... महिलाओं के उत्थान और सशक्तिकरण के किये बनाई "प्रज्जवला" की संस्था ... "प्रज्जवला" ने की है हज़ारों महिलाओं की ज़िंदगी रौशन 

महिलाओं को शोषण से मुक्ति दिलाकर उनमें विश्वास की शक्ति भरने की साहसी कोशिश का नाम है सुनीता कृष्णन

Monday May 23, 2016 , 20 min Read

सोलह साल की एक लड़की दूसरी सभी लड़कियों से बिलकुल अलग थी। सोच अलग, नज़रिया अलग, सपने अलग, लक्ष्य अलग और कई सारे काम भी अलग। वो सुबह पढ़ाई करने कॉलेज तो जाती पर शाम होते ही वेश्याओं से मिलने निकल जाती। वो कभी वेश्याओं के घर जाती तो कभी उन जगहों पर भी जहाँ महिलाओं से जिस्मफरोशी करवायी जाती। लड़की वेश्याओं की पीड़ाओं को जानना और समझना चाहती थी। अमूमन हर दिन वो वेश्याओं से मिलने लगी। मौका मिलता तो वेश्याओं से बातचीत होती, वरना लड़की दूर से ही वेश्यालयों में होने वाली हर तरह की गतिविधियों को देखती। हर दिन, लगातार, बार-बार, कईयों के हाथों शोषण, बदसलूकी, बलात्कार का शिकार होती लड़कियों और औरतों की हालत देखकर इस लड़की का मन पसीज जाता।

उसका मन करता कि वो लड़कियों को मुक्ति दिलाये, उन लोगों से जो लड़कियों को अपनी हवस का शिकार बनाते हैं, जुल्म ढाते हैं। कभी-कभी मौका पाकर लड़की वेश्यालयों को चलाने वाली औरतों से गुज़ारिश भी करती कि लड़कियों को "आज़ाद" कर दिया जाये, लेकिन लड़की की बातें सुनकर ब्रोथल-कीपर उसे गालियाँ देतीं, गुस्सा करते हुए उसे वेश्यालय से बाहर ढकेल देतीं, लेकिन इस लड़की ने अपनी कोशिशें जारी रखीं।

एक दिन ये लड़की बैंगलोर शहर के एक वेश्यालय गयी। इसके मन में शंका थी कि आज भी वो ब्रोथलकीपर से गालियां सुनेगी लेकिन, उस दिन कुछ अलग हुआ। कुछ ऐसा हुआ जिसे देख-सुनकर लड़की को भी बहुत आश्चर्य हुआ। जैसे ही लड़की ने वेश्यालय में प्रवेश किया, कुछ ब्रोथलकीपर्स ने इस लड़की को एक दूसरी लड़की दिखाई। उस दूसरी लड़की की उम्र करीब बारह-तेरह साल की थी। उस लड़की को दिखाते हुए ब्रोथलकीपर्स ने सोलह साल की इस लड़की को चुनौती देते हुए कहा कि अगर तुम्हे मुक्ति दिलानी है तो पहले उस लड़की को मुक्ति दिलाओ । कॉलेज जाने वाली इस लड़की ने उस बारह-तेरह साल की लड़की को वेश्यालय से मुक्ति दिलाने की ठान ली। उसने उस बालिका के हाव-भाव, चाल-चलन, काम-काज को देखना-समझना शुरू किया। इस लड़की को जल्द ही समझ में आ गया कि बारह-तेरह साल की वो लड़की मानसिक रूप से मंद है। शायद यही वजह भी थी कि दूसरी वेश्याएँ इस बालिका को वेश्यालय से मुक्ति दिलवाना चाहती थी।

जब इस लड़की ने बारह-तेरह साल की उस बालिका को करीब से जानने की कोशिश की तो उसके होश उड़ गए। वो भौचक्की रह गयी। इस लड़की ने देखा कि हर दिन कई लोग इस मासूम को भी अपनी हवस का शिकार बनाते हैं। क्या जवान, क्या बूढ़े, सभी तरह के मर्द उस बच्ची को लूट रहे हैं, बर्बाद कर रहे हैं। अपनी काम-वासना को पूरा करने के बाद मर्द उस लड़की की ब्लाउज में पांच या दस रुपये का नोट रखकर चले जाते थे। वो नोट को अपने हाथ में लेती और उसे घूरती। बालिका को कुछ भी समझ नहीं आता था, कि उसके साथ क्या हो रहा है और क्यों हो रहा। उसे ये भी नहीं मालूम था कि नोट आखिर क्या होती है ?

मानिसक रूप से मंद उस बालिका की पीड़ा को देखकर इस लड़की की आत्मा हिल गयी। कॉलेज जाकर अलग-अलग विषयों का ज्ञान ले रही इस लड़की ने उस बालिका को "आज़ाद" कराने की कोशिशें शुरू की। चूँकि उस बालिका को सही तरह से बातचीत करना भी नहीं आता था, उसके घर-पारिवार के बारे में जानना-समझना आम लोगों के लिए लगभग नामुमकिन था। लेकिन, कॉलेज जाने वाली ये लड़की बचपन में मानसिक रूप से मंद लोगों के साथ काम कर चुकी थी। इसी वजह से उसने उस लड़की के मुँह से जो शब्द और टूटे-फूटे वाक्य सुने, उससे उसके गाँव का पता लगा लिया। फिर क्या था, इस लड़की ने मानसिक रूप से मंद उस बालिका को उसके घर-परिवार तक पहुंचाने की कोशिशें शुरू कर दी। इस लड़की ने अपने पिता के दफ्तर के एक सीनियर ऑफिसर से एक गाड़ी का इंतज़ाम करने की गुज़ारिश की। चूँकि सीनियर ऑफिसर इस लड़की को बहुत मानते थे, उन्होंने गाड़ी का इंतज़ाम कर दिया। जैसे ही ये लड़की गाड़ी लेकर उस वेश्यालय पहुँची,चार वेश्याएं भी गाड़ी में बैठ गयीं। वे इस वजह से गाड़ी में बैठी थीं कि मानसिक रूप से मंद उस बालिका को उसके घर-परिवार तक पहुंचाने में वे भी अपना योगदान दे सकें । सोलह साल की ये लड़की सीनियर वेश्याओं में आये इस बदलाव को देखकर दंग रह गयी। उसके आश्चर्य को कोई ठिकाना नहीं रहा।

जब ये सभी मानसिक रूप से मंद उस बालिका को लेकर उसके गाँव पहुँचे तो जो जानकारी उन्हें वहाँ मिली उसे सुनकर सभी को बहुत ताज्जुब हुआ। पता चला कि मानसिक रूप से मंद इस बालिका के पिता बड़े ज़मींदार थे। खूब धन-दौलत थी उनके पास, लेकिन एक दुर्घटना में बालिका के माँ-बाप दोनों की मौत हो गयी। इस दुर्घटना के बाद लड़की के एक रिश्तेदार ने सारी जायदात हड़पने के मकसद से बालिका को हाईवे पर फ़ेंक दिया था। कोई शख्स जो वहां से गुज़र रहा था, उसने मानसिक रूप से मंद इस बालिका को बैंगलोर लाकर एक वेश्यालय में बेच दिया।

बालिका को न्याय दिलाने के लिए सोलह साल की इस लड़की और उसके साथ आईं उन वेश्याओं ने गाँव की पंचायत की मदद ली। मदद लेने के लिए इन सभी ने पंचायत से कई बातें छुपाईं। गाँव में किसी को भी ये नहीं बताया कि मानसिक रूप से मंद वो लड़की वेश्यालय में थी। उलटे ये झूठ बोला गया कि वो बालिका सोलह साल की इस लड़की के घर पर थी और जैसे ही उसने अपने गाँव का नाम बताया वे उसे यहाँ ले आये। कालेज जाने वाली लड़की के लिए ये सबसे सुखद आश्चर्य की बात थी कि वो वेश्याएँ जो उसे गाली देती थीं, वो आज उसके साथ एक लड़की को "आज़ाद" करवाने के लिए एक अच्छा और पवित्र "नाटक" कर रही हैं। आखिरकार पंचायत की दखल के बाद उस लड़की को न्याय मिला। और इसके साथ ही एक लड़की को वेश्यालय से मुक्ति दिलाने की इस सोलह साल की लड़की की कोशिश भी कामयाब हुई। इस कामयाबी से लड़की के हौसले इतने बुलंद हुए कि उसने वेश्यालयों से लड़कियों और औरतों को मुक्ति दिलाने के लिए एक आंदोलन की ही शुरुआत कर दी। उस मानसिक रूप से मंद लड़की से शुरू हुआ काम अब भी जारी है। वो सोलह साल की लड़की अब बड़ी हो गयी है। उसका नाम अब भारत-भर में मशहूर हो चुका है और वह बड़ी शख्शियत बन चुकी हैं।

जिस शख्शियत की बात हम कर रहे हैं, दुनिया उन्हें डॉ. सुनीता कृष्णन के नाम से जानती है। वही डॉ. सुनीता कृष्णन जो अदम्य साहस से भरपूर हैं, बिलकुल निडर हैं । इसी साहस और निडरता की वजह से वे मानव तस्करी जैसे बड़े संगठित अपराध को ख़त्म करवाने के लिए जी-जान लगाकर लड़ रही है। 

यहाँ शायद आपके मन में ये सवाल भी उठे होंगे कि आखिर सोलह साल की सुनीता कृष्णन वेश्यालय क्यों जाती थीं। हकीकत तो ये है कि खुद सुनीता कृष्णन पंद्रह साल की उम्र में अत्याचार और बलात्कार का शिकार हुई हैं। आठ मर्दों ने उन्हें सामुहिक रूप से अत्याचार का शिकार बनाया था। उन दिनों सुनीता कृष्णन एक गाँव में दलितों की गरीबी, पिछड़ापन, अशिक्षा जैसे हालात देखकर बहुत परेशान हुईं। उन्होंने ठान ली कि वह दलितों लड़कियों को पढ़ाएँगी ताकि आगे चलकर वे भी तरक्की कर सकें। पंद्रह साल की सुनीता कृष्णन ने दलितों को उनके अधिकारों के बारे में भी बताना शुरू कर दिया। सुनीता का ये काम गाँव में अगड़ी जाति के कुछ लोगों की आँखों में खटकने लगे। उन लोगों ने सुनीता कृष्णन को फौरन "दलितों का उत्थान" बंद करने वरना "अंजाम भुगतने" की धमकी दी। धमकी को नज़रअंदाज़ कर सुनीता कृष्णन अपने "मिशन" को कामयाब बनाने की कोशिश में जुटी रहीं। एक रात घनघोर अँधेरे में कुछ लोगों ने सुनीता कृष्णन पर हमला बोला, उन्हें अगवा किया। फिर आठ लोगों ने उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया।

सुनीता कृष्णन उस घटना को याद नहीं करना चाहती हैं। वे कहती हैं, "इस घटना से मेरी कहानी का रूप बदल गया। घटना से पहले हर एक की नज़र में मैं 'बेस्ट' थी, लेकिन एक भी दिन में मैं 'वर्स्ट' हो गयी। मेरा हाल ऐसा था मानो मैं एवेरेस्ट पर पहुँच चुकी हूँ और मुझे किसी ने ऐसे धक्का दिया कि मैं अचानक नीचे ज़मीन पर आ गिरी।" चौंकाने वाली बात तो ये भी है कि एक ओर जहाँ गाँव की पंचायत ने बलात्कारियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं की, वहीं दूसरे ओर सुनीता कृष्णन को ही उस घटना के लिए ज़िम्मेदार ठहराया । दोष सुनीता पर ही मढ़ा गया।

सुनीता कृष्णन के लिए वो दौर बहुत ही चुनौतियों भरा था। एक रात के बाद सब कुछ अचानक बदल गया था। सब उलट होने लगा था। उस घटना से पहले वे अपने माता-पिता की चहेती संतान थीं। घटना के बाद माँ-बाप, दूसरे रिश्तेदारों को वे सभी काम बुरे लगने लगे, जिन कामों के कारण कभी उनकी तारीफ़ की जाती थी। सभी तरह-तरह से सुनीता कृष्णा को गलत कहने-समझने लगे, लेकिन फौलादी इरादों वाली सुनीता ने कभी भी जीवन में निराशा को पनपने नहीं दिया। उम्मीद नहीं छोड़ी। साहस नहीं त्यागा। हौसले बुलंद रखे।

सामूहिक बलात्कार की घटना के कुछ ही दिनों बाद सुनीता कृष्णन ने फैसला किया कि वो बलात्कार का शिकार हुई दूसरी लड़कियों और महिलाओं से मिलेंगी। उनका दुःख-दर्द समझेंगी। और इसी मकसद से वे वेश्यालय जाने लगी थीं। वेश्यालयों में लड़कियों और औरतों की हालत देखकर उन्हें ये आभास हुआ कि इन लड़कियों और औरतों की पीड़ा के सामने उनकी पीड़ा कुछ भी नहीं। वे तो एक बार बलात्कार का शिकार हुई थीं, लेकिन समाज में ऐसी कई सारी लड़कियां हैं, जिनके साथ रोज़ बलात्कार होता है और अलग-अलग लोग ज़ोर-ज़बरदस्ती कर उन्हें अपनी हवस का शिकार बनाते हैं। मानसिक रूप से विकलांग लड़की को वेश्यालय से मुक्ति दिलाने के बाद सुनीता कृष्णन के लिए पीड़िताओं की मुक्ति और उनका पुनर्वास जीवन का सबसे महत्वपूर्ण काम बन गया।

ऐसा भी नहीं था सुनीता कृष्णन ने पहली बार समाज-सेवा की ज़िम्मेदारी अपने कंधों पर ली थी। वे जब महज़ आठ साल की थीं, तभी उन्होंने मानसिक रूप से मंद बच्चों की मदद करनी शुरू की थी। सुनीता कृष्णा ने इन बच्चों को डांस सिखाते हुए उनकी ज़िंदगी में ख़ुशी के कुछ पल लाने की कोशिश की थी। कोशिश ये भी थी कि बच्चों की मानसिक हालत भी सुधरे। 

आठ साल की छोटी उम्र में ही मानसिक रूप से मंद बच्चों की स्थिति सुधारने जैसी बड़ी चुनौती को स्वीकार करने का ख्याल मन में आने के पीछे का कारण कुछ घटनाएँ थीं।

सुनीता कृष्णन के मुताबिक, उनका परिवार निम्न मध्यम वर्गीय था। पिता सर्वे ऑफ़ इंडिया में नौकरी करते थे। उनके पिता ही खानदान में पहले ऐसे शख्स थे, जिन्होंने शिक्षा प्राप्त की थी और उनके पास एक ढंग की नौकरी थी। पिता से पहले की सारी पुश्तों और पुरखों की ज़िंदगी दो जून की रोटी जुटाने में ही गुज़र गयी थी।

बैंगलोर में जन्मी सुनीता कृष्णन अपने माता-पिता राजू और नलिनी कृष्णन की दूसरी संतान हैं। सुनीता के दो बहन और एक भाई हैं।

पैदा होते ही चुनौतियों ने सुनीता कृष्णन को घेर लिया था। वे जन्म से विकलांग थीं । उनका एक पैर टेढ़ा था। पैदा होने के कुछ ही दिनों में उनकी दादी ने पैर में इस गड़बड़ को पहचान लिया था। इसी लिए जल्द ही इलाज भी शुरू हो गया। इलाज की वजह से ज्यादातर समय उनके पैर में पट्टी बंधी रहती। उन पर कई तरह के प्रतिबंध लगाए गए थे। चलने-फिरने पर भी मनाही थी। वे आम बच्चों की तरह खेल-कूद नहीं सकती थीं।

लेकिन, एक बेहद ख़ास बात भी थी उनमें। वे सामान्य बच्चों की तरह अपने माता-पिता से किसी चीज़ को लेकर ज़िद नहीं करती थीं। और ना ही उनमें रोने की आदत थी। वो किसी बात को लेकर नहीं रोईं। यही वजह थी कि माता-पिता खुद उनकी ज़रूरतों को समझते और उन्हें पूरा करने की हर मुमकिन कोशिश करते। और यही वजह थी कि सुनीता कृष्णन ने अपना ज्यादा समय शिक्षा में लगाया। वह क्लास में अव्वल आतीं। हर प्रतियोगिता में अपनी छाप ज़रूर छोड़तीं। सुनीता बचपन से अपनी उम्र के दूसरे बच्चों से ज्यादा समझदार और अकलमंद थीं। समझदार इतनी की छोटी-सी उम्र में उन्हें अच्छे-बुरे, सही-गलत का इल्म हो गया था। वे अपने घर में कुछ भी गलत होता तो फट से अपना ऐतराज़ जतातीं। अगर कुछ अच्छा और बढ़िया होता तो उसकी तारीफ़ भी करतीं। इतना ही नहीं घर के बड़े लोगों को भी समझातीं कि क्या सही और क्या गलत ? कौन-सा काम कैसे और कब करना चाहिए, ये भी वे सभी को बतातीं। सुनीता कृष्णन छोटी उम्र में ही बड़ी-बड़ी बातें करने लगी थी। बड़े-बड़े लोगों को सलाह देने लगी थीं। इसी समझदारी और परिपक्वता की वजह से घर वाले सुनीता कृष्णन को "दादी अम्मा" कहने लगे थे। नन्हीं उम्र में ही उन्होंने अपनी बहन को पढ़ाने की ज़िम्मेदारी भी ले ली थी। उन्होंने न सिर्फ अपनी छोटी बहन बल्कि हमउम्र बच्चों को भी पढ़ाना शुरू किया था।

एक बार जब सुनीता कृष्णन ने कुछ मानसिक रूप से मंद बच्चों को देखा तो उनका मन दहल गया। वे आठ साल की ही थीं, लेकिन मन में ख्याल आया कि इन बच्चों की मदद करनी चाहिए। और घर-परिवार की सारी ज़िम्मेदारियों को निभाते हुए ही सुनीता कृष्णन ने इन बच्चों को डांस सिखाना शुरू कर दिया। सुनीता कृष्णन ने बताया कि जब उन्होंने मानसिक रूप से मंद उन बच्चों को देखा तो उन्हें उनकी तकफीलें खुद की तकलीफों से बड़ी लगीं और तभी उन्होंने फैसला किया वो इन तकलीफों को दूर करने अपनी ओर से हर मुमकिन कोशिश करेंगी। एक तो उनका पैर ठीक नहीं था और वैसे भी कोई ख़ास नृत्य उन्हें नहीं आता था, लेकिन आठ साल में ही उनकी बुद्धि इतनी विकसित थी कि उन्होंने डांस के ज़रिये उन बच्चों की ज़िंदगी में खुशियां लाने की पहल की।

आगे चलकर महज़ बारह साल की उम्र में ही सुनीता कृष्णन ने एक शिक्षा केंद्र शुरू किया था। इस केंद्र के ज़रिये झुग्गी-बस्तियों में रहने वाले बच्चों की भलाई के लिए काम करना शुरू किया। हुआ यूँ कि उन दिनों पिता का तबादला विशाखापट्टनम में हुए था। सुनीता वहीं पढ़ने स्कूल जाती थीं। घर से स्कूल और स्कूल से घर आते-जाते उन्होंने देखा कि मुहल्ले के बच्चे बस खेलते ही रहते हैं। ये बच्चे स्कूल नहीं जाते थे। सुनीता ने सोचा कि ये बच्चे अगर स्कूल नहीं गए तो उनका जीवन भी उनके माँ-बाप की तरह ही होगा। वे भी गरीब रहेंगे। दो जून की रोटी के लिए दर-दर भटकेंगे। उन्हें सारा जीवन झुग्गी में गुज़ारना होगा। बारह साल की सुनीता को लगा कि अगर इन बच्चों को शिक्षा मिलती है तो उन्हें शायद अच्छी नौकरी मिले। और इसी ख्याल से बारह साल के उस मज़बूत इरादों वाली सुनीता कृष्णन ने एक शिक्षा केंद्र शुरू किया। एक कमरे में उन्होंने अपना शिक्षा केंद्र खोला और बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। सुनीता सुबह को अपने स्कूल में विद्यार्थी होतीं और शाम को अपने ही बनाए इस शिक्षा केंद्र में शिक्षक। जब सुनीता की इस पहल की जानकारी उनके स्कूल के प्राचार्य को मिली तब उन्होंने सुनीता की जमकर तारीफ की और उन्हें पुरस्कार दिया। 

सुनीता कृष्णन ने एक सवाल के जवाब में कहा," मेरा जीवन ही ईश्वरीय देन है। मैं मानती हूँ कि मुझे एक मकसद से साथ ईश्वर ने धरती पर भेजा है। लोगों की मदद करने का ख्याल अपने आप ही मेरे मन में आता है। मैं ढूंढती हूँ ऐसे लोगों को, जो मुझसे ज्यादा पीड़ित हैं, परेशान हैं। ऐसे लोगों की तलाश कर मैं उनकी मदद में लग जाती हूँ। मैं कभी कोई रणनीति बनाकर काम नहीं करती। गरीब, पीड़ित, निस्सहाय लोग जब मुझे मिलते हैं तो अपने आप मुझमें उनकी मदद करने की शक्ति आती है।"

ये पूछे जाने पर कि उनके जीवन में अब तक का सबसे बड़ा संघर्ष क्या रहा, सुनीता कृष्णन ने अपने ही सबसे जुदा अंदाज़ में कहा, "दूसरों को जो मेरा संघर्ष दिखाई देता है, वो मेरे लिए संघर्ष नहीं है। मुझे संघर्ष में कामयाबी दिखती है। जो दूसरों की नज़रों में मेरे उतार हैं वो मेरे लिए चढ़ाव हैं। "

सुनीता कृष्णन ने बताया," बचपन में खुद को समझना, जैसी हूँ वैसे ही खुद को स्वीकार करना- ये मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती रही है। खुद को समझने के लिए मैंने काफी ज़द्दोज़हद की। मुझमें क्या है ? क्या नहीं हैं ? ये जानने की कोशिश की। बहुत गहराई में जाकर मैंने खुद से बारे में समझा है।"

महत्वपूर्ण वे भी है कि सुनीता कृष्णन ने बहुत पहले ही अपराधियों के खिलाफ जंग छेड़ी थी। इस जंग में उन्होंने अलग-अलग जगह, अलग-अलग तरीकों से , अलग-अलग लोगों के हाथों शोषण का शिकार हो रही रहीं हज़ारों लड़कियों और महिलाओं को वेश्यावृति से मुक्ति दिलाई है। सुनीता कृष्णन ने अपना जीवन अलग-अलग अपराधों का शिकार हुईं लड़कियों और महिलाओं के बचाव और पुनर्वास से जुड़े कामों को समर्पित कर दिया। चूँकि सुनीता कृष्णन के काम की वजह से जिस्म के कारोबार और तस्करी जैसे अपराधों में लिप्त लोगों का दाना-पानी छिन रहा है, वे सलाखों के पीछे जा रहे हैं, कई सारे उनकी जान के दुश्मन भी बन गए है। सुनीता कृष्णन पर अब तक सत्रह बार हमले हो चुके हैं। जान से मारने की कोशिशें की जा चुकी हैं। नेस्तनाबूद करने की धमकियाँ लगातार मिलती रहती हैं, लेकिन इन सबका उनके काम पर कोई असर नहीं पड़ता। वे बिना किसी से डरे, बिना रुके लड़कियों और महिलाओं की आज़ादी के लिए कोशिशें करती ही रहती हैं।

हैदराबाद के चारमीनार के पास अपनी संस्था "प्रज्जवला"के दफ़्तर में हुई एक ख़ास मुलाकात में जब सुनीता कृष्णन से उनपर हुए हमलों के बारे में पूछा गया, तब उन्होंने अपने ख़ास अंदाज़ में कहा," मुझ पर ऐसा कोई हमला नहीं हुआ है, क्योंकि मैं उन्हें हमला ही नहीं मानती हूँ। जो समाज मेरे साथ करता है, मैं उसे हमला मानती हूँ। जो क्रिमिनल्स मेरे साथ करते हैं, मैं उन्हें अवार्ड्स मानती हूँ। वे मेरे हाथ नहीं तोड़ेंगे, कान नहीं फोड़ेंगे ,तो अपना गुस्सा कहाँ दिखाएँगे।"

सुनीता कृष्णन उन पर हुए हर हमले को एक अवार्ड बताते हुए कहती हैं,"मुझे भी अपने काम के लिए कोई न कोई इंडिकेटर चाहिए, ताकि पता लगे कि मैं सही कर रही हूँ या नहीं। ये हमले मेरे लिए इंडिकेटर हैं। ये हमले मेरे लिए अपना रिपोर्ट कार्ड भी हैं और इसको देखकर मुझे लगता है कि मैं अव्वल नंबर से पास हो रही हूँ।"

थोड़ा संजीदा होकर सुनीता ने बताया कि उन्हें इन हमलों को लेकर एक अजीब-सी बेचैनी भी रहती है। बेचैनी इस बात को लेकर की हमलावर अपने मसूबों में कामयाब हो गए और उनकी हत्या कर दी गयी तो उनकी लड़ाई को कौन और कैसे कोई उसके अंजाम तक पहुँचा पायेगा। वे कहती हैं जिस काम के लिए वे इस दुनिया में आयी हैं, वो अगर पूरा हो जाय और फिर उनकी जान चली जाय तो उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा,बल्कि सुकून मिलेगा। सुनीता कृष्णन ने कहा, "ईश्वर से मेरी कभी भी यही प्रार्थना रहती है कि जिस काम के लिए मुझे दुनिया में लाया है उस काम के पूरा होने तक उन्हें इस दुनिया में रखें। जीवन के लक्ष्य और उद्देश्य के हासिल होने के बाद उन्हें ले जाएँ।"

आखिर उनका जीवन लक्ष्य क्या है?, इस सवाल के जवाब में सुनीता कृष्णन ने कहा,"मेरा एक ही लक्ष्य है - कोई भी इंसान शोषित न हो। एक ऐसा समाज हो, जहाँ पर हर कोई सुरक्षित हो। लड़की हो या औरत, सभी सुरक्षित रहें। मेरे जैसे एक्टिविस्ट की ज़रुरत ही न हो। 'प्रज्वला' जैसी संस्था की ही ज़रुरत न हो।"

क्या ये लक्ष्य हासिल कर पाना संभव है? इस सवाल पर सुनीता कृष्णन ने कहा,"असम्भव का सवाल ही नहीं। इस दुनिया में सब हमने बनाया है और सब हमने बिगाड़ा है। अगर हर इंसान सोच ले कि वो शोषण नहीं करेगा तो शोषण बंद हो जाएगा। शोषण को बंद करवाना एक सिर्फ सुनीता कृष्णन का काम नहीं है। ये हर इंसान की ज़िम्मेदारी है। अगर सभी चाहें और साथ में काम करें तो सभी के लिए सुरक्षित समाज का लक्ष्य हासिल हो जाएगा।"

सुनीता कृष्णन के जीवन में एक नहीं बल्कि कई सारी ऐसी घटनाएं हैं, जहाँ उन्होंने विपरीत और कठोर परिस्थियों के बावजूद कभी संघर्ष का मैदान नहीं छोड़ा। हार नहीं मानी। जब तक कामयाब नहीं हुईं वे लड़ती रहीं। ऐसी ही एक घटना थी "मिस वर्ल्ड" सौंदर्य प्रतियोगिता का विरोध।

1996 में बैंगलोर में "मिस वर्ल्ड" प्रतियोगिता के आयोजन की तैयारियां ज़ोरों पर थीं। सुनीता कृष्णन ने इस प्रतियोगिता को रुकवाने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी। सुनीता का मानना था कि कुछ लोग महिलाओं को भोग की वास्तु मानते हैं और ऐसे ही लोग सौंदर्य प्रतियोगिताओं का आयोजन करते हैं। सुनीता का कहना था कि सौंदर्य प्रतियोगिताओं की वजह से भी नारियों को वो सम्मान और अधिकार नहीं मिल पा रहा, जिसकी वे हकदार हैं। बड़े पैमाने और पूरे ज़ोर-शोर के साथ आयोजित की जा रही इस प्रतियोगिता का विरोध करने पर पुलिस ने सुनीता कृष्णन को गिरफ्तार कर लिया। गिरफ्तारी के बाद उन्हें जेल में बंद करवाया गया, ताकि वे बाहर आकर फिर उसका विरोध न कर सकें। पूरे दो महीने तक सुनीता कृष्णन को जेल में रखा गया। सुनीता कहती हैं कि उन्हें एक साज़िश के तहत फंसाया गया था। मिस वर्ल्ड प्रतोयोगिता के खिलाफ शुरू हुए आंदोलन के दौरान अचानक ही सुनीता कृष्णन को गिरफ्तार कर लिया गया था । उनके पिता को पुलिस ने यह कह कर डरा दिया था कि उनके पास से 'ड्रग्स" मिले हैं।

जेल में भी सुनीता कृष्णन ने बहुत कुछ सीखा। जेल में बंद अलग-अलग महिलाओं के बारे में जानने-समझने का मौका उन्हें मिला। महिलाओं के अपराधों और महिलाओं पर होने वाले अपराधों - दोनों के बारे में काफी जानकारियां मिलीं। चौंकाने वाले एक बात ये भी थे कि जेल में सुनीता कृष्णन को बदलने के लिए दूसरी ड्रेस भी नहीं दी गयी। उन्हें एक ही ड्रेस में पूरे 60 दिन गुज़ारने पड़े थे। जेल से बाहर आने के बाद भी सुनीता के लिए हालात नहीं सुधरे। अपने ही लोग उनसे और भी दूर होते गए। पुलिस और प्रशासन ने भी हालात कुछ ऐसे बनाये कि उन्हें बैंगलोर छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। कठिनाईओं के इस नए दौर में सुनीता कृष्णन ने अपनी जन्म-भूमि बैंगलोर को छोड़ने का मन बना लिया। वे हैदराबाद जा रही ट्रेन पर सवार हुईं और हैदराबाद आ गयीं। आगे चलकर हैदराबाद ही उनकी सबसे बड़ी कर्म-भूमि बन गयी।

हैदराबाद आने के बाद सुनीता कृष्णन को किसी तरह ब्रदर वर्गीस मिले, जो झुग्गी-बस्ती के लोगों के उत्थान के लिए काम कर रहे थे। सुनीता कृष्णन ने इस काम में ब्रदर वर्गीस का साथ देना शुरू किया। धीरे-धीरे हैदराबाद में सुनीता कृष्णन की लोगों से जान-पहचान बढ़ने लगी। कई लोग उनके शुभचिंतक और साथी बन गए। सुनीता ने मन बना लिया कि वे हैदराबाद को ही अपनी कर्म-भूमि बना लेंगी। इसी बीच हुई एक और एक बड़ी घटना की वजह से "प्रज्जवला" संस्था की नींव पड़ी । 1996 में ही हैदराबाद के पुराने शहर की बदनाम बस्ती "महबूब की मेहंदी" को सरकार और पुलिस ने ख़त्म कर दिया। "महबूब की मेहंदी" को पूरी तरह से उजाड़कर वहां धंधा करने वाली महिलाओं को हटाने की कार्यवाही अचानक हुई थी। सरकार और प्रशासन ने वेश्याओं को इलाके से हठाने की ही सोची थी, किसी के पास उनके पुनर्वास की कोई योजना नहीं थी। पहले तो कई वेश्याओं को गिरफ्तार कर जेल भेजा गया। कई महिलाएं दर दर ठोकर खाने को मज़बूर थीं। कुछ तो इतनी परेशान हुईं कि उन्होंने खुदखुशी कर ली। कोई भी "महबूब की मेहंदी" से उजड़ी और बर्बाद हुईं इन महिलाओं के मदद के लिए आगे नहीं आ रहा था। सुनीता कृष्णन ने ऐसे ही हालत में एक और बड़ा फैसला लिया। सामजिक कार्यकर्ता ब्रदर जोज़ वेट्टिकटिल के साथ मिलकर एक संस्था "प्रज्जवला" की शुरुआत की। इस संस्था ने नाम के अनुरूप ही काम करना शुरू किया। "प्रज्जवला" ने "महबूब की मेहंदी" की पीड़िताओं से काम की शुरुआत की। और ये काम अब भी बदस्तूर जारी है। सुनीता कृष्णन "प्रज्जवला" के बैनर तले शोषित और पीड़ित महिलाओं को न्याय दिलाने के लिए संघर्ष कर रही है। जिस्म के कारोबारियों,दलालों, गुंडों-बदमाशों, बलात्कारियों जैसे असामजिक तत्वों और अपराधियों के चंगुल से लड़कियों और महिलाओं को मुक्ति दिलाकर उनका पुनर्वास करवाने में "प्रज्जवला" समर्पित है। सुनीता कृष्णन ने महिलाओं के हक़ की लड़ाई में एक नयी मशाल जलाई है और प्रज्ज्वलित मशाल की रोशनी से शोषित और पीड़ित महिलाओं की ज़िंदगी के अन्धकार दूर कर रही हैं। समाज-सेवा और महिलाओं के उत्थान के लिए किये जा रहे कार्यों की सराहना करते हुए हाल ही में भारत सरकार ने सुनीता कृष्णन को देश के चौथे सबसे बड़े नागरिक सम्मान "पद्मश्री" से नवाज़ा है। 

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