पहली बार सोशल मीडिया की ललकार पर ऐसा 'बंद'
इसे कहते हैं सोशल मीडिया की ताकत...
भारत बंद को देखते हुए इसे एक तरह का इलेक्ट्रॉनिक विद्रोह माना जा रहा है। एक दशक में सोशल मीडिया का यह आश्चर्यजनक उभार है। ऐसा तो कभी पारंपरिक मीडिया (न्यूज पेपर्स, न्यूज चैनल आदि) से भी संभव नहीं हो सका था। आज उसने इस तरह पहली बार देश के सत्ता प्रतिष्ठान को चौकन्ना किया है।
पिछले दिनो तमिलनाडु में सोशल मीडिया ने एक व्यापक जनांदोलन को जन्म दिया, जबर्दस्त विरोध प्रदर्शन ने ट्विटर, व्हाट्सएप और फेसबुक पर रफ्तार पकड़ी और पूरे माहौल उत्तेजित हो उठा। आज के बंद की तरह उस आंदोलन में भी कोई पार्टी, संगठन, नेता, प्रवक्ता नहीं था। यह एक तरह का इलेक्ट्रॉनिक विद्रोह माना जा रहा है। सोशल मीडिया का यह आश्चर्यजनक उभार है।
यह तो ‘अभूतपूर्व’ है। दलित संगठनों के 'भारत बंद' के जवाब में पहली बार देश में आज सोशल मीडिया ने अपनी प्रचंड ताकत का अहसास कराया है। यह 'बंद' किसी पार्टी, व्यक्ति या संगठन के ऐलान पर नहीं, बल्कि सोशल मीडिया की ललकार पर हो रहा है, जिसने पूरे देश में गंभीर प्रतिक्रिया से केंद्र सरकार को आगाह करने के साथ ही व्यापक सुरक्षा बंदोबस्त के लिए विवश किया है। सोशल मीडिया की ऐसी सशक्त सक्रियता का गंभीर प्रभाव पिछले एक दशक में पहली बार देखने को मिल रहा है, जिससे लगता है, मानो पूरा देश थम गया है।
गौरतलब है कि एससी-एसटी एक्ट के अंतर्गत तत्काल गिरफ्तारी पर पाबंदी संबंधी सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के विरोध में विगत दो अप्रैल को दलित संगठनों ने भारत बंद किया था। स्थानीय अथवा विश्व-मंच पर गौर करिए कि इसकी संवेदनशीलता की पड़ताल किस तरह खबरदार करती है। पाकिस्तान के रक्षामंत्री के एक सोशल मीडिया संदेश को इजरायल द्वारा परमाणु हमले की चेतावनी समझ बैठना और इसका समुचित प्रतिरोध करने की बात कहना।
इसी तरह पिछले दिनो तमिलनाडु में सोशल मीडिया ने एक व्यापक जनांदोलन को जन्म दिया, जबर्दस्त विरोध प्रदर्शन ने ट्विटर, व्हाट्सएप और फेसबुक पर रफ्तार पकड़ी और पूरे माहौल उत्तेजित हो उठा। आज के बंद की तरह उस आंदोलन में भी कोई पार्टी, संगठन, नेता, प्रवक्ता नहीं था। यह एक तरह का इलेक्ट्रॉनिक विद्रोह माना जा रहा है। सोशल मीडिया का यह आश्चर्यजनक उभार है, जैसाकि ऐसा कभी मीडिया की मुख्य धारा (न्यूज पेपर्स, न्यूज चैनल आदि) से भी संभव नहीं हो सका था।
आज उसने इस तरह पहली बार देश के सत्ता प्रतिष्ठान को चौकन्ना किया है। यह सोशल मीडिया के जरिये शासन का नया दौर माना जा रहा है। ऐसे में किस तरह विश्वास या अनुमान किया जाए कि पारंपरिक मीडिया इसका अनुकरण नहीं करेगा। सवाल उठता है, गूगल के जन्म लेने के बाद से इस निरंकुश उभार के लिए अब किसे जिम्मेदार माना जाए। आए दिन अब बड़े-बड़े राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर के मसले सोशल मीडिया पर आकार ले रहे हैं। चिंताजनक ये है कि अभी तो ये हाल है, जब ट्रंप ट्विटर अमल में आ गया तो क्या होगा! प्रसिद्ध पत्रकार शेखर गुप्ता कहते हैं कि 'एक वक्त में सोशल मीडिया के आलोचक इसे इको चैंबर कहते थे।
अब यह बदल गया है और ये आवाजें हमारे दिमागों, सरकार, राजनीति, सार्वजनिक विचार और बहसों को प्रभावित कर रही हैं।...मैं सोशल मीडिया की आलोचना नहीं कर रहा हूं क्योंकि वर्षों के बाद आखिरकार मैं भी इस माध्यम का इस्तेमाल कर रहा हूं और मुझमें भी अब इसकी आलोचना करने का नैतिक आधार शेष नहीं रहा। कुछ वर्ष पहले मैंने अपने एक आलेख में इसकी वजहों को स्पष्ट किया था। जब हमारे बच्चों और हमारे भविष्य पर नियंत्रण रखने वाले गंभीर लोग ऐसे माध्यमों को लेकर दीवानगी दिखाते हैं, इसे पुरानी शैली की बोरिंग राजनीति या प्रशासन अथवा तथ्यात्मक बहस का विकल्प मान बैठते हैं तो चिंता होती है।' ऐसे में सोशल मीडिया की ताकत को हमें समझने की जरूरत है।
एक और सोशल मीडिया की विध्वंसक भूमिका सामने आ रही है, दूसरी तरफ हमारे समय के इस इस शक्तिमान ने पारंपरिक मीडिया के एकाधिकारों को गंभीर चुनौती भी दी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं - 'सोशल मीडिया से उनकी विचार प्रक्रिया में बड़ा बदलाव आया है। इसमें गजब की ताकत और फायदे हैं, जो कोई गलत फैसला लिए जाने की सूरत में सुधारात्मक कदम उठाने में सरकारों की मदद कर सकते हैं। जब उन्होंने सोशल मीडिया को अपनाया था, सोचा भी नहीं था कि वह मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री बन जाएंगे। वह दुनिया को जानने के लिए उत्सुक थे।
सोशल मीडिया ने उन्हें दुनिया के बारे में सूचना एकत्र करने में मदद की। उसने उनकी सोचने की प्रक्रिया में बड़ा बदलाव किया। उनको दुनिया से जोड़ा और दुनिया ने उन्हें उस रूप में स्वीकार किया जो आज वह हैं। सरकार की एक समस्या है....सरकार और लोगों के बीच बड़ी खाई है और जब तक सरकार को अहसास होता है, पांच साल बीत जाते हैं लेकिन सोशल मीडिया की ताकत ऐसी है कि आपको तुरंत पता चल जाता है कि क्या गलत है। और यदि यह गलत है तो सरकार समय रहते सुधारात्मक कदम उठा सकती है । सोशल मीडिया के कारण रोज मतदान हो रहा है। सोशल मीडिया लोकतंत्र की एक बड़ी ताकत है। वह विश्व के सभी नेताओं से अपील करते हैं कि सोशल मीडिया से भागने की कोई जरूरत नहीं है। सूचना के घटित होने के समय में ही उसे हासिल करने का यह श्रेष्ठ स्रोत है।'
समीक्षकों का ऐसा भी मानना है कि सोशल मीडिया ने मुम्बई फिल्मोद्योग में बनने वाले कम बजट, स्वतंत्र सिनेमा के लिए मैदान में उतरने के नए दरवाज़े खोले हैं। ऐसा सोशल मीडिया के इस दशक के उभार से पहले संभव नहीं था। दुनिया के बड़े से बड़े देश के नेता भी अब ट्विटर पर आधिकारिक बयान जारी करते हैं, समर्थकों से बात करते हैं, उन तक अपने मन की बात पहुंचाते हैं। इन राजनेताओं की लोकप्रियता और ताकत का अंदाज़ा भी सोशल मीडिया पर उन्हें पसंद करने वालों की तादाद से लगाया जाने लगा है।
सोशल मीडिया के फैलाव की वजह से ‘वर्ड ऑफ़ माउथ‘ आज तेज़ी से फैल जा रहा है और स्वतंत्र सिनेमा जिसके पास फिल्म के प्रचार पर खर्च करने को बड़ा पैसा नहीं होता, यह नये माध्यम दर्शक की नज़र में आने का एकमात्र ज़रिया बने हैं। सिनेमा दर्शक को वो इज्ज़त आज भी नहीं देता, जिसका वो हक़दार है। इसीलिए सोशल मीडिया को भी सीमित अर्थों में समझा और इस्तेमाल किया जाता है लेकिन निश्चित ही इसने संभावनाओं के नए द्वार खोले हैं।
फिल्मों को सोशल मीडिया पर बेहतरीन रिस्पांस मिल रहा है। फिल्म निर्माता सोशल मीडिया को ही अपना मुख्य ज़रिया बनाने लगे हैं। एक अंदेशा भी साथ-साथ बड़ा होता जा रहा है कि नए प्रचार माध्यमों को भी अब लड़ाई के वैसे ही रूप में तब्दील किया जा रहा है, जहाँ सम्भावना इस बात की बनती दिख रही है कि अन्तत: बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियों को खा जाएंगी। देखिए कि किस तरह प्रायोजित प्रचार ने सोशल मीडिया साइ्टस पर कब्ज़ा कर लिया है। अपनी सुविधानुसार मैनेज करने वाली कम्पनियां फेसबुक और ट्विटर भी बाज़ार में हैं और इन्हें कोई भी पैसा देकर खरीद सकता है।
डाटा बैंक की खरीद-फरोख्त की दास्तान अभी पुरानी नहीं पड़ी है। आज के बंद को देखते हुए कहा जा सकता है कि आज ये देश सोशल मीडिया की ताकत से चल रहा है, जिसे कुल आबादी की एक चौथाई आबादी भी यूज नहीं करती। आज सोशल मीडिया की ताकत से सब कुछ संभव सा हो रहा है। दाऊद का समधी भारत नहीं आ सका, क्योंकि उसके पीछे असली ताकत सोशल मीडिया की ही थी। ओवेसी गिरफ्तार हुआ तो इसके पीछे भी सोशल मीडिया की ताकत रही। देखिए कि किस तरह पद्मावती और दामिनी के लिए पूरा देश आंदोलन पर आमादा हो जाता है। यह सब सोशल मीडिया की देन होता है।
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