अलविदा 'सुपरकॉप' केपीएस गिल
केपीएस गिल को खालिस्तानी आतंकियों के सफाए के कारण ही 'सुपरकॉप' के नाम से जाना जाता है। साल 1989 में प्रशासनिक सेवा के क्षेत्र में बेहतर कार्य के लिए गिल को भारत के चौथे सबसे बड़े सिविल सम्मान 'पद्मश्री' से नवाजा गया था।
पंजाब के शेर, भारतीय पुलिस सेवा के गूरूर, खालिस्तानी आतंकवाद को खाक में मिलाने वाले 'सुपरकॉप' केपीएस गिल ने आज दुनिया-ए-फानी को अलविदा कह दिया। पंजाब से आतंकवाद मिटाने वालों में जिस शख्स का नाम सबसे ऊपर लिया जाता है, वो थे कंवर पाल सिंह गिल यानी केपीएस गिल।
केपीएस गिल, फोटो साभार: यूट्यूबa12bc34de56fgmedium"/>
दीगर है कि जब पंजाब का आतंकवाद अपने शबाब पर था और हत्याओं का सिलसिला रूकने का नाम नहीं ले रहा था उस समय पंजाब के 'सुपरकॉप' ने गोली का जवाब गोली से देने की नीति का ऐलान किया। गिल की यलगार ने पंजाब पुलिस की रगों में रवानी दौड़ा दी, अंतहीन रक्तपात का दौर चला। बताया जाता है कि कुछ बेगुनाह भी इस जंग का शिकार बने लेकिन उनकी कुर्बानी जाया नहीं हुई और आज पंजाब अमन-चैन की सांस ले रहा है।
विवादों और गिल साहब का चोली दामन का साथ था। उन पर कई तरह के आरोप लगे लेकिन सबसे संगीन मामला पंजाब की एक वरिष्ठ महिला अधिकारी के यौन उत्पीड़न के आरोप का था। अदालत ने इस मामले में गिल पर भारी जुर्माना लगाया और जेल की सजा भी सुनाई थी। बाद में जेल की सजा माफ कर दी गई थी।
केपीएस गिल को खालिस्तानी आतंकियों के सफाए के कारण ही 'सुपरकॉप' के नाम से जाना जाता है। साल 1989 में प्रशासनिक सेवा के क्षेत्र में बेहतर कार्य के लिए गिल को भारत के चौथे सबसे बड़े सिविल सम्मान 'पद्मश्री' से नवाजा गया था। 1988 से 1990 तक वो पंजाब के डीजीपी थे। इसके बाद में 1991 से 1995 तक दोबारा डीजीपी थे। 1995 में गिल आईपीएस के पद से रिटायर हुए थे। पुलिस की नौकरी छोडऩे के बाद गिल इंस्टिट्यूट फॉर कॉन्फ्लिक्ट मैनेजमेंट तथा इंडियन हॉकी फेडरेशन (आईएचएफ) के अध्यक्ष भी रहे। हालांकि उनका यह कार्यकाल काफी विवादों भरा था। पुलिस से सेवानिवृत होने के बाद भी वह विभिन्न सरकारों को आतंकवाद विरोधी नीति निर्माण के लिए सलाह देने में हमेशा व्यस्त रहे। पिछले साल श्रीलंका सरकार ने भी उनकी सलाह ली।
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गिल फॉल्टलाइन्स पत्रिका प्रकाशित करते थे और इंस्टीट्यूट ऑफ कन्फिलक्ट मैनेजमेंट नामक संस्था चलाते थे। उन्होंने द नाइट्स ऑफ फाल्सहुड नामक एक किताब भी लिखी थी। 2006 में सुरक्षा सलाहकार रहते हुये उन्होंने छत्तीसगढ़ सरकार को बस्तर की तीन सड़कों के निर्माण की अनुशंसा की थी। साल 2000 से 2004 के बीच श्रीलंका ने लिब्रेशन टाइगर्स ऑफ तमिल इलम के खिलाफ रणनीती बनाने के लिए भी गिल की मदद मांगी थी। केपीएस गिल ने अफगानिस्तान के मामले में भी काम किया था। वहां युद्ध के माहौल में भी 218 किलोमीटर देलारम-जरंज हाईवे का निर्माण चार साल में कराया था। 2002 के गुजरात दंगों के बाद गुजरात सरकार ने भी गिल की सेवाएं ली थीं। उन्हें नवनियुक्त सुरक्षा सलाहकार नियुक्त किया था।
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दीगर है कि जब पंजाब का आतंकवाद अपने शबाब पर था और हत्याओं का सिलसिला रूकने का नाम नहीं ले रहा था उस समय पंजाब के 'सुपरकॉप' ने गोली का जवाब गोली से देने की नीति का ऐलान किया। गिल की यलगार ने पंजाब पुलिस की रगों में रवानी दौड़ा दी, अंतहीन रक्तपात का दौर चला। बताया जाता है कि कुछ बेगुनाह भी इस जंग का शिकार बने लेकिन उनकी कुर्बानी जाया नहीं हुई और आज पंजाब अमन-चैन की सांस ले रहा है। यह सच है कि एक तवील जंग के इतिहास में आंसुओं और सिसकियों की अंतहीन दास्तानें दर्ज होती हैं लेकिन शायद ऐसे दरियाओं को पार कर ही शांति का शंखनाद हो पता है। अत: केपीएस गिल को देखने के दो नजरिए रहे हैं। जहां कुछ लोग उन्हें हीरो के तौर देखते हैं वहीं कुछ लोग उन पर मानवाधिकार के हनन का दोषी करार देते हैं। लेकिन के.पी.एस गिल के बारे में यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि,
"चमन को सींचने में पत्तियां कुछ झड़ गई होंगी,
यही इल्जाम मुझ पर लग रहा है बेवफाई का।
मगर कलियों को जिसने रौंद डाला अपने पैरों से,
वही दावा कर रहे हैं इस चमन की रहनुमाई का।।"
क्यों कहा जाता है सुपर कॉप?
80 के दशक में जब पूरा पंजाब आतंकवाद की आग में झुलस रहा था तब उन्होंने खालिस्तानी आतंकवादियों से काफी सख्ती से निपटा था। उन्होंने राज्य में आतंकवाद की कमर तोडऩे में अहम भूमिका निभाई थी। गिल दो बार पंजाब के डीजीपी रहे हैं। ऑपरेशन ब्लू स्टार के दौरान गिल ने ही अगुवाई की थी। इसके अलावा सिख बहुल राज्य पंजाब में अलगाववादी आंदोलन को कुचलने का मुख्य श्रेय गिल को ही मिला। पंजाब में मिली सफलता के बाद अपराधियों के बीच उनके नाम से घबराहट फैलने लगी थी।