अनार की खेती से किसान कर रहे एक साल में नब्बे लाख की कमाई
वह छिंदवाड़ा के रवीन्द्र चौधरी, मनीष डोंगरे और लखन हों या सोनीपत (हरियाणा) के रमेश डागर, जैविक कृषि से लेकर आधुनिक खेती तक भारतीय गांवों के ये अन्नदाता अब नए वक्त का इतिहास बना रहे हैं। कभी सुना, गाया गया है कि 'मेरे देश की धरती सोना उगले', देश की मिट्टी में ये कुशल किसान उसी कहे को अपने हुनर और श्रम से साकार कर रहे हैं।
एक साधारण किसान ने अनार की खेती कर सवा करोड़ से अधिक की फसल बेची थी। उसकी खेती और सफलता देखकर रवींद्र को भी अनार की खेती करने की प्रेरणा मिली। अब तो रवीन्द्र खुद अपने ही खेतों में अनार की कलम भी तैयार करने लगे हैं।
छिंदवाड़ा (म.प्र.) के गांव पांढुर्ना निवासी रवीन्द्र चौधरी की मेहनत तो इस कदर रंग लाई कि वह अपने पथरीले खेतों को उर्वर बनाकर अब हर साल अस्सी-नब्बे लाख रुपए तक की कमाई कर रहे हैं। कुछ साल पहले रवीन्द्र चौधरी ने अपने सहयोगी मनीष डोंगरे एवं लखन डोगरे के साथ मिलकर ग्राम भटेवाड़ी के पास एक पथरीला खेत लिया। एक साल तक उन्होंने खेत को तैयार किया। इसके बाद उन्होंने बारह एकड़ में अनार के चार हजार पौधे लगाए। अनार के पेड़ तैयार होने में बाईस महीने बिता दिए। वह तब तक ड्रीप एरिगेशन विधि से उनकी सिंचाई करते रहे। इस दौरान उन्हें कृषि वैज्ञानिकों का मार्गदर्शन भी मिलता रहा। पहले साल ही उनको अनार की बिक्री से अस्सी लाख रुपए की कमाई हुई।
रवीन्द्र बताते हैं कि कुछ साल पहले वह शिर्डी गए थे। लौटते समय उन्होंने वहां एक अनार का बाग देखा। वहां एक साधारण किसान ने अनार की खेती कर सवा करोड़ से अधिक की फसल बेची थी। उसकी खेती और सफलता देखकर रवींद्र को भी अनार की खेती करने की प्रेरणा मिली। अब तो रवीन्द्र खुद अपने ही खेतों में अनार की कलम भी तैयार करने लगे हैं। साथ ही वह आसपास के किसानों को इस तरह की खेती का पाठ भी पढ़ाते रहते हैं।
रवीन्द्र चौधरी बताते हैं कि उन्होंने मुरमनुमा मिट्टी का सैंपल लैब में भेजा। लैब से आई रिपोर्ट में पता चला कि इस पथरिली जमीन में काली जमीन की अपेक्षा अधिक घटक तत्व हैं। यदि सिंचाई और खाद की व्यापक व्यवस्था हो तो यहां अनार की अच्छी खेती हो सकती है। इसके साथ एक पक्ष भी यह भी रहा कि अन्य फसलों में एक अरसे बाद रोगों का प्रकोप बढ़ जाता है। इसलिए उद्यानिकी में भी फसलचक्र का पालन करना चाहिए। उन्होंने दोनों तरह के प्रयोग किए। फसलचक्र के पालन से उनकी खेती लहलहा उठी।
एक ऐसे ही सफल प्रयोगधर्मी खेतिहर हैं सोनीपत (हरियाणा) के गांव अकबरपुर बरोटा निवासी रमेश डागर। उनके पास उन्नीस सौ सत्तर के दशक में सोलह एकड़ जमीन थी। मैट्रिक तक पढ़ाई के बाद वैसे भी इतनी योग्यता पर कोई बेहतर नौकरी मिलना संभव नहीं था। परिवार की आर्थिक स्थितियां ठीक नहीं थीं। उन्होंने सोचा कि क्यों न वह खेती में ही अपना भविष्य बनाएं। वह खेती-बाड़ी में जुट गए। पहली बार उन्होंने बाजरे की खेती शुरू की। इसमें अच्छी सफलता मिली तो दूसरी फसल गेहूं की खेती में हाथ डाला, जिसमें लागत भी नहीं निकली। उन्हीं दिनो जब उन्होंने कुछ किसानों को ट्रेन से सब्जी ले जाते देखा तो एक दिन उनसे मिले। सब्जी की खेती, बाजार भाव को समझा।
इसके बाद पहली बार उन्होंने टिन्डे की फसल लगाई, जिसमें बाजरा और गेहूं से तीन गुना ज्यादा कमाई हुई। इसके बाद उन्होंने देखा कि सब्जीमंडी विदेशी सब्जियां भी खूब बिक रही हैं, जबकि वह बहुत महंगी होती थीं, फिर भी बाजार में उठ जाती थीं। उन्होंने सोचा कि क्यों न वह विदेशी सब्जियों की ही खेती करें, क्योंकि उसमें खूब कमाई हो रही है। उसकी फसल विधि की जानकारी जुटाई और उन्नीस अस्सी के दशक में वह विदेशी सब्दियों की खेती करने लगे। इससे उनकी बेहिसाब कमाई हुई।
खेती में तरह-तरह के प्रयोगों का डागर का प्रयास यही नहीं थमा। उन्होंने देखा कि बाजार में फूलों की भी भारी मांग और खपत है। उन्होंने कृषि वैज्ञानिकों और फूलों की खेती करने वाले किसानों से फ्लॉवर एग्रिकल्चर पर अपना ज्ञान बढ़ाया। फूलों की खेती से भी खूब आमदनी हुई। अस्सी के दशक में वह चार-पांच सौ रुपए किलो बिक रही बेबीकार्न की खेती करने लगे। उसमें उनको जमकर मुनाफा हुआ। वह बताते हैं कि अब तो उनके जिले में लगभग डेढ़ हजार एकड़ में किसान बेबीकार्न की खेती कर रहे हैं। इस तरह खेती के तरीके अदल-बदल कर उन्हें इतनी कमाई हुई कि आज उनके खेतों का रकबा सोलह एकड़ से बढ़कर एक सौ बाईस एकड़ तक पहुंच चुका है। यानी उन्होंने खेती की कमाई से ही अपनी घर-गृहस्थी के खर्चे वहन के साथ-साथ एक सौ छह एकड़ खेत और खरीद लिए।
अपनी खेती में रमेश डागर ने एक और बात का खास ध्यान रखा। उन्होंने अपनी फसलों में रासायनिक खाद कदापि प्रयोग नहीं किया। वह सिर्फ गोबर और केंचुआ खाद डालते रहे। पहली बार जब उन्होंने अपने खेत की मिट्टी की जांच करवाई तो पता चला कि रासायनिक खाद के इस्तेमाल से जमीन बंजर हो रही है। इसके साथ ही अपनी जमीन की उर्वरता बढ़ाने के लिए कई अन्य जैविक कृषि विधियों का सहारा लिया। इसके साथ ही सिंचाई के लिए भी उन्होंने पानी के मुकम्मल स्रोत बना लिए। इस तरह उनका सफल किसान का सपना साकार होता गया।
अब तो वह मशरूम की भी खेती कर रहे हैं। खेत के सबसे नीचे कोने को और गहरा करके उन्होंने तालाब बना दिया है, जिसमें बरसात का पानी इकट्ठा कर वह मछली पालन, कमल ककड़ी, मखाना आदि की भी पैदावार कर रहे हैं। उन्होंने अपने खेतों की मेड़ों पर पापुलर पेड़ लगा रखे हैं जिससे प्रति एकड़ 70 से 80 हजार रुपए की आमदनी हो जाती है। इस तरह वह सिर्फ दो-ढाई एकड़ जमीन से सालाना दस-बारह लाख की कमाई कर ले रहे हैं। पांच-छह लाख रुपए उनको मधुमक्खी पालन से मिल जाते हैं। वह तीन चार लाख रुपए केंचुआ खाद बेचकर कमा लेते हैं और इतनी ही कमाई मशरूम से हो जाती है।
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