ऑपरेशन थिएटर की रोशनी में मस्तिष्क की सर्जरी करने वाले डॉ. रंगनाथम कभी लालटेन की रोशनी में पढ़ाई करने को थे मजबूर
स्कूल में ना बेंच थी ना टेबल ... ज़मीन पर बैठकर ही हुई पढ़ाई-लिखाई ...घर के नाम पर था बस एक कमरा, जिसमें रहते थे सात लोग ... गाँव में बिजली थी नहीं, इस लिए कंदील की रोशनी में थे पढ़ने को मजबूर ... कामयाबी की राह में न गरीबी आड़े आयी, न ग्रामीण परिवेश ... प्रतिभा और मेहनत के सामने हर मुश्किल हारी ... डॉक्टर बने और अब कर रहे हैं लोगों के खराब हुए मस्तिष्क का इलाज ... मस्तिष्क और रीढ़ से जुड़े करीब उन्नीस हज़ार ऑपरेशनों में निभा चुके हैं महत्वपूर्ण भूमिका ... अपने गाँव ही नहीं बल्कि पूरे ज़िले से आये मरीज़ों के इलाज में नहीं लेते कोई फ़ीस ... दिमाग के डॉक्टर रंगनाथम की कामयाबी की कहानी से मिलती है प्रेरणा
ग़रीब परिवार में जन्मा एक बच्चा जब अपने गाँव के दूसरे ग़रीब और बीमार लोगों को इलाज के इंतज़ार में तड़पता देखता तो उसका मन पसीज जाता। गाँव में प्राथमिक चिकित्सा केंद्र तो था, लेकिन वहां कोई डॉक्टर नहीं आता था। दर्द कम हो या ज्यादा, बीमारी छोटी हो या बड़ी, इलाज के लिए गांववालों को पांच किलोमीटर दूर जिला मुख्यालय के अस्पताल जाना पड़ता। कई लोगों के पास तो इतने पैसे भी नहीं होते थे कि वे कोई साधन कर जिला अस्पताल जाएँ। शायद गरीबी ही सबसे बड़ी बीमारी थी। इस बच्चे ने इलाज न करा पाने की वजह से कई लोगों को तड़प-तड़प कर मरते देखा था।
बच्चा दिमाग से बहुत तेज़ था। पढ़ने-लिखने में होशियार था। उसने गाँव वालों की बेबसी और लाचारी को देखकर ठान लिया था कि वो डॉक्टर बनेगा और गांववालों का इलाज करेगा। इरादा इतना बुलंद था कि उसने लक्ष्य हासिल करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी। न गरीबी को, और ना ही अपने ग्रामीण परिवेश को अपनी लक्ष्य-साधना में आड़े आने दिया। स्कूल-कालेज की हर परीक्षा में वो शानदार अंकों से पास होता गया। उसने दसवीं पास की। स्टेट रैंक हासिल किया। गांव से दूर, बड़े शहर में, राज्य के सबसे मशहूर कालेज में दाखिले की योगयता हासिल की। उसने मेडिकल कालेज की प्रवेश परीक्षा भी पहले ही एटेम्पट में क्लियर की। एमबीबीएस कोर्स पूरा किया। फिर देश की राजधानी जाकर वहां एम्स से न्यूरो सर्जरी के बेहतरीन तौर-तरीके सीखे। इसके बाद हैदराबाद आकर प्रैक्टिस शुरू की। आज उनकी गिनती देश के सबसे नामचीन और सिद्धहस्त न्यूरो सर्जनों में होती है। गरीबी का असर उस बच्चे पर ऐसा पड़ा था कि उसने दिमाग का डॉक्टर बनने के बाद ही चैन की सांस ली।
जिस बच्चे और डॉक्टर की यहाँ बात हुई है वे भारत-भर में विख्यात न्यूरो सर्जन डॉ पैडी पेद्दीगारी रंगनाथम हैं। रंगनाथम का जन्म आँध्रप्रदेश के श्रीकाकुलम जिले के किंतलि गाँव में हुआ। पिता गरीब किसान थे। माँ घर-परिवार की जिम्मेदारियां सँभालने के साथ-साथ खेती-बड़ी के काम में पिता का हाथ बटाती थीं। घर के नाम पर बस एक कमरा था,जिसमें माँ-बाप और सभी पाँच बच्चे रहते थे। रसोई-घर, आराम-घर, स्नान-घर सब एक कमरे में ही समाये थे। रंगनाथम के माता-पिता- दोनों अशिक्षित थे। रंगनाथम के दो भाई और दो बहन थे। पाँच भाई-बहनों में रंगनाथम सबसे छोटे थे। एक बड़ा भाई ही किसी तरह से दसवीं पार लगा पाया था।
कम्पार्टमेंट एग्जाम में उसने अपने बचे पेपर निकाल लिए थे । चूँकि परिवार में इतनी आमदनी नहीं थी कि बच्चों को स्कूल भेजा जा सकते और पढ़ाई-लिखाई के लिए ज़रूरी कलम-दवात, किताबें खरीदी जा सकें,दो बच्चों को छोड़कर सभी ड्रॉपआउट हो गए थे। रंगनाथम खुशनसीब थे कि उन्हें स्कूल भेजा गया। उन्होंने गाँव के सरकारी स्कूल में पढ़ाई की। सरकारी स्कूल की हालात भी उनके घर-परिवार जैसी ही थी। रंगनाथम को स्कूल में भी मिट्टी से सनी ज़मीन पर बैठकर पढ़ने-लिखने को मजबूर होना पड़ा था। लेकिन, रंगनाथम आम बच्चों की तरह नहीं थे। वे बहुत होशियार थे, समझदार थे। उनकी स्मरण-शक्ति गज़ब की थी। एक बार जब मास्टर क्लास-रूम की ब्लैकबोर्ड पर कोई पाठ लिख देता तो वो सारा पाठ रंगनाथम को याद हो जाता। मास्टर कुछ भी पढ़ते या सुनाते; रंगनाथम उसे याद रख लेते थे। स्कूल के सारे मास्टर रंगनाथम की प्रतिभा से बहुत प्रभावित थे। शिक्षकों ने रंगनाथम के कौशल,उनके गुण और उनकी श्रमता, प्रतिभा और तेज़ बुद्धि को देख-परख कर ये भविष्यवाणी कर दी थी कि बच्चा बड़ा होकर ज़रूर बड़ा आदमी बनेगा। शिक्षकों और दूसरे लोगों से रंगनाथम की तारीफ़ सुनकर माता-पिता फूले नहीं समाते थे। होनहार रंगनाथम ने माता-पिता के मन में नयी उम्मीदें जगाई थीं। माता-पिता को ये भरोसा हुआ था कि बेटा बड़ा आदमी बनकर ग़रीबी और दुःख-दर्द दूर करेगा।
रंगनाथम ने अपनी ओर से कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी। खूब मन लगाकर पढ़ाई की। क्या दिन और क्या रात, पढ़ाई-लिखाई का कोई मौका नहीं गंवाया। गाँव उनका पिछड़ा था इस वजह से घर पर बिजली नहीं थी। लेकिन अँधेरा भी उनकी पढ़ाई को नहीं रोक पाया। उन्होंने कंदील के रोशनी में पढ़ाई की। रंगनाथम की मेहनत रंग लाई। आगे चलकर उनकी तेज़ बुद्धि का परिचय राज्य-भर के लोगों को हो गया। दसवीं की परीक्षा में रंगनाथम को राज्य-भर में तीसरा रैंक मिला। एक बहुत ही पिछड़े गाँव का एक ग़रीब लड़का सुर्ख़ियों में आ गया। हर तरफ रंगनाथम की तारीफ हुई। चूँकि स्टेट रैंकर थे इस वजह से रंगनाथम को मनचाहे कॉलेज में दाखिला मिल गया। उन्होंने इंटरमीडिएट की पढ़ाई के लिए विजवाड़ा के आंध्रा लॉयला कॉलेज को चुना। रंगनाथम ने बताया," जब मैं स्कूल में था तभी मैंने सुना था कि आंध्रा लॉयला कॉलेज राज्य का नंबर वन कॉलेज है। इस कॉलेज में जिसे भी दाखिला मिलता है वो ज़रूर इंजीनियर या डॉक्टर बनता है। मैं भी डॉक्टर बनना चाहता था। जब मुझे स्टेट में थर्ड रैंक मिला मैंने आंध्रा लॉयला कॉलेज को चुना और चूँकि डॉक्टर बनना चाहता था मैंने इंटरमीडिएट में बॉयोलॉजी, फिज़िक्स और केमिस्ट्री विषय चुने।" ख़ास बात ये भी है कि अपने गाँव की बुरी हालत और वहां के प्राथमिक स्वास्थ केंद्र की दुर्दशा का रंगनाथम पर कुछ इस तरह असर पड़ा था कि उन्होंने डॉक्टर बनने की ठान ली थी। उन दिनों गाँव वालों को इलाज़ के लिए दूर-दूर जाना पड़ता था। दर-दर ठोकरें खाने के बाद भी उनका सही इलाज नहीं हो पाता था। गांववालों की तकलीफों का रंगनाथम के मन-मस्तिष्क पर बहुत ही गहरा प्रभाव पड़ा था।
आंध्रा लॉयला कॉलेज के शुरुआती दिनों में रंगनाथम को कई तरह की अजीब-अजीब समस्याओं का सामना करना पड़ा था। वे अंग्रेज़ी मीडियम से पढ़ना चाहते थे, चूँकि उन्होंने दसवीं तक की पढ़ाई तेलुगु मीडियम से की थी उन्हें इंटरमीडिएट के लिए भी तेलुगु मीडियम में ही रखा गया। रंगनाथम थोड़ा निराश तो हुए लेकिन उनका जोश कम नहीं हुआ। इरादे वही थे, हौसले बुलंद रहे। लक्ष्य नहीं बदला। आंध्रा लॉयला कॉलेज में जब पहले साल तिमाही की परीक्षा हुई उसमें रंगनाथम के नंबर सबसे ज्यादा थे। नंबर के मामले में रंगनाथम ने इंग्लिश मीडियम के बच्चों को भी पछाड़ दिया था। सभी अब रंगनाथम का लोहा मानने लगे थे।
एक और बड़ी दिक्कत आयी थी रंगनाथम के सामने । उन दिनों नक्सली आंदोलन ज़ोरों पर था और हर तरफ उसकी चर्चा थी। रंगनाथम श्रीकाकुलम जिले से थे और उस समय वो जगह नक्सली आंदोलन का गढ़ था। आंध्रा लॉयला कॉलेज में कुछ शरारती बच्चे उन्हें 'श्रीकाकुलम का नक्सली' कह कर पुकारते थे और सताते थे। लेकिन, परीक्षा में अपने अव्वल नंबर से रंगनाथम ने सभी की बोलती बंद करावा दी।
रंगनाथम भगवान को बहुत मानते थे। धर्म में विश्वास था। इसी वजह से वे माथे पर 'नामम' यानी तिलक लगाते थे। चूँकि गरीब परिवार से थे, हवाई चप्पल और कॉटन की शर्ट-पैंट पहनते थे। तिलक, हवाई चप्पल और कॉटन की शर्ट-पैंट ही उनकी पहचान बन गए थे।
आंध्रा लॉयला कॉलेज में पढ़ाई के लिए उन्हें हॉस्टल में रहना पड़ा था। विजयवाड़ा शहर उनके गाँव से बहुत दूर था। कॉलेज के शुरुआती दिनों में उन्हें अपने माँ-बाप, भाई-बहन, गाँव, गांववाले - सभी बहुत याद आते थे। वे अपने आप को अकेला भी महसूस करने लगे थे। शहरी जीवन को अपनाने में उन्हें खासा समय भी लगा। लेकिन उन्हें इस बात की खुशी थी कि हॉस्टल में उन्हें समय पर भोजन मिल जाता था। वहाँ पढ़ाई-लिखाई की अच्छी सुविधा थी। शिक्षा के सबसे अच्छे इंतज़ाम और साधन थे। टीचर भी काफी विद्वान और मददगार थे।
बड़ी बात ये भी थी इंटरमीडिएट की पढ़ाई के लिए उन्होंने अपने माता-पिता पर कोई बोझ नहीं पड़ने दिया था। चूँकि दसवीं की परीक्षा में थर्ड रैंक हासिल किया था उन्हें नेशनल मेरिट स्कॉलरशिप मिली थी। स्कॉलरशिप की रकम से ही कॉलेज में उनके सारे काम होने लगे। फ़ीस जमा हो जाती , मेस का खर्चा निकल जाता था।इंटरमीडिएट की पढ़ाई के दौरान रंगनाथम ने मेडिकल कॉलेज में दाखिले के लिए होने वाली प्रवेश परीक्षा लिखी। उम्मीद के मुताबिक बढ़िया रैंक आया और वे मेडिकल कॉलेज में दाखिले के लिए योग्य करार दिए गए। उस दिन को याद करते हुए रंगनाथम बहुत भावुक हो जाते हैं। उनके आँखों से आँसू निकल पड़ते हैं। वे कहते हैं,"उस दिन सारा गाँव मेरे घर के पास आ गया था। सभी बहुत खुश थे। एक गरीब घर का लड़का डॉक्टर बनने जा रहा था। "
प्रवेश परीक्षा पास करने के बाद रंगनाथम ने विशाखापट्टनम के आंध्रा मेडिकल कॉलेज में दाखिला लिया। हमेशा की तरह ही यहाँ भी खूब मन लगाकर पढ़ाई की। हर साल अच्छे नंबरों से हर परीक्षा पास की। जब एमबीबीएस कोर्स के दौरान इंटर्नशिप का वक्त आया तब रंगनाथम ने सभी को चौकाने वाला एक फैसला लिया। रंगनाथम ने ट्रेनिंग के लिए "न्यूरो सर्जरी" को चुना। उन दिनों बहुत कम डॉक्टर "न्यूरो सर्जरी" चुनते थे। रंगनाथम ने बताया,"अस्सी के दशक की शुरुआत में जब मैंने न्यूरो सर्जरी को अपना मुख्य विषय बनाया तब कई लोगों ने मज़ाक भी उड़ाया। वैसे भी उन दिनों में ये माना जाता था कि जो मरीज़ न्यूरो सर्जरी के लिए भेजा जाता था उसके दिन बहुत ही कम बचे हैं। न्यूरो सर्जरी का मतलब था जान बचाने की आखिरी कोशिश। लोग मज़ाक करते हुए कहते थे कि न्यूरो सर्जरी के लिए मरीज़ सीधे खड़े होकर जाता है और लेटा हुआ ऑपरेशन थिएटर से बाहर आता है, यानी ज़िंदा जाता है और मरा हुआ वापस आता है। उन दिनों न्यूरो सर्जरी के लिए बड़े-बड़े अच्छे उपकरण और तकनीक नहीं थे जैसेकि आज हैं।" रंगनाथम ने आगे कहा,"न्यूरो सर्जरी के लिए जो मरीज़ भेजे जाते थे उनकी हालत बहुत बुरी होती थी। किसी के हाथ-पाँव गिरे होते थे तो किसी की आवाज़ गायब होती थी। किसी का दिम्माग काम करना बंद कर देता था। मैंने देखा था कि कुछ डॉक्टर ऐसे थे जो ऐसे परेशानहाल और विकलांग हो चुके मरीजों को बिलकुल ठीक कर देते थे। मैंने ठान ली थी कि मैं भी यही चुनौती स्वीकार करूंगा। "
एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी करने के बाद रंगनाथम ने 1981 में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान यानी 'एम्स' में दाखिले के लिए प्रवेश परीक्षा लिखी। और हर परीक्षा की तरह की इस बार भी वे कामयाब हुए। 'एम्स' में दाखिले के समय भी जब रंगनाथम ने वहां के प्रोफेसरों को ये बताया कि वे न्यूरो सर्जरी में निपुणता हासिल करना चाहते हैं तब वहां के हेड ने उन्हें एक महीने तक का समय लेने और ठंडे दिमाग से सोचकर फैसला लेने की हिदायत दी थी। इस एक महीने के दौरान रंगनाथम ने 'एम्स' में दूसरे विद्यार्थियों से साथ आउट पेशेंट वार्ड और दूसरी जगह काम किया। एक महीने बाद जब हेड ने पूछा कि फैसला क्या है, तब भी रंगनाथम ने कहा - न्यूरो सर्जरी। रंगनाथम के दूसरे गुरुओं ने भी फैसले पर पुनर्विचार करने को कहा था। लेकिन,रंगनाथम अडिग थे। वे मन बना चुके थे। इरादा पक्का था।
रंगनाथम आज देश के सबसे मशहूर न्यूरो सर्जनों में एक हैं। 61 साल के रंगनाथम अब तक मस्तिष्क और रीढ़ से से जुड़े करीब उन्नीस हज़ार ऑपरेशनों में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा चुके हैं। उन्हें इस संख्या पर नहीं बल्कि ऑपरेशन की सक्सेस रेट पर फक्र है। रंगनाथम कहते है," भगवान ने ही मुझे सब दिया है। हाथों का सफ़ा भी उसी की देन है। मैं हर ऑपरेशन से पहले भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि मुझे मरीज़ को अच्छा करने में कामयाबी दे।" बतौर न्यूरो सर्जन पहले ऑपरेशन के बारे में जब पूछा गया तब रंगनाथम ने बताया कि एम्स में उन्होंने ज़िंदगी की पहली सर्जरी की थी। उस समय वे सीनियर रेसिडेंट और ड्यूटी डॉक्टर थे। रावत नाम के शख्स का एक्सीडेंट हुआ था। उसकी हालत बहुत नाज़ुक थी। कई फ्रैक्चर हुए थे। दिमाग में भी बड़ी चोट लगी थी। कंसल्टेंट ने रंगनाथम को ऑपेरशन करने के लिए कहा था। ऑपरेशन कामयाब हुआ और मरीज़ बच गया। रंगनाथम ने कहा," मेरे लिए अच्छी शुरुआत हुई थी। मेरा विश्वास बढ़ा। "
अब तक के सबसे जटिल और चुनौती-भरे ऑपेरशन के बारे में भी रंगनाथम ने हमें बताया। बहुत पहले उनके पास वेंकटरमना नाम का एक मरीज़ आया था। उसके ब्रेन में ट्यूमर था। ट्यूमर बड़ा था। छोटे-छोटे टुकड़े करकर उन्हें ट्यूमर निकालने थे। पूरे पंद्रह घंटों तक उन्होंने ऑपेरशन किया। इस दौरान एक भी मिनट उन्होंने रेस्ट नहीं लिया। लगातार पंद्रह घंटों तक उन्होंने काम करते हुए ट्यूमर का खात्मा किया। रंगनाथम कहते हैं," बीस साल से ज्यादा हो गए हैं उस ऑपरेशन को किये हुए। वेंकटरमना आज भी मेरे पास रिव्यु के लिए आता। उसको देखकर मुझे बड़ी खुशी होती है।"
'एम्स' से मेडिकल की उच्च स्तरीय शिक्षा और डिग्री हासिल करने के बाद रंगनाथम हैदराबाद आये और यहाँ उन्हें सरकारी अस्पताल निजामस इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज यानी 'निम्स' में नौकरी मिल गयी।
बतौर कंसल्टेंट (न्यूरो सर्जरी) उन्होंने काम शुरू किया। लेकिन, कुछ साल काम करने के बाद उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ दी और कॉर्पोरेट हॉस्पिटल में अपनी सेवाएँ देने लगे। रंगनाथम ने सरकरी अस्पताल छोड़ने के उस फैसले को अपनी ज़िंदगी का सबसे चुनौती-भरा फैसला बताया। रंगनाथम ने कहा,"मैं नहीं चाहता था कि सरकारी अस्पताल छोड़ूं। लेकिन,हालात कुछ ऐसे थे मैंने कॉर्पोरेट हॉस्पिटल ज्वाइन करने का फैसला लिया। उसी समय हमें लड़का हुआ था। मुझे लगता था कि सरकारी नौकरी करते हुए मैं ठीक तरह से अपने बच्चे की परवरिश नहीं कर पाऊंगा। मैं नहीं चाहता था कि मेरे बच्चे की पढ़ाई-लिखाई में रुपये-पैसों की दिक्कत आये। बच्चे की खातिर मैंने 'निम्स' को छोड़ दिया। "
1992 में रंगनाथम यशोधा अस्पताल से जुड़े। तब से लेकर अब तक वे वहीं अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब उनका बच्चा बड़ा हो गया है और वो भी डॉक्टर बनने को तैयार है। अपने पिता की तरह उसने न्यूरो सर्जरी नहीं बल्कि कार्डियक सर्जरी को चुना है। यानी वो पिता की तरह मस्तिष्क का नहीं बल्कि दिल का ऑपरेशन करेंगे। एक सवाल के जवाब में रंगनाथम ने कहा कि ज़रूरी नहीं कि हर कोई न्यूरो सर्जरी ही चुने। डॉक्टरी बहुत अच्छा और सम्मानजनक पेशा है। डॉक्टर लोगों की जान बचाते हैं। मेरी तो सलाह है कि नए लोग हर तरह के डॉक्टर बने। कोई आँख का बने, कोई नाक-कान का। हर तरह के डॉक्टर होने चाहिए। मैं तो यही कहूंगा कि जिसे जिस काम में आनंद मिलता है उसे वही काम करना चाहिए। "
रंगनाथम की एक और बड़ी ख़ास और बेहद दिलचस्प बात है। वो ये कि , दूसरे कई डॉक्टरों के उलट, वे ज्योतिष-शास्त्र में विश्वास रखते हैं। वे ज्योतिष-शास्त्र के आधार पर मरीज़ के ऑपेरशन का समय चुनते हैं। रंगनाथम कहते हैं,"भारत में कई काम ज्योतिष के आधार पर किये जाते हैं। बच्चों का अक्षर-अभ्यास करवाने के लिए ज्योतिष शास्त्र के आधार पर सही समय निकाला जाता है। हर शादी के लिए मुहूर्त तय किया जाता है। यहाँ तक कि भारत में राजनेता चुनाव के समय अपना नामांकन भी सही मुहूर्त के आधार पर ही करते हैं। ऐसे में ऑपेरशन के लिए ज्योतिष शास्त्र के आधार पर सही समय चुनना कहाँ से गलत होगा।" लेकिन, रंगनाथम अपनी बातों में ये बात जोड़ने से नहीं चूकते कि इमरजेंसी केसों में मुहूर्त नहीं देखा जाता। जान बचाना ज़रूरी होता है। रंगनाथम ने बताया कि कई मरीज़ मंगलवार के दिन ऑपरेशन करवाने को अमंगल मानते हैं। इतना ही नहीं कई लोग अमावस्या के दिन ऑपरेशन नहीं करवाते। महिलाएं भी पीरियड्स के समय ऑपरेशन से इंकार कर देती हैं।
रंगनाथम मानते हैं उन्हें उनके गाँव के हालात ने ही डॉक्टर बनने के लिए प्रेरित किया था। और यही वजह भी है वे अपने गाँव ही नहीं बल्कि पूरे श्रीकाकुलम जिले से उनके पास इलाज के लिए आने वाले मरीजों से फीस नहीं लेते। सर्जरी तक बिना फीस लिए ही करते हैं।