दिव्यांग लड़कियों को पीरियड्स के बारे में जागरूक करते हैं गांधी फेलोशिप के विनय
अनोखी पहल...
विनय ने अभी हाल ही में दिव्यांग बच्चियों को पीरियड्स के बारे में जागरूक करने का प्रॉजेक्ट शुरू किया है। भारत में अभी तक यह अपने आप में एक अनोखी पहल है।
2016 में विनय ने नौकरी छोड़ दी और गांधी फेलोशिप के तहत मुंबई और ठाणे के स्कूलों में बच्चों को जाकर पढ़ाने लगे। कॉलेज के दिनों से ही विनय थियेटर से जुड़ गए थे।
स्कूल में एक घटना ने विनय को सोचने के लिए मजबूर कर दिया। एक बार वह स्कूल की डायरेक्टर रिहाना सलामत से बात कर रहे थे कि तभी एक महिला ने रिहाना से पूछा कि वह अपनी दिव्यांग बच्ची का गर्भाशय कैसे हटवा सकती हैं।
उत्तर प्रदेश के एटा जिले के एक छोटे से गांव नगला राजा के रहने वाले विनय कुमार ने वैसे तो पत्रकारिता की पढ़ाई की है, लेकिन समाज के उपेक्षित लोगों की जिंदगी बदलने के जुनून ने उन्हें समाजसेवी बना दिया है। विनय ने अभी हाल ही में दिव्यांग बच्चियों को पीरियड्स के बारे में जागरूक करने का प्रॉजेक्ट शुरू किया है। भारत में अभी तक यह अपने आप में एक अनोखी पहल है। विनय का अब तक का सफर काफी संघर्षों से भरा रहा है। हर आम भारतीय पैरेंट्स की तरह विनय के माता-पिता भी चाहते थे कि वह पढ़ लिख कर अच्छी नौकरी पा जाएं। लेकिन घर की आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण उन्हें 12वीं के बाद नोएडा में आकर कंस्ट्रक्शन क्षेत्र में काम करना पड़ा।
इसी बीच उनकी मुलाकात पोलियो के शिकार अमित से हुई, जो कि लॉ ग्रैजुएट हैं और दिव्यांग लोगों के लिए काम करते हैं। अमित को आश्चर्य हुआ कि एक पढ़ा लिखा लड़का अपनी आगे की पढ़ाई करने के बजाय कंस्ट्रक्शन में काम कर रहा है। अमित ने विनय को आगे की पढ़ाई करने के लिए प्रेरित किया और कहा कि उनका खर्च भी उठाएंगे। विनय के मन में पत्रकार बनने की इच्छा थी। विनय बताते हैं कि अमिक भैया ने उन्हें काफी प्रेरणा दी। वह कहते हैं, 'मैंने उन्हें दिव्यांगों के लिए काम करते हुए देखा है। मुझे उन्हें काम करते देख हमेशा से यही लगा कि वे बाकी शारीरिक रूप से सामान्य लोगों के मुकाबले ज्यादा काम करते हैं। इसी वजह ने मुझे उनके साथ काम करने का मन हुआ। उन्होंने पढ़ाई में मेरी मदद की थी और इसीलिए मैं उनकी मदद कर उनका शुक्रिया अदा करना चाहता था।'
विनय ने अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से लॉ की पढ़ाई करने के लिए तैयारी की। लेकिन एग्जाम अंग्रेजी माध्यम की वजह से उन्हें मेन कैंपस में दाखिला नहीं मिला। उन्हें एक दूसरा सेंटर मिला जो कि शहर से काफी दूर था। विनय ने यहां एडमिशन तो ले लिया, लेकिन कई सारी दिक्कतों की वजह से उन्होंने उसे बीच में ही छोड़ दिया। इस दौरान उन्हें कई सारी नई चीजों के बारे में मालूम चला। उन्होंने पत्रकारिता की पढ़ाई करने के बारे में सोचा और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के सेंटर ऑफ मीडिया स्टडीज से एडवर्टाइजिंग और पब्लिक रिलेशन में एडमिशन लिया।
वे दिव्यांग बच्चों के साथ ड्रामा करना चाहते थे इसीलिए उन्होंने मुंबई के मुंब्रा स्थित उम्मीद स्कूल को चुना। मुंब्रा इलाके में मुस्लिम समुदाय के लोगों की अच्छी खासी आबादी है।
इलाहाबाद से उन्होंने बैचलर डिग्री ली और उसके बाद पोस्ट ग्रैजुएशन के लिए वे देश के प्रतिष्ठित मीडिया इंस्टीट्यूट इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्यूनिकेशन आए। यहां उन्होंने ऐड पीआर में दाखिला लिया। यहीं से कैंपस प्लेसमेंट के जरिए उन्हें उत्तर प्रदेश के पब्लिक रिलेशन विभाग में नौकरी मिल गई। कुछ दिन तक तो उन्होंने यहां काम किया लेकिन मन न लगने के कारण उन्होंने गाँधी फेलोशिप के लिए अप्लाई कर दिया। प्रतिभावान और पक्के जुनूनी विनय को यहां भी प्रवेश मिल गया।
2016 में विनय ने नौकरी छोड़ दी और गांधी फेलोशिप के तहत मुंबई और ठाणे के स्कूलों में बच्चों को जाकर पढ़ाने लगे। कॉलेज के दिनों से ही विनय थियेटर से जुड़ गए थे। वह इन बच्चों के साथ भी ड्रामा प्ले करते हैं। वे दिव्यांग बच्चों के साथ ड्रामा करना चाहते थे इसीलिए उन्होंने मुंबई के मुंब्रा स्थित उम्मीद स्कूल को चुना। मुंब्रा इलाके में मुस्लिम समुदाय के लोगों की अच्छी खासी आबादी है। इसलिए इन बच्चों के साथ काम करने में विनय को काफी दिक्कतें हो रही थीं, क्योंकि इनके परिवार के सदस्य पीरियड्स और स्वास्थ्य जैसी चीजों के बारे में बात ही नहीं करना चाहते थे। उम्मीद स्कूल के फाउंडर परवेज बताते हैं कि यहां की दिव्यांग लड़कियों को उनके घर से इस स्कूल तक लाना सबसे मुश्किल काम था।
विनय ने शुमा के माध्यम से मुंब्रा के इस स्कूल में 40 बच्चियों के साथ एक पायलट प्रोजेक्ट शुरू किया। इस प्रोजेक्ट के तहत उन्होंने चार स्टेप में काम किया।
इस स्कूल में एक घटना ने विनय को सोचने के लिए मजबूर कर दिया। एक बार वह स्कूल की डायरेक्टर रिहाना सलामत से बात कर रहे थे कि तभी एक महिला ने रिहाना से पूछा कि वह अपनी दिव्यांग बच्ची का गर्भाशय कैसे हटवा सकती हैं। विनय को यह बात सुनकर काफी दुख हुआ। विनय के मुताबिक इन बच्चियों के माता-पिता का सोचना होता है कि पीरियड्स आना उनके लिए दोतरफा परेशानी का सबब है। एक तो हर महीने उन्हें खासतौर पर देखभाल करनी पड़ती है और साथ ही इनके साथ शारीरिक उत्पीड़न होने का भी खतरा होता है। इन्हीं सब कारणों से आमतौर पर वहां के लोग लड़कियों का गर्भाशय ही हटवा देते हैं। लेकिन विनय बताते हैं कि यह न केवल उन बच्चियों के साथ अत्याचार है बल्कि मानवीय तौर पर भी गलत है।
विनय की दोस्त शुमा बानिक जो कि खुद भी गांधी फेलोशिप की कार्यकर्ता हैं, इस मुद्दे पर काफी दिनों से गुजरात में रहकर प्रोजेक्ट 'हैपी पीरियड्स' के तहत काम कर रही थीं। विनय ने उनके माध्यम से मुंब्रा के इस स्कूल में 40 बच्चियों के साथ एक पायलट प्रोजेक्ट शुरू किया। इस प्रोजेक्ट के तहत उन्होंने चार स्टेप में काम किया। पहला चरण था अवेयरनेस लाने का। क्योंकि इन बच्चियों के माता-पिता इनसे इस बारे में कभी बात ही नहीं करते। दूसरे स्टेप के तहत बच्चियों को समझाया गया कि उन्हें कैसे अपने शरीर में होने वाली क्रियाओं के बारे में बात करनी है। तीसरा चरण था फॉलो अप और ट्रैकिंग का, जिसमें विनय और शुमा ने देखा कि इसमें बच्चियों को किस तरह की दिक्कतें आ रही हैं और बच्चियां खुद की देखभाल करने में सक्षम हैं या नहीं।
विनय बताते हैं कि भारत में अभी दिव्यांग बच्चियों के पीरियड्स के बारे में कोई कार्यक्रम नहीं चल रहा है इसलिए वे इस पर काम करने के साथ ही समाज में पुरुषों को भी जागरूक करने का काम करेंगे।
इसके बाद विनय ने चौथे चरण के तहत खास पाठ्यक्रम डिजाइन करने के लिए सोचा। क्योंकि इन खास बच्चियों को संभालने वाले स्कूलों में कई तरह की बातें बताई जाती हैं लेकिन पीरियड्स जैसी सबसे जरूरी चीज के बारे में कोई बात ही नहीं होती। विनय की गांधी फेलोशिप खत्म होने में अभी चार महीने का वक्त है और वह आगे भी अपने इसी प्रोजेक्ट 'हैपी पीरियड्स' बढ़ाना चाहते हैं। युवावस्था के इस पड़ाव में जहां एक और सभी युवा अपने करियर के बारे में तैयारियां कर रहे होते हैं और अपने भविष्य को सिक्योर कर रहे होते हैं वहीं विनय और शोमा जैसे लोग अपने समाज की बेहतरी के लिए काम कर रहे हैं। वो भी खुद के भविष्य की परवाह किए बगैर। विनय बताते हैं कि उनके परिवार और रिश्तेदार उनसे अक्सर पूछते हैं कि पढ़ लिख लेने के बाद नौकरी नहीं करनी क्या?
इस पर विनय थोड़ा असहज जरूर होते हैं, लेकिन कहते हैं कि पैसे से मुझे वो संतुष्टि नहीं मिलती जो समाज के दबे-पिछड़े लोगों के लिए काम करने से मिलती है। वह बताते हैं कि उनकी जरूरतें काफी सीमित हैं इसलिए थोड़े पैसों में उनका गुजारा हो जाता है। इसलिए वे पैसे कमाने के बारे में सोचने में समय नष्ट नहीं करते हैं। वह जिस क्षेत्र से आते हैं वह उत्तर प्रदेश का काफी पिछड़ा इलाका है जहां अभी सुविधाएं नहीं पहुंची हैं और पीरियड्स जैसे मुद्दे पर कोई बात भी नहीं होती। वे अपने गांव वापस लौटकर इन्हीं सब मुद्दों पर काम करने की हसरत रखते हैं। विनय बताते हैं कि भारत में अभी दिव्यांग बच्चियों के पीरियड्स के बारे में कोई कार्यक्रम नहीं चल रहा है इसलिए वे इस पर काम करने के साथ ही समाज में पुरुषों को भी जागरूक करने का काम करेंगे।
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