अपने माता-पिता का पेशा जानने के बाद जीना नहीं चाहते थे बेज़वाड़ा विल्सन
बेज़वाड़ा विल्सन को काफी समय तक पता ही नहीं चला था, कि उनके माता-पिता ऐसा कौन-सा काम करते हैं जिससे मानवीय गरिमा को ठेस पहुंचती है।
भारतीय समाज हमेशा से कुछ गलत परंपराओं से जूझता रहा है। यहां एक खास तबके के लोगों को जन्मजात श्रेष्ठ माना जाता रहा है तो वहीं एक तथाकथित निचले तबके के लोगों को निम्न वर्ग का मानकर उन्हें सिर्फ साफ-सफाई जैसे काम करने को मजबूर कर दिया गया।
बेज़वाड़ा विल्सन को काफी समय तक पता ही नहीं चला था, कि उनके माता-पिता ऐसा कौन-सा काम करते हैं जिससे मानवीय गरिमा को ठेस पहुंचती है।
सिर पर मैला ढोने की प्रथा ऐसा ही प्रथा है जिसमें यह माना जाता है कि इसे 'निचले तबके' के लोग ही करेंगे। हाथ से मैला साफ करने की कुप्रथा के खिलाफ लड़ने वाले बेज़वाड़ा विल्सन भी ऐसे ही एक परिवार में पैदा हुए थे जो मैला साफ करने का काम करता था।
भारत तमाम विविधिताओं से भरा देश है। यहां की भाषा, खान-पान और पहनावे के अलावा रहन-सहन में भी काफी विविधता है। लेकिन भारतीय समाज हमेशा से कुछ गलत परंपराओं से जूझता रहा है। यहां एक खास तबके के लोगों को जहां जन्मजात श्रेष्ठ माना जाता रहा है, वहीं एक तथाकथित निचले तबके के लोगों को निम्न वर्ग का मानकर उन्हें सिर्फ साफ-सफाई जैसे काम करने को मजबूर कर दिया गया। लंबे समय तक ऐसे लोगों के साथ भेद-भाव होता रहा और देश के कई हिस्सों में आज भी किसी न किसी तरह यह भेदभाव जारी है।सिर पर मैला ढोने की प्रथा ऐसा ही प्रथा है जिसमें यह माना जाता है कि इसे 'निचले तबके' के लोग ही करेंगे। हाथ से मैला साफ करने की कुप्रथा के खिलाफ लड़ने वाले बेज़वाड़ा विल्सन भी ऐसे ही एक परिवार में पैदा हुए थे जो मैला साफ करने का काम करता था। लेकिन विल्सन को काफी समय तक पता ही नहीं चला कि उनके माता-पिता ऐसा काम करते हैं जिसमें मानवीय गरिमा को ठेस पहुंचती है। 2016 में बेज़वाड़ा विल्सन को मैला ढोने की परंपरा को मिटाने की दिशा में उनके उल्लेखनीय काम के प्रतिष्ठित पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
विल्सन का जन्म 1966 में कर्नाटक के कोलार इलाके में एक क्रिश्चियन दलित समुदाय में हुआ था। उनके पिता कस्बे में ड्राई टॉयलट्स से लोगों का पैखाना निकालकर ढोते थे। ये पुरानी शैली के टॉयलट्स दरअसल टॉयलट के नाम पर छोटे-छोटे गढ्ढे होते थे। जिसमें फ्लश करने या पानी से उसे साफ करने का कोई विकल्प नहीं होता था। इसे साफ करने के लिए मैला ढोने वाले समुदाय के लोगों को बुलाना पड़ता था और वे मानव मल को झाड़ू से साफ कर किसी लोहे के तसले में भरकर बाहर फेंकते थे। 18 साल की उम्र में विल्सन को यह पता चला कि उनके पिता मैला ढोने का काम करते हैं। विल्सन के पिता ने बताया कि काफी कोशिश करने के बाद भी उन्हें कोई काम करने को नहीं मिला। उन्हें कोई नौकरी पर ही नहीं रखता था, क्योंकि वे एक 'नीची' और 'अछूत' बिरादरी से आते थे।
ये भी पढ़ें,
IIM ग्रैजुएट ने डेयरी उद्योग शुरू करने के लिए छोड़ दी कारपोरेट कंपनी की नौकरी
विल्सन ने जब जाना कि उनके पिता ये काम करते हैं तो उन्होंने पानी की टंकी से कूदने की सोच ली। इसके पहले विल्सन को उनके पिता ने बताया था कि वे कोयले की खान में काम करते हैं। उन्होंने जब अपने माता-पिता से यह काम करने से मना किया तो उल्टा उन्हें सुनने को मिला कि अपनी पढ़ाई पर फोकस करो। उनके पिता ने उन्हें बताया कि यह समाज का नियम है।
विल्सन के पिता के साथ ही उनके बड़े भाई भी इंडियन रेलवे में मैला साफ करने का काम करते थे। यहां चार साल काम करने के बाद उन्होंने सोने की खदान वाली टाउनशिप में यही काम किया। विल्सन ऐसे हॉस्टल में रहकर पढ़ाई करते थे जो अनुसूचित जाति के लोगों के लिए बना था। हॉस्टल में भी विल्सन को काफी भेदभाव सहना पड़ता था। विल्सन के साथ जितने भी बच्चे एससी समुदाय से आते थे उन्हें 'थोती' कहा जाता था। जिसका मतलब होता था मैला ढोने वाला।
ये भी पढ़ें,
मध्य प्रदेश ने 12 घंटे में 6.6 करोड़ पेड़ लगाकर बनाया रिकॉर्ड
इन्हीं संघर्षों की वजह से विल्सन ने मैला ढोने की कुप्रथा को समाप्त करने के लिए सोचा। अपनी पढ़ाई खत्म करने के बाद विल्सन ने आर्थिक रूप से समृद्ध होने के लिए नौकरी खोजनी शुरू कर दी, लेकिन उन्हें कोई सम्मानजनक नौकरी नहीं मिल पाई। जहां भी वे नौकरी की तलाश में जाते उनके सरनेम और दलित समुदाय की वजह से उन्हें नौकरी नहीं दी जाती थी। हताश होकर विल्सन घर वापस लौटे और हर एक मैला ढोने वाले के घर जाकर उसे ऐसा काम करने से मना करने लगे।
भारत में यह अमानवीय प्रथा 1993 में ही गैरकानूनी घोषित कर दी गई थी, लेकिन राजस्थान, बिहार और उत्तर प्रदेश के कई इलाकों में यह उसके बाद भी जारी रही। शुरुआत में उन्होंने मंत्रियों, सीएम और देश के प्रधानमंत्री को भी पत्र लिखा। उन्होंने पत्र के साथ मैला ढोते व्यक्तियों की तस्वीरें भी भेजीं। उनके पत्र का इतना असर हुआ कि संसद में इस पर बहस हुई और इस काम को गैरकानूनी घोषित कर दिया। साथ ही दलित समुदाय के लोगों के पुनर्वास के लिए सराकारी प्रयास हुए। अपने पहले प्रयास के बाद वे दूसरे प्रदेशों में भी गए और आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु जैसे राज्यों में मैला ढोने की कुप्रथा के खिलाफ आवाज उठाई।
आज भी विल्सन इस कुप्रथा के खिलाफ और समाज में बराबरी लाने के लिए लड़ रहे हैं....