गांवों तक बिक रहे बोतल बंद पानी के सौदागर मालामाल
एक ओर देश में जल संकट खतरे की घंटी बजा रहा है, जल स्रोतों पर पानी के नैसर्गिक अधिकार से आम लोग वंचित हो रहे हैं, दूसरी तरफ कथित शुद्ध पानी बेचने का धंधा सौदागरों को मालामाल कर रहा है। अगले साल तक यह कारोबार 36 हजार करोड़ रुपए का हो जाने की संभावना है।
देश में जिस रफ्तार से बोतलबंद पानी की मांग बढ़ती जा रही है, उसी धड़ल्ले से पानी में भी मिलावट की मनमानी। आज बोतलबंद पानी नल के पानी से लगभग 10 हजार गुना ज्यादा महंगा हो चुका है।
हमारे देश में पानी के स्रोत सूखते जा रहे हैं और पानी के सौदागर मालामाल होते जा रहे हैं। भारत में लगभग 97 प्रतिशत पानी खारा है। बाकी तीन प्रतिशत मीठा पानी सिर्फ पहाड़ों की बर्फ, झीलों, नदियों और भूमिगत स्रोतों में उपलब्ध है। मौजूदा जल संकट देश के लिए खतरे की घंटी है। यही वजह है कि पानी का कारोबार करने वाली कंपनियां मालामाल हो रही हैं। पिछले कुछ ही वर्षों में बोतल बंद पानी का कारोबार छह हजार करोड़ रुपए से बढ़कर अगले साल 36 हजार करोड़ रुपए का हो जाने वाला है। हमारे देश में बोतल बंद पानी की बिक्री की शुरुआत उन्नीस सौ अस्सी-नब्बे के दशक में हुई थी। पेप्सी, कोका कोला जैसी मल्टीनेशनल कंपनियों ने इसे विश्व बाजार में बदल दिया। आज बिसलरी, पेप्सी, नेस्ले, माउंट एवरेस्ट, किनले, किंगफिशर, पारले आदि जहां ब्रांडेड वॉटर से मालामाल हो रही हैं, स्थानीय स्तर पर भी ऐसी सैकड़ों कंपनियां पानी बेच रही हैं।
वेल्यूनोट्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक यह तो लाइसेंसशुदा बिक्री का ब्योरा है। बिना लाइसेंस वाली कंपनियां इसका दोगुना कारोबार कर रही हैं। कई कंपनियां तो पचास से अस्सी रूपए बोतल रिवर्स ऑसमॉसिस (आरओ) पानी बेच रही हैं। एक तरफ प्राकृतिक पानी पर आम लोगों के अधिकार की दावेदारियां, घोषणाएं होती रहती हैं, दूसरी जल स्रोतों को बाजार के हवालेकर आम लोगों को पानी के नैसर्गिक अधिकार से वंचित करने की स्थितियां सामने हैं। स्वयंसेवी संस्थाएँ तक इस खतरनाक हकीकत पर खामोशी साधे हुए हैं। पानी के संकट के साथ ही बोतलों की रिसाइकलिंग से वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन भी बढ़ता जा रहा है। पानी का बाजार देखते ही देखते इतना बड़ा हो जाने में टूरिज्म का भी गंभीर योगदान है।
घर के नलों के पानी जैसे ही बोतल बंद पानी की सप्लाई कर ग्राहकों से रॉ मटेरियल, प्रोसेसिंग, पैकेजिंग और ट्रांसपोर्टेशन के साथ विज्ञापन तक की कीमत वसूली जा रही है। इसके बाद भी पानी में क्रोमियम 6 , आर्सेनिक, लीड और मर्करी जैसी अशुद्धियां मिल रही हैं। पानी की शुद्धता के दावे करने वाली ये कंपनियां 'फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड रेगुलेशन-2011 का अनुपालन कर रही हैं या नहीं, कोई जांच-पूछ नहीं। यदा-कदा सरकारी औपचारिकताएं निभा दी जाती हैं। गांवों तक फैल चुके पानी उद्योग में नेचुरल मिनरल वाटर की हिस्सेदारी सिर्फ 15 फीसदी है, जबकि 85 प्रतिशत बाजार पैकेज्ड ड्रिकिंग वाटर का है। भारतीय मानक ब्यूरो के अनुसार इस समय भारत में 5700 लाइसेंसशुदा बॉटलिंग प्लांट हैं जबकि नेचुरल मिनरल वाटर के सिर्फ 25 प्लांट। अकेले बुंदेलखंड इलाके में ही पानी कारोबार करने वाली कंपनियों ने 25 बॉटलिंग प्लांट के लाइसेंस ले रखे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश के दिल्ली, जयपुर, चेन्नई, हैदराबाद, गुरुग्राम, विजयवाड़ा, कोयंबटूर, अमरावती, सोलापुर, शिमला, कोच्चि, कानपुर, आसनसोल, धनबाद, मेरठ, फरीदाबाद, विशाखापत्तनम, मदुरै, मुंबई और जमशेदपुर के पानी के स्रोत 2030 तक पूरी तरह सूख जाएंगे। उस समय बोतल बंद पानी ही इन शहरों का सहारा होगा।
बाजार में खासतौर से तीन तरह के बोतल बंद प्रोसेस्ड पानी प्यूरिफाइड, डिस्टिल्ड, स्प्रिंग वॉटर की सप्लाई है। थोक में प्लास्टिक की खाली बोतल की कीमत 80 पैसे, एक लीटर पानी की कीमत 1.2 रुपए और शोधन आदि पर मात्र 3.40 रुपए, कुल लगभग साढ़े पांच रुपए खर्च लेकिन ग्राहकों को एक बोतल पानी 20 रुपए में बेचा जा रहा है। इतने के बावजूद रिसर्च-सर्वे आदि में बोतल बंद पानी की शुद्धता की गारंटी संदिग्ध रही है। किसी बोतल में नल का पानी तो किसी में सप्लाई का। केंद्रीय खाद्य मंत्री रामविलास पासवान लोकसभा में बता चुके हैं कि भारत सरकार के बोतलबंद पानी पर कराए गए एक सर्वे के दौरान जब 806 सैंपल लिए गए तो उनमें से आधे से ज्यादा के सैंपल फेल मिले। भारत में बोतलबंद पानी के 5 हजार से भी ज्यादा निर्माता हैं, जिनके पास ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैंडर्ड लाइसेंस है।
इसके बावजूद बोतलबंद पानी सुरक्षित नहीं है। दूसरी तरफ आधुनिक विकास की चपेट में गंगा, यमुना जैसी नदियाँ भी धीरे-धीरे अपनी ऊर्जा खोती जा रही हैं। दूसरी तरफ, आज गैरकानूनी तरीके से बोतल, प्लास्टिक के जार, थैलियों के साथ ही गिलास में भी कथित शुद्ध पानी की सप्लाई कर कमाई की जा रही है। खुलेआम हो रहे इस गैरकानूनी कारोबार से अफसर अनजान बने रहते हैं। भूमि जल बोर्ड से बिना एनओसी, लाइसेंस, ब्यूरो आफ इंडिया स्टैंडर्ड (बीआईएस) प्रमाणपत्र के ही समारोहों, दफ्तरों में गिलास में पैक पानी पहुंचाया जा रहा है। खाद्य एवं औषधि विभाग के पास इसके आंकड़े तक नहीं कि स्थानीय स्तरों पर इस तरह कितने व्यापारी पानी का कारोबार कर रहे हैं।
देश में जिस रफ्तार से बोतलबंद पानी की मांग बढ़ती जा रही है, उसी धड़ल्ले से पानी में भी मिलावट की मनमानी। आज बोतलबंद पानी नल के पानी से लगभग 10 हजार गुना ज्यादा महंगा हो चुका है। देश के इतने गंभीर जल संकट और पानी की मुनाफाखोरी की अनदेखी करते हुए गंगोत्री से गंगा सागर तक 22 हजार करोड़ की 240 से अधिक परियोजनाओं पर काम चल रहा है, साथ ही पानी की मुनाफाखोरी दिन दूनी, रात चौगुनी होती जा रही है। बिजली और सिंचाई के पानी के दोहन, बंटवारे के लिए लखवाड़ बहुउद्देशीय परियोजना पर हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान और उत्तर प्रदेश ने अपना अधिकार जमा लिया है। इसी तरह लगभग चार दर्जन अन्य नदी परियोजनाओं के माध्यम से बिजली-पानी बांट लेने के रास्ते ढूँढे जा रहे हैं।
साथ ही देश के सम्पूर्ण जलग्रहण क्षेत्रों में वनों का अन्धाधुन्ध विनाश हो रहा है। केंद्रीय जलस्रोत ‘बन्दर पूँछ’ ग्लेशियर सिकुड़ता जा रहा है। भूस्खलन भी रुकने का नाम नहीं ले रहे हैं। यमुना और टौंस खतरे में हैं। इस बीच पिछले महीने अक्टूबर में देहरादून में हुए एक ‘निवेशक सम्मेलन’ में बताया जा चुका है कि ऊर्जा क्षेत्र में लगभग 32 हजार करोड़ रुपए का अधिकतम उपयोग नदियों का बहाव रोकने पर खर्च किया जाना है। नदी जल के साथ इन्ही तरह की मनमानियों के खिलाफ हाल ही में स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद गंगा के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर चुके हैं, जबकि ऊर्जा क्षेत्र के निवेशक सबसे ज्यादा गंगा को बाधित करने पर ही नजर टिकाए हुए हैं।
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